करवा चौथ की धूमधाम और लोकप्रियता से मैकॉले के मानसपुत्रों में घोर निराशा छा गई
-राजकमल गोस्वामी की कलम से-
Positive India:Rajkamal Goswami:
करक चतुर्थी अर्थात् करवा चौथ के पर्व की धूमधाम और लोकप्रियता से मैकॉले के मानसपुत्रों में घोर निराशा और उद्विग्नता पसर जाती है । कितने बरस हो गये इन गंवार देहाती औरतों को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का प्रयास करते पर नतीजा वही ढाक के तीन पात । इनको कितना समझाया कि यह चूड़ी बिंदी सिंदूर बिछिया सब पुरुषों की दासता के प्रतीक हैं एकदम अननेसेसरी फेमिनिटी लेकिन ये कॉनवेंट में पढ़ी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली हाईली एडूकेटेड लड़कियाँ भी छन्नी में चाँद देखती नज़र आती हैं ।
दूसरी तरफ़ यही लोग स्कूलों में बुर्का पहनने की आज़ादी की वकालत करते नज़र आते हैं । सारा पिछड़ापन इन्हें सनातनी पर्वों में ही नज़र आता है । शिवलिंग पर दूध की बरबादी इन्हें नज़र आती है लेकिन बक़रीद पर नालियों में खून बहते देख कर इतनी आत्मा को कोई कष्ट नहीं होता । होली पर पानी की बरबादी, दीवाली पर तेल की बर्बादी और पटाखों का प्रदूषण देख कर इनके पेट में दर्द हो जाता है ।
काले मैकालेपुत्रों के प्रभाव में आकर हिंदू पहले ही शिखा सूत्र गायत्री संध्या सब त्याग चुका है । बच्चों के नाम अवश्य अब भी संस्कृतनिष्ठ हिंदी में खोजे जा रहे हैं । नाम ही नाम बचा है । शहरों में सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले त्योहारों में तो अब सड़कों पर सन्नाटा दिखने लगा है । करवा चौथ जैसे परिवार के अंदर मनाये जाने वाले पर्वों पर भी आपत्ति की जाने लगी है ।
ये पर्व ये त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं । कितने लोगों की रोज़ी रोटी इनसे जुड़ी है । धनतेरस से दीपावली तक की बिक्री में बर्तन वाले मिठाई वाले सजावट वाले और सर्राफ़ अपनी साल भर की कमी पूरी कर लेते हैं । ऋतुचक्र और फसल चक्र से जुड़े यह पर्व हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है । इनकी आलोचना सहन नहीं की जा सकती ।
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)