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भारतीय समाजवाद के जनक कबीर

-संदीप तिवारी राज की कलम से-

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Positive India:Sandeep Tiwari “Raj”:
कबीर के बारे में वर्तमान भारत को बस इतनी ही जानकारी है कि कबीर एक संत थे व निर्गुण भक्ति अर्थात निराकार ईश्वर/राम के उपासक थे ! असल में धार्मिक जंजीरों में जकड़े इस देश के लोगों ने कबीर के व्यक्तित्व का विश्लेषण मात्र धर्म के नजरिये से किया है ! मुस्लिम कबीर को सूफी मानने लगे व हिन्दू संत ! जबकि कबीर दोनों धर्मों के सांचे में नहीं बैठते हैं !

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प्रशा में 1818 में एक व्यक्ति पैदा होता है और उनकी विचारधारा को लेकर जर्मनी से निष्काषित कर दिया जाता है।वह व्यक्ति पेरिस से होते लंदन पहुंचता है। लोगों को एकजुट करने के बहुत से प्रयास करता है मगर हर बार असफल हो जाता है। वो व्यक्ति राजनैतिक अर्थशास्त्र पर कलम चलाता है! “दास कैपिटल” के रूप में एक किताब सामने आती है। दुनियाँ उस विचार को सम्मान देती है और वो व्यक्ति दुनियाँ का महानतम विचारक कार्ल मार्क्स बन जाता है ।

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ऐसा क्या हुआ है कि 1818 में पैदा हुआ पोस्ट ग्रेजुएट,रीसर्च स्कॉलर अपने विचार से मरणोपरांत आधी दुनियाँ को बदल देता है मगर 1440 में लहरतारा, वाराणसी में पैदा हुआ,अनपढ़ आदमी जो कार्ल मार्क्स से 400 साल पहले इनसे भी बेहतरीन विचार दे गया उनको दुनियाँ वो सम्मान नहीं दे पाई जिसका वो हकदार थे !

कबीरदास जी ने खुद कहा “मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।” अर्थात जिन्होंने कलम कागज को छुआ नहीं उन्होंने अपने अनुभव व विवेक के आधार पर वो विचार दिया जो कार्ल मार्क्स भी नहीं दे पाए । कार्ल मार्क्स वर्ग संघर्ष के माध्यम से हिंसा को जायज ठहराते हैं मगर कबीर जागरूकता द्वारा स्वतः स्फूर्त समाजवाद की बात करते हुए कहते हैं…

साईं इतना दीजिये,जा में कुटुम्ब समाय!
मैं भी भूखा न रहूं,साध ने भूखा जाय!!

भारतीय इतिहास में जितने भी बड़े संघर्ष हुए हैं वो या तो धर्म को लेकर हुए हैं या सत्ता पर कब्जा करके धर्म के प्रचार-प्रसार को लेकर हैं । हर बड़े भारतीय दार्शनिक ने जन चेतना को जगाने के लिए धर्म के नाम पर पाखंड व अंधविश्वास की लूट में फंसी जनता को ध्यान में रखते हुए अपने विचार दिए ! बुद्ध से लेकर कबीर तक एक लंबी श्रृंखला रही है जिन्होंने ब्राह्मणवाद के कर्मकांडों का विरोध करते हुए जागरूकता के अभियान चलाए। बुद्ध ने “अप्पो दीपो भव” अर्थात मानने के बजाय जानने पर जोर दिया तो कबीर ने कहा…

कस्तूरी कुंडली बसै ,मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि- घटि राँम है , दुनियां देखै नाँहिं ।।

कबीर ने ईश्वर के अस्तित्व को नकारा तो नहीं मगर रूप,आकार, कालखंड से मुक्त बताकर कण-कण में,घट-घट में निवास बताया ! कुल मिलाकार कबीर भारतीय जनता जिस तरह आडंबरों में फंसी थी उसको बाहर निकालकर समानता,स्वतंत्रता व बंधुता के पटल पर लाने का प्रयास कर रहे थे ।

कार्ल मार्क्स के समय में पूंजीपति व मजदूर वर्ग पूर्णतया उभर चुके थे इसलिए मजदूरों के शोषण को देखकर समाजवाद की परिकल्पना पेश कर दी थी मगर कबीर के समय भारत में धर्म का शोषण चरम पर था। यहां आर्थिक स्तर की अवधारणा के मूल में धर्म मुख्य कारक था। धार्मिक सत्ता पर काबिज लोग आम जनता के शोषक थे और जनता पीड़ित ।

कबीर ने आमजन को धर्म पर काबिज लोगों की लूट के खिलाफ आमने-सामने के संघर्ष के लिए भड़काया नहीं बल्कि जन जागरूकता के माध्यम से विरक्त करने का प्रयास किया । कबीर ने ईश्वर व मोक्ष के लिए लालायित जनता को खुद उस स्तर पर खड़ा करने की कोशिश की जहां बिचौलियों के लिए कोई जगह न हो अर्थात धर्म के नाम पर लूट की चैन को खत्म कर दिया जाए ।

मजदूरों की तरह धर्म में भी पूंजी का उत्पादक मेहनतकश गरीब तबक़ा ही होता है इसलिए लूट की यह श्रृंखला जिस दिन गड़बड़ाई उसी दिन से गरीबों के जीवन में सुधार आने लग जाता है । परिस्थितियों व कालखंड के हिसाब से देखा जाए तो कबीर मध्यकालीन विश्व के पहले समाजवादी विचारक रहे हैं !

ऐसा क्या हुआ है कि भारत ने ऐसे महानतम विचारक को लगभग भुला दिया है या मात्र धर्म के सांचे में डालकर एक संत/सूफी/गुरु तक सीमित करके डाल दिया ? शायद कबीर को भी इसका अहसास था इसलिए कहा था…

बन ते भागा बिहरे पड़ा,करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे,को करहा को जान।।’

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ? यानि कबीर को जिन्होंने मात्र धर्म का विकल्प समझा उन्होंने ही कबीर के समाजवादी आंदोलन का,विचारों का कत्ल कर दिया । जिन्होंने कबीर को मात्र धर्मगुरु मानकर उनके “गेय शब्दों”को लेकर निकले व जगह-जगह आश्रमों की स्थापना की उन्होंने कबीर को पीछे छोड़ दिया और व्यक्तित्व के एक हिस्से को,विचारों के अंश को लेकर आगे बढ़ गए । ऐसे लोगों ने कबीर को वापिस ले जाकर धर्म के बाड़े में फेंक दिया !

कबीर के अनुयायी अगर समाजवादी कबीर को लेकर आगे बढ़ते तो तुलसी के संगठित धार्मिक गिरोह से मुकाबला कर पाते मगर कबीर के धार्मिक पहलू को लेकर आगे बढ़ा असंगठित समूह उसका मुकाबला नहीं कर पाया। धर्म की लूट के खिलाफ लड़ाई नया धर्म बनाकर या दूसरे धर्म मे जाकर नहीं लड़ी जा सकती। अगर ऐसा होता तो यहूदी धर्म मे पैदा हुआ,ईसाई धर्म में पला-पढ़ा मार्क्स नास्तिक नहीं होता !

अगर कबीर भी 15-20 साल और जिंदा रहते तो शायद अंतिम पड़ाव नास्तिकता ही होता ! जब कबीर को शुरू से लेकर अंत तक पढ़ते हैं तो एक धर्म भीरु कबीर से नास्तिक कबीर की तरफ का गमन साफ नजर आता है !

आज कबीर के बीजक में से साखी, रमैनी गायब हो चुकी है और “शब्द”अर्थात गाये जाने वाले पद्य बचे हैं ! भारत के सारे धर्म गुरु अपने अंतिम समय में काशी में अपना जीवन त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति हेतु आते थे और कबीर अपने अंतिम समय में काशी से निकलकर मगहर चले गए ! दुनियाँ के महानतम समाजवादी की समाधि/मजार मगहर में है जो दुनियाँ का प्रेरणास्थल होना था उसको दुर्भाग्य से भारत के लोगों ने ही भुला दिया…!!!

कबीर साहब की जयंती पर नमन करता हूँ..

साभार:संदीप तिवारी राज-(ये लेखक के अपने विचार है)

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