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जयचंद और मानसिंह को लेकर ताने देना क्यों बंद करना चाहिए?

-कुमार एस की कलम से-

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Positive India:Kumar S:
राजपूतों को साथ रखने के लिए निम्नलिखित बातों का अन्य जातियों को सावधानी से पालन करना चाहिए। यह सबका दायित्व है कि उनकी असंतुष्टि का लाभ राष्ट्र विघातक तत्त्व न ले पाएं।
1.जयचंद और मानसिंह को लेकर ताने देना बंद करना चाहिए। यह अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। राजपूत कोई #जनप्रतिनिधि_या_सरकारीनौकर नहीं है कि आप इन्हें जब जैसे चाहे बार बार कोसें और वे इतिहास आधारित आपके व्यंग्य वचनों को सहते जाएं। अतीत में सभी से गलतियां हुई भी होंगी तो वर्तमान में उनका नाम लेकर हरेक ऐरा गेरा, जब जी चाहे उनकी बात केवल इसलिए उठाता है ताकि राजपूतों को नीचा दिखाया जा सके और उसकी छाया में खुद को बहुत ऊपर दर्शा सकें। राजनेता और अधिकारी तो हो सकता है इसे सहन भी करे, आम राजपूत क्यों सुने, क्यों सहन करे?
इन दोनों महान राजाओं ने तत्कालीन हिन्दू समाज को सुरक्षित रखने के लिए अपने तरीके से प्रयत्न किए। दोनों ही यौद्धा, त्यागी, प्रजावत्सल और पर्याप्त शक्तिशाली थे।
इनके वंशजों की संख्या करोड़ों में हैं। आपके आसपास का हरेक 10 वा व्यक्ति इनका वंशज है। और उनमें से अनेक ने राष्ट्र जीवन के लिए अतुल त्याग और पुरुषार्थ किया है। इनको गाली देकर वैसे भी आप लाखों करोड़ों को न केवल अपमानित करते हैं, उनके अहसानों की लंबी सूची है, उससे कृतघ्नता भी व्यक्त करते हैं। ये गद्दार थे, यह स्थापना और इसको लेकर इनके वर्तमान वंशजों का अपमान, स्वयं का अपमान, हिन्दुओं में हीनग्रंथि, यह दोनों ही वामपंथी नैरेटिव है। आइए थोड़ा बिंदुवार समझते हैं।
2.जयचंद्र ने मुहम्मद गौरी को आक्रमण के लिए आमंत्रित किया इसके कोई प्रमाण नहीं यह एक निहायत बेवकूफी भरा तर्क है। तत्कालीन राजपूत शासकों में परस्पर छोटी छोटी बातों को लेकर तनातनी होती थी। स्वयं पृथ्वीराज में भी कई दुर्बलताएँ रहीं होंगी। सबकुछ भविष्य के गर्भ में था। जयचंद की स्थिति समझिये, पुत्री संयोगिता के अपहरण से वह नाराज था और जब गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया तो वह तटस्थ रहा और यही तटस्थता, उसकी गद्दारी बताई जाती है। हमें परिस्थितियों को समझना चाहिए, उस समय न पृथ्वीराज ने इनसे सहायता मांगी न ही उन्हें इसकी जरूरत हुई। उससे पहले कई बार पृथ्वीराज चौहान गौरी को धूल चटा चुका था। पृथ्वीराज की पराजय में उसकी स्वयं की गलतियां भी रहीं जिनमें उसके द्वारा बार बार गौरी को माफ करना भी है।
सम्पूर्ण राठौड़ राजपूत, वर्तमान जोधपुर, बीकानेर, ईडर, नागौर, इत्यादि सभी महाराजा जयचंद के ही वंशज हैं। अनायास ही हम इनके मूलपुरुष को गाली देने का कुकृत्य करते हैं।
3.मानसिंह ने अकबर के प्रति एक अलग नीति बनाई जिससे उसकी प्रजा अत्यंत समृद्ध हुई और जयपुर राज्य की उन्नति हुई। जयपुर को युद्ध में झौंके जाने का अर्थ था, जयपुर के किसान, पशुपालक, scst, ब्राह्मण, व्यापारी, सबकी दुर्गति होना। उनकी बहिन बेटियों का मुघलो द्वारा अपहरण और धिन्ड बनाकर, यौन दासियों के रूप में भेड़ बकरियों की तरह बल्ख बुखारा तक हांककर मंडियों में बेचना। #वे_सब_बचा_ली_गई। आश्चर्य कि जिस युक्ति द्वारा जिन जातियों के पूर्वजों की मां बेटियों की रक्षा की, वही आज इन राजाओं महाराजाओं को गुलाम कहे, अपमानित करे, ताने दे, संसार में इससे बड़ी कृतघ्नता कोई नहीं। तत्कालीन जयपुर शासक की स्थिति समझिये, उसे लगा छोटा त्याग करने से यदि वृहद प्रजा को शान्ति मिलती है और हित होता है तो स्वीकार है। इसलिए उन्होंने अकबर के अफगान दमन अभियान में उसका साथ दिया यह भी एक प्रकार से म्लेच्छ उन्मूलन कार्यक्रम ही था और ज्यादा चतुराई भरा था। मंदिरों का संरक्षण, शेष स्वाभिमानी शासकों, यथा महाराणा प्रताप और शिवाजी को बचाने के लिए उनकी अप्रत्यक्ष सहायता की सूची बनाई जाए तो आश्चर्य होगा कि वर्तमान भारत और हिन्दू धर्म बचाने में उनका महान योगदान रहा है।
4.आज हिन्दू होने के नाते हम जिन चीजों पर गर्व करते हैं, उनमें से अधिकांश को बचाने का श्रेय इन दोनों महापुरुषों और इनके वंशजों का है। बिना इतिहास का सही और समग्र मूल्यांकन के, मनमाने तरीके से मीठा हजम कर कड़वाहट थोपने की मानसिकता से बाहर निकलना होगा। इस्लामिक पैशाचिकता की उत्तरदायी, केवल और केवल इस्लाम की किताब, उसकी विचारधारा और उसके आक्रांताओं की भूख है। उसे समझकर कोई भी बच सकता था, तब ये लोग समझ नहीं सके, बच नहीं सके, लेकिन वर्तमान में तो समझा जा सकता है, लेकिन क्या कारण है कि उसकी पैशाचिकता अब भी वैसी कि वैसी है। वे शासक तो सदियों पहले चले गए, अब तो सारी पब्लिक ही शासक है, क्यों प्रतिकार नहीं करती?
सच्चाई बड़ी कड़वी है और वह यह है कि वर्तमान असफलताओं को उन दो व्यक्तियों पर थोपकर आप महान बनना चाहते हैं। उन्हें गद्दार कहकर आपको एक अजीब मानसिक संतुष्टि होती है। आप मानसिंह और पृथ्वीराज के ऐतिहासिक पन्नों की ओट में अपनी कायरता छिपाना चाहते हैं। आज भी आपको अपनी सुरक्षा के लिए इन्हीं के वंशजों का साथ चाहिए और समझते हैं कि गाली या ताना भी दें, यह सम्भव नहीं। याद रखिये, हिन्दुओं के एक वर्ग द्वारा दूसरे के प्रति किया व्यंग्य, चाहे कोई भी कहे, वह महान अनर्थों की जड़ है। यह कभी समाप्त न होने वाला सिलसिला है और तुम्हारी दुर्गति का मूल कारण भी यही है। वचनों में असंयम, तुम्हें कुल वंश राष्ट्र सहित विनष्ट करने को पर्याप्त है।
5.हमें हिन्दू धर्म के एक महान गुण, उसकी पाचन शक्ति को समझना चाहिए।
मुघलो से पहले शक, हूण कुषाण इत्यादि कई बर्बर जातियां आयीं और वे हममें समरस हो गई। रोटी बेटी का व्यवहार और हमारे दर्शन की उच्चता ने उन्हें अपने में समा लिया। आज उनका कोई नाम लेवा भी नहीं है। यही ट्रिक राजपूतों ने इन आक्रांताओं के साथ अपनाई।
जोधा बाई प्रकरण को एक बार रहने दें तो भी यह सत्य है कि कुछ राजघरानो के मुगलों से वैवाहिक संबंध रहे। यह अनायास ही नहीं हुआ होगा। राजा अकेले का निर्णय नहीं होता था। उसके विचार विमर्श की एक पूरी समिति होती थी जिनमें ब्राह्मण, चारण, हजूरी, सामंत इत्यादि सभी शामिल रहते थे।
जो कुछ हुआ सर्व समाज की सहमति से हुआ लेकिन दुर्भाग्य से यह वनवे हुआ। मुगलों ने बदले में अपनी बहिन बेटियां देनी भी चाही तो तत्कालीन परामर्श समिति ने उसे न केवल अस्वीकार किया बल्कि ताने और व्यंग्य की शब्दावली लिखी। इस एंगल से सोचोगे और राजपूतों की दुविधा समझकर देखिए, आप उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते। उनकी बेटियां डोलों में बैठकर गईं भी थी तो उसमें शेष समाज की बहिन बेटियों हेतु त्याग का महान उद्देश्य था। यह शोक का विषय है कि जिन माताओं बहिनों की सुरक्षा के लिए उन्होंने वैधव्य से भी बढ़कर अपमान का विष पिया, उन बच चुकी बहिनों के वंशज आज राजपूतों को ही चिढ़ाते हैं।
6.स्वतंत्रता के बाद राजपूतों का इस्तेमाल खलनायक की तरह हुआ और उन पर प्रहार कर कई दूसरी जातियां संगठित हुईं। फ़िल्म, इतिहास, साहित्य में उन्हें कलंकित दिखाया जबकि सबको जमीन, जागीर और संसाधन राजपूतों के ही चाहिए। यहाँ तक ठीक था। उनकी सहनशीलता और क्षमाशीलता की प्रशंसा करनी चाहिए। आज scst का कोई व्यक्ति थानेदार भी बनता है तो रात को रंडियां नचवाता है जबकि वे किलों और हवेलियों के स्वामी भी शाम को कंठी माला लेकर बैठते थे और कुछ तो आजन्म ब्रह्मचारी, सन्यासी रहे। अभी अभी तक साधारण ग्रामीण राजपूतों के पास पहनने को चप्पल और ढंग की पेंट नहीं थी, वे फैक्ट्री के किसी कोने में चौकीदार बनकर अपनी पढ़ाई करते हैं और अपनी दरिद्रता के विषय मे किसी को कह भी नहीं सकते।
जब से जातीय ध्रुवीकरण हुआ, जिसकी शुरुआत दूसरी जातियों ने की, राजपूत भी जागरूक हुए, होना ही पड़ा, सारे कुए में भांग है तो आपकी विवशता हो जाती है। यह सत्य है कि जातीय ध्रुवीकरण का यह दांव, राजपूतों ने सबसे अंत में चला। तब तक अन्य जातियां ध्रुवीकृत होकर, राज कर चली भी गई, हर बार की तरह इनकी ट्रेन लेट है, पर हुआ। और जब उन्होंने अपने चारों तरफ देखा, विगत 10 वर्षों में उन्हें नजर आया कि जो ताकतवर हैं, जो सत्ता में है, जो पाठ्यक्रम बदलने को उत्तरदायी हैं, वे ध्यान नहीं दे रहे।
उन्होंने थक हार कर, आजिज आकर आरएसएस, बीजेपी को अपना शत्रु मान लिया है। यह शत्रुता पूर्णतः कृत्रिम और असत्य पर आधारित है।
यदि आप किसी सच्चे हिन्दू में 100 गुण भरना चाहते हैं तो उनमें से 80 गुण किसी भी राजपूत में पहले से ही विद्यमान हैं। इसलिए राजपूत हिंदुत्व की सीढी पर 80 पायदान ऊपर खड़ा है। जिस दिन यह समझ में आया, जिस दिन एक का हिस्सा काटकर दूसरे को देने का सिलसिला बंद हुआ, राजपूत आपको पहले से भी अधिक यशस्वी, त्यागी, तपस्वी, #राष्ट्रजीवनको_समुन्नत बनाने वाला मिलेगा।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जानकार है और राजपूतों के इतिहास को आरएसएस ने बिगाड़ा या हाईजैक किया या बंदर बांट किया, इससे असहमत है और अगला आलेख इसी विषय पर होगा।)
साभार:कमार एस:(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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