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एक बार मिंटो और मार्क्स को साइड में रखकर जनजातिय लोकनृत्य को देखिये।

-कुमार एस की कलम से-

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Positive India:Kumar S:
कान्तारा…
स्वामी विवेकानंद से एक ने पूछा कि “हम हिन्दुओं के बहुत सारे देवी देवता हैं, क्या यह हमारे लिए नुकसानदायक नहीं?”
स्वामी जी – “बिल्कुल नहीं। बल्कि जितने मनुष्य हैं..उतने ही देवता होने चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति से दूसरे से भिन्न है। जैसी प्रकृति वैसा देवता। जितने मनुष्य उतने ही धर्म होने चाहिए। यही युक्तियुक्त है। हरेक मानव अपने अपने देवता द्वारा आत्म कल्याण को प्राप्त होगा।…. और यही कारण है कि भारत में इतने आराध्य हैं। भारत सच्चे अर्थों में देवभूमि है। यहाँ मनुष्य के विकास की सर्वोच्च संभावनाओं का वातावरण तैयार किया गया, यह हमारी सबलता है, इसे दुर्बलता न मानिए।”

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भारत के प्रत्येक गांव, मुहल्ले का अपना देवता था। हर परिवार का पारिवारिक, कौटुम्बिक देवता, कुलदेवी और आराध्य।
वनवासी हो या घुमन्तु समुदाय, सभी अपने अपने देव के साथ विचरण करते हैं।

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वे देवता अपने ही उपासकों जैसा आहार विहार करते हैं।
कोई चिड़िया की बलि से प्रसन्न होता है …तो कोई सवा रुपये के प्रसाद से। लेकिन आश्चर्य!! वे कारगर हैं!! सांप का जहर उतार देते हैं, खोई भैंस मिल जाती है, पंगु बच्चा ठीक हो जाता है। कोई तर्क नहीं, कोई विवाद नहीं, वे हैं, उनका अस्तित्व हैं।

अनगढ़ पत्थर, शिला या सुपारी में भाव करने से वे स्थापित हो जाते हैं, इनके मतलब का कार्य सिद्ध कर देते हैं, खाने, पीने, उल्लास, उत्साह का कारण बनते हैं, हारी बीमारी में सहारा बनते हैं …. और क्या चाहिए।
अकेले शिव और भैरव के ही इतने रूप हैं कि कोई शाक पत्ती से प्रसन्न है तो किसी को दारू मांस भी चढ़ता है।
ऊपर धरातल पर ज्ञानियों के लिए होगा। एकं सद् विप्रा:
बहुधा वदन्ति,
सर्वेश्वरवाद वगैरह लेकिन इनको क्या? युगों से यही लोक देवता इनके अंतःकरण में धर्म की ज्वाला जलाए हैं। वहाँ कोई तर्क, जल्पना का महत्व नहीं। असली भारत यही था। हम सबके रक्त में इनका वास है। आप अपनी कुछ पीढ़ी खंगालिए, स्थानच्युत होकर आधुनिकता में बसने से पहले आपको वहाँ अपनी जड़ें मिलेंगी। असमय के दुःख और समझ में न आने वाली बीमारियां, जन्मजात विकलांगता और आभासी आधुनिकता में डूबने के बाद भी #भीतर_की_अशान्ति खो जाने का कारण वहाँ मिलेगा।
तब आपको इस रहस्य के दर्शन होंगे कि क्यों आपके एक स्थापित पत्थर के पूजने से दूसरों को दिक्कत हो रही है।

एक उदाहरण दूँगा – बीकानेर की करणी माता आज पूजी जाती हैं, लेकिन वे जिनकी उपासना करती थीं वह माँ आवड़जी थीं। देवी। और माँ आवड़जी हिंगलाज की उपासक थीं। माँ हिंगलाज के जैसे ही 52 शक्तिपीठ हैं और उन सबमें देवी के 64 योगिनी रूप, फिर उन सबके क्षेत्रपाल, उनके द्वारपाल अलग अलग नाम वाले भैरव सबके सब उपास्य, नित्य भ्रमण करने वाले, एक आवाज पर उपस्थित होने वाले, यहाँ भी एक सुदृढ तन्त्र विकसित है।
कन्नड़ फ़िल्म कांतारा का यही दिग्दर्शन है।
अपनी जड़ों को पहचानिए।

दूर किसी गाँव में आपके पैतृक देव जिन्होंने युगों से तुम्हारे पूर्वजों को सहारा सम्बल दिए, उस खेत, प्लॉट, दुकान या अट्टालिका के नीचे दब गए और तुमने उन्हें भुला दिया। वे किसी खंडहर में तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं!!
इधर तुम्हारी शान्ति गायब है, तुम झूठा पानी या फूंक के भरोसे जड़ विहीन वृक्ष की भाँति निरन्तर दोलायमान हो, कोई भी झौंका आये तुम्हारी आस्था हिल जाती है!!

एक बार अपने फ्लैट से नीचे उतर कर वहाँ जा आइए।
एक बार अपनी तर्कशास्त्र की किताब बन्द कर उस मूर्ति के सन्देश को सुनिए।

एक बार मिंटो और मार्क्स को साइड में रखकर जनजातिय लोकनृत्य को देखिये।
दार्शनिक स्तर पर कांतारा में कुछ भी नया नहीं है, तुम जो भुला बैठे हो उसका ही पुनः स्मरण है।

आप भले ही लहसुन प्याज खाते हैं, मुर्गा उड़ाते हैं, सुट्टा लगाते हैं, ड्रिंक करके मटन भोगते हैं, कभी कभी इश्कबाजी भी करते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इन बाह्याचारों से आप पतित नहीं हो जाते।

किसने कहा आप गये गुजरे हो गए? यह हिन्दू है, अत्याचारी को कच्चा खा जाए तो भी उसका हिन्दुत्व जरा भी नहीं डगमगाता!!
जाइये, एक बार शान्ति से तीन घण्टे उस भाव को जी आइए, यह आपके ही खोए स्वरूप की कहानी है।

साभार:कुमार एस-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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