Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
सुनी वचन सुजाना, रोदन ठाना…
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कक्ष में इतना प्रकाश भर गया है कि अब कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उम्र के उत्तरार्ध में माँ बनी उस देवी की आंखें आश्चर्य से फटी जा रही हैं, यह क्या कौतुक है देव? मैं तो अभी बालक को जन्म दे रही थी, यह विराट स्वरूप वाला देव कौन है? शस्त्रों से सज्जित चार वलिष्ठ भुजाएं, सांवला दिव्य स्वरूप… कक्ष की छत कहाँ गयी? इनका शरीर तो आकाश छू रहा है। कौन हैं ये? स्वयं नारायण तो नहीं?
काँपते स्वर में माता ने पूछा- आप कौन हैं प्रभु? मुस्कुराते ईश्वर ने कहा,”तुम्हारा पुत्र माँ! तुम्हारा पुत्र!”
एक क्षण में ही वह देवी प्रसव की पीड़ा भूल गयी। भूल गयी बुढ़ापे तक संतानहीन रहने का दुख। रोम रोम आनन्दित हो उठा। कानों में जैसे वेद मंत्र घुलने लगे थे, तृप्त आंखें अनायास ही बहने लगी थीं। अचानक याद आया,” अरे! इन्ही की माता बनने के लिए तो जन्म मिला है। जब शतरूपा के रूप में थी, तभी नारायण ने वर दिया था कि त्रेता में तुम्हारा पुत्र बनूंगा। अहा! ईश्वर की माँ हूँ मैं… धन्य धन्य..
तभी माँ को कुछ सुझा। हाथ जोड़ कर बोलीं, “यह कौन सा रूप धारण कर लिया देव? मैंने पुत्र मांगा था, ईश्वर नहीं। मुझे आपको गोद में खिलाना है। आपकी किलकारियों पर मोहित होना है, आपकी चञ्चलता पर मुग्ध होना है। आपको रोते हुए देखना है, आपको बड़े होते देखना है…
देव चुपचाप मां की ओर देख रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं। माँ कहे जा रही है- सुनिये प्रभु! पुरूष यह बात नहीं समझ सकते, मातृत्व का वास्तविक सुख संतान की समृद्धि और यश देखने में कम, उसका नटखट बचपन देखने में अधिक होता है। शिशुलीला करो देव! जैसे सभी करते हैं। जेहि विधि करहुं अनन्ता…
देव मुस्कुराए! एकाएक वह दिव्य प्रकाश विलोपित हो गया। कक्ष में सुन्न पड़ी दासियों की चेतना लौटी। उन्होंने देखा, “महारानी की गोद में पड़ा नवजात शिशु बस रोने ही वाला है। वे हड़बड़ा कर उठीं और बालक के कंठ से फूटे स्वर…
कोई समझ न सका कि क्यों सबकी आंखों में जल उतर आया था। माँ की आंखों में, दासियों की आंखों में… दूर अपने कक्ष में बैठे महाराज दशरथ की आंखें भी उसी क्षण भीगने लगीं। उसी क्षण अयोध्या के हर जीव को अनुभव हुआ, कोई न कोई विशेष घटना घटी है। कुछ दिव्य हुआ है, ईश्वरीय… अयोध्या ही क्यों? सुदूर वन में, हिमालय से लंका तक…
इधर कक्ष के बाहर खड़ी दासियों ने अंदाजा लगाया, “बड़े देर के बाद रो रहा है, और धीमे धीमे भी रो रहा है। पुत्र ही है… कन्या होती तो स्वर अधिक तेज होता। मङ्गल हो नरेश! युवराज आये हैं।
कक्ष के भीतर की दासी बाहर बताने निकली तबतक बाहर की दासियाँ युवराज युवराज का शोर मचाने लगी थीं। दासी नरेश को बताने पहुँची, उसे देखते ही नरेश रोमांचित हो उठे। अनायास ही मुख से निकला- पुत्र हुआ है न? अरे कोई गुरुदेव को सूचना दो… सेवक दौड़ा कुलगुरु वशिष्ठ की ओर। उसे देखते ही ऋषि बोले- क्या हुआ? राम आ गए… धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, विश्व का कल्याण हो… जैसे किसी को कुछ बताना न पड़ा। जैसे भारत का कण कण उनकी प्रतीक्षा ही तो कर रहा था। जैसे भारत का कण कण उन्ही की छाया में जीना चाहता है। जैसे तब सब राममय था, वैसे अब भी सब राममय है।
साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।