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जीवन का आश्चर्य एक विचित्रतम आख्यान है!

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India: Sushobhit:
17 वर्ष की अवस्था में ऐसे तजुर्बे से मेरा सामना हुआ, जो अमूमन सबको नहीं होता और आज के समय तो जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैंने 12वीं की कक्षा पास करके पढ़ाई छोड़ दी थी! तीन साल तक फिर मैंने कोई अकादमिक पढ़ाई नहीं की। यह स्थि​ति तब थी, जब मैं ‘ब्राइट स्टूडेंट’ था और क्लास में टॉपर था। इतिहास में मुझे 100 में 95 अंक आए थे और मेरे व्याख्याता श्री कौशल सर ने मुझसे कहा था कि 5 नम्बर मैंने इसलिए काटे, क्योंकि चाहकर भी मैं 100 नहीं दे सकता था। पर तुम्हारी कॉपी में एक भी ग़लती नहीं थी। उन्होंने मुझे अपने घर भी बुलाया था और कहा था किसी तरह की मदद की ज़रूरत हो तो बताना। मेरे टीचर्स को हमेशा ही मुझसे बहुत उम्मीदें रहती थीं कि मैं कुछ करूँगा।

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मैंने 12वीं करके पढ़ाई क्यों छोड़ दी? वह एक सनक थी! इतने सालों बाद सोचने पर अब स्मरण आता है कि तब मेरे मन में अकादमिक पढ़ाई के प्रति घोर अरुचि जाग गई थी और उसको मैं असार समझने लगा था। उस समय मेरे दिमाग़ में यह कॉन्सेप्ट नहीं था कि अकादमिक पढ़ाई विद्यार्जन के लिए नहीं, डिग्री पाने के लिए की जाती है और डिग्री नौकरी में काम आती है। मैं समझता था, विद्या ही प्राप्त करना है तो वह तो पाठ्यक्रम से बाहर की किताबों से भी पाई जा सकती है, उसके लिए पूरे साल यह कल्पनाहीन-यांत्रिक पढ़ाई करने की ज़रूरत नहीं। नौकरी के बारे में उस समय मैं ज़्यादा सोचता नहीं था। मैं समझता था कुछ ना कुछ काम-धंधा तो मैं कर ही लूँगा।

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लेकिन उन तीन वर्षों में मुझे भाँति-भाँति के तजुर्बे हुए, जो अगर कॉलेज में जाता तो नहीं होते। मैं घर तो बैठ नहीं सकता था, इसलिए परिजनों को बहलाने के लिए और ख़ुद को व्यस्त दिखाने के लिए तरह-तरह के काम किए। उस ज़माने में (यह 20वीं सदी की बात है, वर्ष 1999) अमूमन लड़के गर्मियों की छुट्टियों में कोई काम सीखते थे। कोई मेडिकल की दुकान पर बैठ जाता, कोई कपड़ों की दुकान पर, कोई पिता के काम में हाथ बँटाता। उस समय जूतों की दुकान चलाने वाले एक मनसुखभाई वढेरा मेरे परिचित थे तो मैं उनके पास गया और कहा कि तनख़्वाह वग़ैरा मुझको नहीं चाहिए, पर मैं आपकी दुकान पर काम करना चाहता हूँ। उन्होंने मन ही मन सोचा होगा कि यह भला मूरख मिला है जो मुफ़्त में काम कर रहा है। वो राज़ी हो गए। कुछ महीने मैंने उनके यहाँ काम किया, जूते बनाना सीखे और चप्पलों की मरम्मत की। फिर मैं मालीपुरे में गुप्ता साहित्य भण्डार पर काम माँगने गया। दुकान मालिक श्री उमेश गुप्ता ने नौकरी दी। वहाँ मैंने झाडू-पोंछा, साफ़-सफ़ाई, बोरा-बिल्टी का काम किया। समय-समय पर कुंजियों के प्रूफ़ भी पढ़े। लेकिन वढेराजी के उलट गुप्ताजी ने मुझे अढ़ाई सौ रुपया महीना पगार ज़रूर दी।

पेपर-हॉकर का काम मैं अतीत में कर चुका था, कुछ समय बाद मैंने एक न्यूज़पेपर की एजेंसी ले ली। फिर एक डीटीपी सेंटर में जाकर टाइप-कम्पोजिंग का काम सीखा। एक प्रिंटिंग प्रेस में भी कुछ दिन काम किया। थोड़ा समय स्क्रीन-प्रिंटिंग के एक काम को भी दिया और तैलरंग-घासलेट की गंध से अटूट-नाता जोड़ा। अध्यात्म के पचड़े में भी पड़ा। ध्यान आदि लगाया। समाधि-शिविरों की ख़ाक़ छानी।

इस सबसे मेरे अनुभवों का संसार व्यापक हुआ। मैंने जीवन को उसके निम्नतम तल से देखा। कुलियों, खलासियों, मोचियों, हम्मालों, तम्बोलियों, हॉकरों और संन्यासियों के जीवन को क़रीब से जाना। इस पृष्ठभूमि के चलते आजतक मेरे व्यक्तित्व में एक रॉ-नेस है, अनगढ़पन है। उसमें चतुरसुजानों सरीखी वह पॉलिश नहीं आ पाई है, जो कि अमूमन जीवन की यात्रा में आ ही जाती है।

इसी दरमियान मैंने अपनी ग़ैर-अकादमिक पढ़ाई भी जारी रखी। उन तीन सालों में मैंने पागलों की तरह किताबें पढ़ीं। कभी-कभी तो दिन में एक किताब की गति से। तॉल्सतॉय, तुर्गेनेव, दोस्तोयेव्स्की और गोर्की- इन चार सज्जनों को मैं आद्योपान्त पढ़ गया। रजनीश टाइम्स के जितने भी अंक उपलब्ध थे, सब चाट गया। नीत्शे, बर्ट्रेंड रसेल, ख़लील जिब्रान को पढ़ा। मीर-मजाज़ को पढ़ा। हिन्दी की छायावादी कविता को खंगाला। तो एक तरफ़ संसार के श्रेष्ठतम साहित्य का अनुशीलन, दूसरी तरफ़ श्रमजीवियों-सा जीवन- इन दोनों के तालमेल से मेरे व्यक्तित्व का इस्पात बना। अनुभूति और विचार का संसार एकसाथ प्रसूत और पोषित हुआ।

उन तीन वर्षों के दौरान ही मेरे पिता की मृत्यु हुई, मैं घोर अवसाद के दौर से गुज़रा, उसी कालखण्ड में मुझे पहला प्रेम हुआ- जो तमाम प्रेमों की तरह एकतरफ़ा और विफल रहा- और उसी दौर में मुझे अपनी पहली वैतनिक कार्यालयीन नौकरी मिली- दैनिक अग्निपथ, उज्जैन में प्रूफ़रीडर के पद पर। कालान्तर में उस दौर के अनेक अनुभवों को मैंने कहानियों की शक्ल में ढाला और वे कहानियाँ मेरी किताबों में प्रकाशित हुईं।

इस तरह, तीन साल आकाशवृत्ति से बिताने के बाद जब होश ठिकाने आये तो मैंने अन्तत: बीए का पर्चा भरा, फिर एमए तक की पढ़ाई पूरी की। एमए मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में किया। लेकिन एक बार फिर मैं अपनी क्लास में टॉपर था। तीन साल के अंतराल से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। जैसे मछली तैरना नहीं भूलती और चिड़िया उड़ना नहीं भूलती, वैसे ही मैं इम्तिहान के परचों में उम्दा उत्तर लिखकर आना नहीं भूला था।

उन तीन सालों को मैं मक्सिम गोर्की की तर्ज़ पर अपने “जीवन के विश्वविद्यालय” कहता हूँ, जिन्होंने मुझे वह सब सिखाया, जो अकादमिक शिक्षा कभी किसी को नहीं सिखा सकती। बाद में मुझे पता चला कि एर्नेस्तो चे ग्वारा के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर ली थी। पिता ने उनसे कहा, अब मैं तुम्हारा एक क्लिनिक खुलवा देता हूँ। चे ने सोचा कि अगर डॉक्टरी की प्रैक्टिस में लग गया तो पूरा जीवन इसी में खट जायेगा। क्यों ना काम-धंधे में उलझने से पहले दुनिया घूम आएँ। उन्होंने पिता से एक साल की छुट्टी माँगी और मोटरसाइकिल उठाकर समूचे लातीन अमरीका की यात्रा पर निकल पड़े। लेकिन उसके बाद वो कभी लौटकर नहीं आ सके। ग़रीबी और शोषण के जो दृश्य उन्होंने देखे, उन्होंने उन्हें आजीवन एक क्रांतिकारी बना दिया।

हाल ही में मैंने एक वीडियो में देखा कि एक प्रतिष्ठित आईएएस ट्रेनर अपनी क्लास में बच्चों को बता रहे थे कि अगर आपको अच्छी भाषा लिखनी है तो सुशोभित को पढ़ें। वह देखकर मैं मुस्करा दिया। मैं सोचने लगा कि इन आईएएस एस्पिरैंट्स को क्या पता उन्हें जिस व्यक्ति को पढ़ने को कहा जा रहा है, वह एक शालात्यागी छात्र था! किताबों का साथ अगर न होता तो वह आज कोई छोटा-मोटा काम-धंधा करने वाला कोई बेचेहरा आदमी होता- जैसे देश के करोड़ों जन हैं। किताबों की पतवार ने ही उसको आज वह जो भी है जैसा भी है, वैसा किसी किनारे पर लगाया है!

जीवन का आश्चर्य एक विचित्रतम आख्यान है!

Writer:Sushobhit-(The views expressed belong solely to the writer)

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