कथावाचक पं. प्रदीप मिश्र को नाक रगड़ने को क्यों विवश किया गया?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
कथावाचक पं. प्रदीप मिश्र(Pradeep Mishra) को नाक रगड़ने को क्यों विवश किया गया? उन्होंने राधारानी के लिए कोई अपशब्द तो नहीं कहा था। प्रेमानन्द जी महाराज(Premanand Ji Maharaj)ने बहुत आक्रामकता से उन पर प्रहार किया और अपने माधुर्य-भाव वाली छवि को स्वयं ही क्षति पहुँचा दी। पं. मिश्र ने कहा था कि राधारानी भगवान श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी नहीं थीं। उनका विवाह छाता निवासी अनय घोष संग हुआ था। उनकी सास का नाम जटिला और ननद का नाम कुटिला था। राधा जी बरसाना नहीं बल्कि रावल गाँव की रहने वाली थीं। बरसाना में उनके पिता की कचहरी थी और वे वर्ष में एक बार वहाँ जाती थीं, इसीलिए उसका नाम बरसाना (बरस में एक बार आना) पड़ा।
इन बातों में ऐसा क्या आपत्तिजनक है कि एक लोकप्रिय कथावाचक को इतना अपमानित किया गया? कहीं इसके पीछे वर्चस्व की राजनीति तो नहीं? संत-समाज कथावाचकों-प्रवचनकारों को नीची दृष्टि से देखता रहा है। किन्तु लाडली-जू पर कही गई कुछ बातों- जिनका आधार तथ्य था- पर आप पौराणिक-आधार पर ही आपत्ति ले सकते हैं! अगर कथावाचक पर प्रहार करके उससे नाक रगड़वाएँगे तो यह तो हिन्दू धर्म का इस्लामीकरण हुआ समझो। कुफ्र की अवधारणा जैसी यह बात हो गई है।
पहले वैष्णव मत था, फिर उसमें कृष्ण-धारा थी, फिर हित हरिवंश महाप्रभु की परम्परा में राधावल्लभ सम्प्रदाय चला आया, जो राधारानी की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकारता है। इसमें जहाँ तक माधुर्य है, भक्तिवत्सलता है, वहाँ तक शुभ है। किन्तु अगर सम्प्रदायवाद कठोर होकर छोटी बातों पर आक्रामक होने लगेगा तो पहले ही शताधिक धाराओं में विभाजित हिन्दू जाति को टूटने से कौन रोक सकेगा?
तथ्य तो यही है कि श्रीमद्भागवत पुराण के 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 सहस्र श्लोकों में राधारूप का वर्णन नहीं है! श्रीमद्भागवत में राधा का नामोल्लेख भले ना हो, किंतु एक ऐसी गोपी का उल्लेख अवश्य है, जो श्रीकृष्ण की प्रीतिभाजन थी। “अनयाराधितो नूनं भगवान हरिरीश्वर:” : इसमें आराधिका के साथ राधिका का श्लेष है। फिर दसवें स्कंध के बत्तीसवें अध्याय में उल्लेख है कि जहां अन्य गोपियों ने अंगस्पर्श के द्वारा श्रीकृष्ण से संबंध जोड़ा, वहीं एक गोपी ऐसी है, जो श्रीकृष्ण से भावरूप में एकात्म है। यही राधा हैं। जयदेव ने उन्हें आगे चलकर एक नाम-रूप की भंगिमा दी और उनके इर्द-गिर्द रागात्मकता का प्रणयानुकूल मिथक रच दिया, वहीं से राधारूप को कनुप्रिया और कृष्णवल्लभा की संज्ञा मिली।
ध्यान रहे कि राधाकृष्ण की युति सनातन मिथकों में वर्णित सभी युगलों में सर्वाधिक काव्य-सम्पन्न है। जैसे राम-जानकी के युगल में अभिधा है। वे सिंहासन पर विराजित हैं और राम दरबार सजा है। अर्धनारीश्वर के युगल में लक्षणा है। शिव और पार्वती एक हो गए हैं, लेकिन अपने-अपने पृथक स्वरूप को अभी उन्होंने त्यागा नहीं है। इनसे कहीं उत्कट, कहीं प्रगल्भ, राधाकृष्ण का युगल है, जिसमें काव्य की ऐसी व्यंजना कि पं. विद्यानिवास मिश्र कह गए, राधा कृष्ण के साथ नित्य संयुक्त भी हैं और नित्य विमुक्त भी। इन दोनों की प्रीति के तात्पर्यों को ठीक-ठीक तरह से उलीच सके, ऐसी तर्कणा नहीं मिलती। वे दोनों भावरूप में एक-दूसरे के पर्याय हैं।
श्रीमद्भागवत में कृष्ण की असंख्य गोपिकाओं के बीच जो अलक्षित है, महाभारत में कृष्ण की सहस्रों पटरानियों के बीच जो अनुपस्थित है, वही राधा है, श्रीकृष्ण की प्राणसखी। और कृष्ण के नाम में केवल राधा का नाम जुड़ सका है। रुक्मिणी, सत्यभामा या कालिन्दी का नाम उनके नाम में नहीं जुड़ा है। वे राधाकृष्ण ही कहलाए हैं।
जब राधा और कृष्ण नित्य संयुक्त भी हैं और नित्य विमुक्त भी तो कहाँ का छाता गाँव, कहाँ के अनय घोष, कहाँ की जटिला और कुटिला? वह कोई लौकिक-प्रतीक थोड़े ना है, जिसमें क्षेत्र, कुल, सम्बंध के आधार पर लड़ाई की जावे और भागवतकार से नाक रगड़वाई जाए। वैष्णव धारा के माधुर्य में इस तिक्त प्रसंग ने कटुता उत्पन्न कर दी है।
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