जब शराब के चक्कर में फ़िराक गोरखपुरी की गोरखपुर में ज़मानत ज़ब्त हो गई
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
बहुत कम लोग जानते हैं कि मशहूर शायर फ़िराक गोरखपुरी भी गोरखपुर से लोकसभा चुनाव लड़ कर अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा चुके हैं। देश का पहला आम चुनाव था। फिराक गोरखपुरी पुराने कांग्रेसी थे और अखिल भारतीय कांग्रेस में अंडर सेक्रेटरी थे। पंडित जवाहरलाल नेहरु के विश्वसनीय थे। नेहरु के पिता मोतीलाल नेहरु के साथ भी वह कांग्रेस में न सिर्फ़ काम करते थे बल्कि इलाहाबाद के आनंद भवन में नियमित बैठते थे। कहते तो यहां तक हैं कि नेहरु की बहन विजय लक्ष्मी पंडित पर फ़िराक बुरी तरह फ़िदा थे। यह विजय लक्ष्मी पंडित का सौंदर्य ही था कि वह अपनी पत्नी से विमुख रहने लगे। अली सरदार ज़ाफरी द्वारा फ़िराक पर बनाई गई फ़िल्म में भी यह तथ्य संकेतों में सही , दर्ज है। अलग बात है विजय लक्ष्मी पंडित पर कभी पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी आसक्त थे। निराला और विजय लक्ष्मी पंडित के बीच तो प्रेम पत्रों के आदान-प्रदान की ही बात आन रिकार्ड है। लोग जानते ही हैं कि फ़िराक गोरखपुरी होमो भी थे। तरह-तरह की चर्चा में अनौपचारिक रूप से यह बात भी सामने आती है कि फ़िराक ने नेहरु को भी नहीं छोड़ा था। एक समय नानवेज लतीफ़ों में भी फ़िराक और नेहरु पर लतीफ़े खूब चलते थे। एक समय फ़िराक बड़ी शान से कहा करते थे कि हिंदुस्तान में अंगरेजी सिर्फ़ ढाई लोग जानते हैं । एक खुद को मानते थे , दूसरे सी नीरद चौधरी और आधा जवाहरलाल नेहरु।
बहरहाल जब 1952 में जब पहला आम लोकसभा चुनाव हुआ तो फ़िराक भी गोरखपुर से चुनाव लड़ना चाहते थे। लड़े भी लेकिन लेकिन आधा अंगरेजी वाले इसी नेहरु ने कांग्रेस से उन्हें टिकट नहीं दिया ।
इस में एक कारण यह भी था कि तब गोरखपुर उत्तरी से स्वतंत्रता सेनानी और स्वदेश के सुप्रसिद्ध संपादक पंडित दशरथ प्रसाद द्विवेदी को टिकट दिया जा चुका था। दक्षिणी गोरखपुर से फ़िराक ने टिकट मांगा लेकिन नहीं मिला तो वह निर्दलीय उम्मीदवार के तौर चुनाव में कूद गए। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता शिब्बनलाल सक्सेना ने फ़िराक को निर्दलीय चुनाव लड़ने की तजवीज इस बिना पर दी थी कि गोरखपुर की इस सीट पर कायस्थ वोटों का प्रभाव बहुत है। लेकिन फ़िराक के मुकाबिल कांग्रेस उम्मीदवार राम सिंहासन सिंह अपने भाषणों में फ़िराक को बड़ा शायर तो बताते थे लेकिन साथ ही यह भी जोड़ते थे कि यह आदमी बहुत बड़ा शराबी भी है। शराबी शब्द सुनते-सुनते फ़िराक आजिज आ गए थे। उत्तेजित हो कर एक दिन जब मंच पर भाषण देना था फ़िराक शराब की बोतल ले कर चढ़ गए और बोतल का ढक्कन खोल कर शराब पीते हुए बोले , हां , मैं हूं शराबी। फिर भोजपुरी में बोले , जा लोगन दे द राम सिंहासन सिंह के वोट ! फ़िराक की यह साफगोई उन पर भारी पड़ गई । जनता उन की इस साफगोई पर नाराज हो गई और फ़िराक साहब चुनाव में अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे। चुनाव हारने के बाद फ़िराक साहब शिब्ब्नलाल सक्सेना को खोजते फिरे। लेकिन शिब्बनलाल सक्सेना छुपते फिरे। हालां कि शिब्ब्नलाल सक्सेना कांग्रेस के टिकट पर ख़ुद महराजगंज से चुनाव जीत चुके थे। कुछ लोगों ने उन से कहा कि फ़िराक साहब से आप इस तरह छुपते क्यों फिर रहे हैं। शिब्बनलाल सक्सेना ने कहा कि फ़िराक साहब से नहीं , फ़िराक साहब की गालियों से छुपता फिर रहा हूं। खैर फ़िराक साहब वापस इलाहाबाद लौट गए। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंगरेजी पढ़ाने लगे।
बहुत बाद के समय में एक बार इंदिरा गांधी ने फ़िराक साहब को दिल्ली बुलवाया। उन से मिलीं और कहा कि आप को मैं राज्यसभा में देखना चाहती हूं। फ़िराक साहब ने तुरंत मना कर दिया। इंदिरा जी ने फ़िराक साहब से पूछा कि आख़िर दिक्कत क्या है ? फिराक साहब ने कहा कि दिक्कत यह है कि फिर राज्य सभा को इलाहाबाद शिफ्ट करना पड़ेगा। क्यों कि मैं इलाहाबाद नहीं छोडूंगा। इंदिरा जी ने कहा कि जब मन होगा , तब आते रहिएगा , न मन करे , न आइएगा। फ़िराक ने कहा , यह न हो पाएगा। और वापस इंदिरा गांधी से विदा ले कर वापस इलाहाबाद चले गए। एक बार वह गंभीर रूप से बीमार पड़े। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखी। इंदिरा गांधी ने न सिर्फ़ उन के इलाज का प्रबंध किया बल्कि फ़िराक साहब के लिए सरकार की तरफ से दो हज़ार रुपए महीने की स्पेशल पेंशन का आजीवन प्रबंध किया। तब के समय किसी सीनियर आई ए एस का वेतन भी दो हज़ार रुपए नहीं होता था। फ़िराक साहब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से रिटायर होने के बाद भी यूनिवर्सिटी का घर नहीं छोड़ा। कुछ लोगों ने शिकायत भी की पर किसी भी वाइस चांसलर ने फ़िराक साहब से मकान ख़ाली करवाने की हिम्मत नहीं की। कई साल बीत गए। एक बार एक वाइस चांसलर आए और कहा कि होंगे बहुत बड़े शायर , मकान तो ख़ाली करना पड़ेगा। और नोटिस पर नोटिस देते रहे। किसी भी नोटिस का जवाब नहीं दिया फ़िराक साहब ने । वाइस चांसलर ने मुकदमा दायर कर दिया। अदालती नोटिस आई तो वह तारीख के दिन कचहरी पहुंचे। अचानक एक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने उन्हें पहचान लिया। उन के पास आया , पांव छुआ और पूछा यहां कैसे ? उन्हों ने नोटिस दिखाते हुए कहा कि पता नहीं किस बेवकूफ ने यह नोटिस भेज दी है। मजिस्ट्रेट ने नोटिस देखी। उसी के कोर्ट की नोटिस थी। फ़िराक साहब से कहा कि आप निश्चिंत हो कर घर जाइए। कुछ नहीं होगा। और उस ने मुकदमा खारिज कर दिया।
फ़िराक साहब को जब 1970 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो एक पत्रकार ने उन से कहा कि पिछले साल सुमित्रानंदन पंत को यही पुरस्कार मिला तो उन्हों ने इस 51 हज़ार रुपए में से एक कार ख़रीद ली थी। आप इस पैसे का क्या करेंगे ? फ़िराक साहब बोले , शराब का कुछ कर्जा था निपटा दिया और जो पैसा बचा , उस की शराब ख़रीद कर घर में भर ली है। फ़िराक साहब के शराब की हालत तो यह थी कि वह अपने पालतू खरगोश को भी शराब चखाते रहते थे। नतीज़ा यह हुआ कि कुछ समय बाद शराब पीने के समय ख़रगोश शराब पीने की जगह पहले ही से जा कर बैठ जाता था। फ़िराक साहब भले थोड़ी देर लेट हो जाएं पर वह लेट नहीं होता था। फ़िराक साहब उसे खरगोश साहब कह कर संबोधित करते थे। एक दिन क्या हुआ कि खरगोश साहब ने इतनी पी ली कि दूसरी सुबह फिर उठ नहीं पाए। हमेशा के लिए सो गए।
अंतिम समय फ़िराक साहब दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती थे । यह 1982 की बात है । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ मैं भी गया था उन्हें देखने। बात ही बात में सर्वेश्वर जी ने उन्हें जोश मलीहाबादी के निधन की ख़बर दी । फ़िराक साहब यह ख़बर सुनते ही ज़ोर से चीख़ पड़े। थोड़ी देर बाद फ़िराक सहा ने सर्वेश्वर जी का हाथ पकड़ कर कहा देखना , मेरे मरने के बाद मुझे कोई दफना न दे। मैं हिंदू हूं , मुझे जलाना । सर्वेश्वर जी ने उन्हीं भरोसा दिया और कहा कि सब लोग जानते हैं कि आप हिंदू हैं। जलाए ही जाएंगे। कुछ ही दिन में फ़िराक साहब का निधन हो गया। उन का पार्थिव शरीर दिल्ली से इलाहाबाद ले जाया जाने वाला था। बाई ट्रेन । फ़िराक साहब को अंतिम विदा देने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ख़ुद स्टेशन आई थीं। यह सब देख कर तब उन की टीनएज नातिन अपनी रोती हुई मां से पूछ रही थी , मम्मी नाना , इतने ग्रेट थे ?
बहुत कम लेखक हैं हिंदी में कम से कम जिन्हों ने आम चुनाव में शिरकत की है । राज्य सभा में तो मैथिलीशरण गुप्त , रामधारी सिंह दिनकर , बेकल उत्साही आदि कई लेखकों के नाम शुमार हैं। पर लोकसभा चुनाव फ़िराक के बाद नामवर सिंह ने भाकपा के टिकट पर चंदौली से लड़ा था और फ़िराक की तरह ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे थे । मुद्राराक्षस ने भी जनता दल के टिकट पर और निर्दलीय भी लखनऊ से दो बार चुनाव लड़ा और हर बार ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे ।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)