जिरहनामा- कहां हो, कहां नहीं हो विवेकानन्द?
विवेकानन्द ने 1896 में लंदन में कहा था कांग्रेस को मैं बहुत अधिक नहीं जानता हूं लेकिन उसका आंदोलन महत्वपूर्ण है।
Positive India:Kanak Tiwari:विवेकानन्द अंधश्रद्धा का विषय नहीं लगातार जांच, जिज्ञासा और जिरह का कारण हैं। 39 वर्ष की तेजतर्रार जिन्दगी में उन्होंने दौड़ते कदमों से धरती, इतिहास और अनन्त को नापा। विवेकानन्द ने जो संकेत सूत्र बिखराए थे उन कंटूर रेखाओं को यदि भारत के भविष्य के लिए सुलझा लिया जाता तो एक अलग तरह का संविधान बनाया जा सकता था। गरीब आदमी के हक में विवेकानन्द के कहे एक एक वचन को लेकिन संविधान में सफेद स्याही से लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है।
विवेकानन्द ने कहा था कि धरती पर अगर कोई देश है जो खुद अपने बदले दुनिया के लिए जीने को तरजीह देता है तो केवल भारत है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम भाईचारे का जिस तरह संदेश देता है वैसा तो हिन्दू धर्म में भी नहीं है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को व्यवहारतः हिन्दू बताया था। कभी कभी लगता है विवेकानन्द ने भगवा वस्त्र नहीं पहने होते तो उनके व्यक्तित्व के साथ सांप्रदायिक छेड़छाड़ नहीं होती। भगवा वस्त्रधारियों ने ऐसा बहुत कुछ किया है और कर भी रहे हैं कि उन्हें विवेकानन्द के विचारों की अदालत में खड़ा किया जाना चाहिए। उन्हें एक भगवाधारी साधु के रूप में प्रचारित कर उनकी राष्ट्रवादी मार्केटिंग हो रही है। उन्होंने वेदांत का प्रचार करने से ज़्यादा युवकों को फुटबाॅल खेलने की केवल प्रतीकात्मक सलाह दी थी। सामाजिक जीवन के बाकी क्षेत्रों में धुर दक्षिणपंथी और धुर वामपंथी विचारकों ने भारतीय इतिहास को विवेकानन्द से वंचित रखने की बौद्धिक, सरकारी और पाठ्यक्रमित कोशिशें की हैं।
वक्त था जब अंगरेज हाकिम गिरफ्तार करता था जिनके घरों से विवेकानन्द साहित्य मिलता था। अंगरेज इशारा कर रहा था विवेकानन्द के विचारों में साम्राज्यवाद के खिलाफ आग लगा सकने वाली बारूद है। शुरुआत में विवेकानन्द ने आजादी के लिए क्रांतिकारी होने का रास्ता चुना। बंगाल के कई नवयुवकों को प्रेरित भी किया। विवेकानन्द को छोटे बड़े राजेमहाराजाओं और पूंजीपतियों से आर्थिक सहायता की उम्मीद थी। वह उन्हें नहीं मिली। इससे क्षुब्ध होकर उन्होंने परिस्थितियों के चलते साामाजिक आन्दोलन का बीड़ा उठाया। विवेकानन्द ने 1896 में लंदन में कहा था कांग्रेस को मैं बहुत अधिक नहीं जानता हूं लेकिन उसका आंदोलन महत्वपूर्ण है और उसकी सफलता की कामना करता हूं। अपने कांग्रेसी भाई महेन्द्रनाथ दत्त से विवेकानन्द ने साफ कहा था आज़ादी भीख मांगने से नहीं मिलती। कांग्रेस अंगरेजी शिक्षण के कुलीन लोगों का गिरोह बनकर देश के लिए कुछ नहीं कर सकती। जब तक उससे जनता नहीं जुड़ेगी, वह एक कारगर संगठन के रूप में इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाएगी और न देश आज़ाद होगा। उन्होंने यहां तक कहा भारत खुद को आज़ाद देश घोषित कर दे और अपनी सरकार बना ले। तब तिलक ने पहली बार ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ का नारा दिया। वर्षों बाद 1942 में ‘अंगरेजों भारत छोड़ो‘ का नारा गांधी की अगुवाई में दिया गया।
वंचित समाज के लिए किए गए विवेकानन्द के काम को बौद्धिक शोध में भी दरकिनार किया जाता है। छुआछूत, दरिद्र नारायण, समाजवाद, आध्यात्मिक लोकतंत्र, धर्मपरिवर्तन तथा हिन्दू धर्म की संकीर्णताओं को लेकर विवेकानन्द ने गांधी से दस साल पहले संकेत सूत्र वक्त की छाती पर बिखराए थे। विदेशों में जाकर भी हिन्दू धर्म की कुप्रथाओं का उपहास किया। उन्होंने कहा हिन्दू धर्म के नाम पर हिन्दू ‘मतछुओवाद‘ के प्रवर्तक हो गए हैं। जिस दिन भारत में ‘म्लेच्छ‘ शब्द का आविष्कार हुआ उसी दिन उसके लिए खतरे की घंटी बज चुकी थी। हिन्दू धर्म में छुआछूत है तो हिन्दू धर्म ही नहीं है। दलित ही इस देश की रीढ़ की हड्डी हैं। सुखद है कि संविधान का अंतिम प्रारूप एक दलित संविधान विशेषज्ञ के हाथों लिखने का दायित्व नियति ने दिया। विवेकानन्द के क्रांतिकारी विचार थे कि राजनीति का भविष्य अकिंचनों, दलितों, अस्पृष्यों और आदिवासियों के हाथों में होगा। धीरे धीरे आखिर हो तो रहा है।
विवेकानन्द पहले भारतीय हैं जिन्होंने कहा वे समाजवादी हैं। वे कहते थे समाजवाद सभी बुराइयों को दूर नहीं कर सकता। फिर भी भूखे रहने से बेहतर है आधी रोटी ही मिले। ऐतिहासिक घोषणा भी की थी दुनिया में पहली समाजवादी क्रांति रूस में होगी और फिर चीन में। उनकी समझ से पश्चिम का लोकतंत्र पूंजीवाद से नियंत्रित होने के कारण अपनी इतिहास यात्रा में थककर लहूलुहान हो गया है। उनका कहना था कि प्रजातंत्र और समाजवाद ही एक साथ चल सकते हैं। बाद में उन्होंने खुद कहा प्रजातंत्र समाजवाद के नियंत्रण में ही फलफूल सकता है।
बूर्जुआ वर्ग को विवेकानन्द ने ‘सोता हुआ अजगर‘ कहा था। उनकी समझ का हिन्दुस्तान में किसी को धार्मिक फतवे या सरकारी खाप पंचायत के हुक्म की तामील नहीं करना पड़े। संन्यासी ने एक सांस में सामंतवादियों और पूंजीपतियों के द्वारा बनाए गए आर्थिक ढांचे का नकार किया। विवेकानन्द ने देश के गरीब लोगों के हाथों में सत्ता और अर्थव्यवस्था की बागडोर सौंपने का असंभव दिखता क्रांतिकारी आह्वान किया। निकम्मे अमीरों को मिस्त्र के अजायबघरों में रखी ममियां बल्कि चलती फिरती लाश तक कहा। देवी देवताओं की मूर्तियों को मंदिरों से उखाड़कर फेंक देने और हाड़ मांस के इंसानों को उनकी जगह प्रतिष्ठित करने से उनका यही आशय था।
भारत में धर्म रिलीजन नहीं कर्तव्य को कहते हैं। विवेकानन्द ने धर्म और सेक्युलरिज़्म, पारलौकिक और इहलौकिक शब्दों के रिश्ते का खुलासा किया। सेक्युलरिज़्म और धर्म विपरीत नहीं हैं। एक निचले सांसारिक स्तर पर और दूसरा उच्चतर स्तर पर आध्यात्मिक प्रतीति कराता है। कुछ लोग केवल हिन्दुत्व के प्रचार के लिए इस्तेमाल करते हैं। धार्मिक रूढ़ियों के जंगल बनाए जा रहे देश में मनुष्य की आजादी के आयाम में विवेकानन्द ने जो कहा वह इतिहास में पहला, अनोखा और असाधारण विद्रोह है। उन्होंने धर्म के चेहरे पर उगी झाइयों, उस पर मली कालिख और उसकी आभा को मंद करती शैतानियत की कोशिशों को पहचानकर आदमी को सृष्टि का सबसे नायाब तोहफा बताया। शिकागो धर्म सम्मेलन में पहले ‘बहनों‘ फिर ‘भाइयों‘ के संबोधन के जरिए उन्होंने परंपरावादी संबोधनों को हाशिए पर डालकर अंतर्राष्ट्रीय समझ की शुरुआत की। हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि चूक गए। लेकिन भारत के प्रतिनिधि विवेकानन्द ने ऐलान किया मेरी देववाणी संस्कृत में ‘बहिष्कार‘ शब्द का अनुवाद नहीं हो सकता। उन्होंने कहा शिक्षा अपने सांस्कृतिक संचार के साथ दलितों और अकिंचनों के जीवन को सराबोर कर दे। तभी नए भारत का उदय होगा।
लेखक:कनक तिवारी (साभार)