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चुगलखोरी, खुशामदखोरी और चरित्र हत्या की हैट्रिक

जिरहनामा

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Positive India:By Kanak Tiwari:भारत को एक बात का स्थायी गौरव है। उसने दुनिया को संस्कृति और इंसानी सभ्यता के सबसे ज्यादा कारगर मानक पाठ पढ़ाए हैं। आज भी देश के इतिहास और उसके पूर्वजों पर हम उनके कालजयी योगदान के लिए फख्र कर सकते हैं। अपनी छाती पर आक्रमण झेलना कायरों का नहीं, बहादुरों का काम है। गांधी ने भी कहा था अहिंसा वीरहृदय की प्राणवायु है। एक के बाद एक विदेशी हिंदुस्तान को फतह करने के दंभ में भारत पर मौलिक आक्रमण करते गए। दौलत लूटकर वापस भी चले जाते रहे। मोटे तौर पर मुगल ही इस धरती के संदेश से इस तरह आकर्षित हुए कि यहीं के होकर रह गए। उनकी समरसता के कारण भारत को हिंदुस्तानियत का नया सामाजिक फलसफा गढ़ने इतिहास ने मौका दिया। एक तरह की गंगा जमुनी संस्कृति कहलाती वे ऐतिहासिक यादें लगातार आधुनिक और नयी भी हो रही हैं।

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उसके बाद अंगरेज आए। वे जानते थे कि वे लुटेरे हैं। हिंदुस्तान की सभ्यता से उनको नफरत थी क्योंकि इस देश को वे दोयम दर्जे की समझ का देश मानते थे। उनमें हुकूमत करने के आक्रमणकारी और व्यावसायिक दोनों तरह के शोषक गुण थे। पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में बर्तानवी सल्तनत के जरिए करीब दो सौ बरस गोरे हुक्मरानों ने भारत पर अपना राज किया। उन्होंने सभ्यता के बाहरी आवरण बदल दिए। खानपान, पोशाक, भाषा, राज्यप्रबंध, अदालतें, संविधान सब कुछ उनके प्रभाव में आते रहे। निपट हिदुस्तानी रहे ग्रामीण अब भी उनकी आॅक्टोपस पकड़ से बाहर ही समझे जा सकते हैं। लोकबोलियों, लोककलाओं, स्थानीय रीतिरिवाजों और कई पारंपरिक आदतों के चलते हिंदुस्तानियत अब भी अपनी आत्मा के श्रृंगार करती रहती है। अंगरेज लेकिन एक नए तरह की फितरत छोड़ गए। सियासत का जो ढांचा उन्होंने हिंदुस्तान में हुकुूमत के लिए बनाया था वह आईन पोषित होकर आगे भी कायम रहा।

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कभी लोकजीवन में अतिथि सत्कार, शहादत, कुर्बानी, पर्वपरम्पराएं, भाईचारा वगैरह का पोचारा, सामाजिक आदतें टटोलती रहती थीं। अब यह आलम है कि युद्ध नहीं होने पर भी गहरे तनाव ने लिहाफ की तरह देश को ओढ़ लिया है। सच बोलना धीरे धीरे जिबह होता जा रहा है। मुख्बिरी करना, परनिंदा में डूबे रहना, यहां से वहां दुरभिसंधि के पेंच लगाना, पीठ पीछे छुरा मारने की कोशिश करना, ये सब दिखाई पड़ने वाली हरकतें भारतीय इतिहास के मूल स्वभाव में अपवाद की तरह और तिरस्कार योग्य कभी कभार ही रहती आई हैं। देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मुख्यन्यायाधीश सभी पदों पर बैठे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के भी कान भरने से लोग बाज नहीं आते। कई बड़े लोग कच्चे कान के हुए हैं जिन्होंने खुशामदखोरों की बात मानकर या सलाहकारों के बताए रास्ते पर चलकर खुद अपना नुकसान किया है। चुनाव नजदीक आते ही ऐसे विघ्नसंतोषियों का बाजार भाव बढ़ जाता है। अपनी साजिशों को सफल होते देखते रहने को बेताब लोग अगली किसी बड़ी घटना का इंतजार करते हैं। जब उन्हें उनकी ये हरकतें सत्ताप्रतिष्ठान की निगाह में महल को जलाने अंदर से प्रोत्साहित करती हैं।

किसी की चरित्र हत्या करना बहुत सरल है। लोग भूल जाते हैं एक उंगली किसी की ओर निंदा की उठाई जाए तो तीन उंगलियां अपने आप निंदक की ओर उठने लगती हैं। कई लोग तो अंर्तराष्ट्रीय ख्याति के व्यक्तित्वों के चेहरों पर भी विषवमन करने से नहीं चूकते। वे नहीं जानते आसमान की ओर देखकर थूकने से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का वैज्ञानिक रिश्ता होता है। कोई सफल नेता, अधिवक्ता, कलाकार, डाॅक्टर या वकील हो, उसकी निंदा वे लोग बुराइयों के हम्माम में डूबकर करते हैं जिन व्यक्तियों की उन गाफिल लोगों को समझ तक नहीं है। यह भी दुर्भाग्य होता है कि कई बार सत्ताधारी लोग कच्चे कान के होने के कारण दुधारी तलवार की तरह दी गई सलाहों को मानते अपना खुद का नुकसान कर लेते हैं। सियासत की भाषा सभ्यता की हो तो वह समाज के निर्माण के लिए नींव के पत्थर की तरह होती है। यदि राष्ट्रीय व्यक्तित्वों, प्रादेशिक नेताओं और अंर्तराष्ट्रीय ख्याति के प्रतिष्ठित भारतीयों के चेहरे पर विद्रूप का नकाब लगा दिया जाए। मीडिया का झूठ उसे सच बनाने की कोशिश करता रहे। तो देश और भविष्य को कौन बचाएगा।

वक्त आ गया है कि भारत को फिर से अपने गढ़े हुए नियामक मूल्यों की इबारत को पढ़ना चाहिए। महात्मा गांधी का सबसे नायाब उदाहरण है। उनकी अपने समकालीनों से राजनीतिक मुद्दों पर कई बार अलहदा राय होती थी। वे एक रोल माॅडल की तरह हिंदुस्तान की राजनीति में आए थे। अपने गुरु गोपालकृष्ण गोखले, सबसे प्रिय घोषित शिष्य जवाहरलाल नेहरू, महान क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह, दलितों के मसीहा बाबा साहेब अंबेडकर, विश्व गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर, तरुणाई के अग्निमय नायक सुभाषचंद्र बोस और न जाने कितने राष्ट्रीय ख्यति के व्यक्तित्वों से उनका कई मुद्दों पर मतभेद रहा। फिर भी संबंधों का ऐसा तरन्नुम इतिहास अब भी सुन समझ सकता है जो सब मिलकर सामाजिक रिश्ते बनाने की नई व्याकरण रचते प्रतीत होते हैं। आज लेकिन ऐसा नहीं है। शब्दकोषों में तिरस्कृत विशेषणों की कमी पड़ रही है। वे सब यहां वहां चस्पा हो रहे हैं। झूठ और फरेब ने केन्द्रीय भूमिका अख्तियार कर ली है। यदि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों में अग्निचरित्र नहीं होता। उन्हें भारतीयता की आंतरिक शक्ति की समझ नहीं होती। वे यदि आलिम फाजिल होकर दुनिया को बौद्धिक लिहाज से प्रभावित और फतह करने के काबिल नहीं होते। तो हिदुस्तानियत को आजादी की सरजमीं पर खड़ा कर एक नया इतिहास गढ़ने की उनकी कोशिशें नाकाम हो गई होतीं।

मेरे खुद के अनुभव में रहा है कि यदि कोई मेरी चरित्र हत्या करता है तो मुझे समझ नहीं आता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। यह अनुभव केवल एक व्यक्ति का नहीं हो सकता। यह हर एक नागरिक का अनुभव है। इसके बावजूद सामाजिक रिश्ते हैं कि टिके हुए हैं। चलते रहते हैं। कुछ लोगों ने खुशामदखोरी, कमीशनखोरी, झूठ, फरेब, परनिन्दा और चुगलखोरी को अपना स्थायी चरित्र बनाकर पेटेंट भी कर लिया हो। तब भी यह सच की रोशनी है जो इन बादलों को छांटकर निगाह को धुंधला नहीं होने देती।

लेखक:कनक तिवारी

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