यह राजा होना भी ग़ज़ब है !-दयानंद पांडेय
कांग्रेस में ऐसे राजा बहुत हैं। जैसे कि दिग्गी राजा। दिग्गी राजा मतलब दिग्विजय सिंह।
Positive India:Dayanand Pandey:
यह राजा होना भी ग़ज़ब है। और राजा का चमचा या पैरोकार होना तो और भी ग़ज़ब है। ख़ैर ,कोई अपने राज का राजा है , कोई अपने दिल का राजा है , कोई क़लम का तो कोई मनबढ़ई और गाली-गलौज का राजा। पड़रौना के राजा बनने का किस्सा जब भी कभी लिख कर याद करता हूं तो एक ख़ास पॉकेट के लोग हर बार डट कर मेरी ख़बर लेते हैं। कुछ लिख कर , कुछ गरिया कर , कुछ शालीन प्रतिवाद के साथ उपस्थित होते हैं। तो कुछ अपशब्दों , असंसदीय शब्दों के साथ। अभी किन्हीं पवन सिंह जी का फ़ोन आया। कई बार आया। कुछ लिख रहा था तुरंत नहीं उठा पाया। पैरा पूरा हो गया तो पवन सिंह जी का फ़ोन उठा लिया। वह फुल जोश में थे। होश खोए हुए थे। मैं ने उन से कहा थोड़ा अपनी बात का टोन ठीक कर लीजिए , तभी बात करना मुमकिन हो सकता है। लेकिन वह पूरी तरह गोली मार देने के भाव में थे। बस गाली नहीं दे रहे थे। बाक़ी सब। मैं ने उन से कहा , बिंदुवार सवाल पूछिए , हर बिंदु का जवाब दूंगा। लेकिन वह कहने लगे , यह पोस्ट हटा लीजिए नहीं आप को सबक़ सिखाया जाएगा। मैं ने उन से कहा , बहुत ग़लत लग रहा हो तो आप मुक़दमा कर दीजिए। लेकिन उन की जुबान से बंदूक़ और बम-बम गई नहीं। अमूमन ऐसी बातचीत में भी मैं संयम बनाए रखता हूं। लेकिन पवन सिंह की बात इतनी अभद्र और विषाक्त थी कि मेरे मुंह से निकल गया , जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिए। और फ़ोन काट दिया। उन का फ़ोन फिर आया , कहने लगे लखनऊ में आ कर देख लूंगा। धरना दिया जाएगा। आप का सब कुछ उखाड़ लिया जाएगा। आदि-इत्यादि। मैं ने फिर फ़ोन काट दिया। थोड़ी देर बाद उन्हें फ़ोन कर बता दिया कि अब फ़ोन मत कीजिएगा।
संयोग से फिर फ़ोन अभी तक नहीं आया है। यह अच्छी बात है।
अब आप को ऐसे तमाम राजाओं के बारे में बता दूं जो कभी कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह पाए जाते थे। अब लोकतंत्र है फिर भी वह अपने को राजा कहलाने में भगवान की तरह महसूस करते हैं। कांग्रेस में ऐसे राजा बहुत हैं। जैसे कि दिग्गी राजा। दिग्गी राजा मतलब मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह। सचाई यह है कि दिग्विजय सिंह किसी राज परिवार से नहीं है। अलबत्ता कभी सिंधिया परिवार की राजमाता विजया राजे सिंधिया के कर्मचारी थे। मध्य प्रदेश के ही एक दूसरे पूर्व मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह भी अपने को राजा बताते नहीं थकते थे। तब जब कि उन के पिता बड़े जमींदार थे और अंगरेजों के अधिकृत मुखबिर रहे थे। फिर ऐसे राजा तो हमारे एक गोरखपुर में ही कई सारे हैं। राजा बढ़यापार , राजा उनवल , राजा मलांव जैसे कई राजा हैं। इन सब की तो अब माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं रही। छोटा-मोटा व्यवसाय कर रहे हैं। होटल आदि चला रहे हैं। मिडिल क्लास ज़िंदगी जी रहे हैं। किसी तरह ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। एक कार भी नहीं है अब ऐसे कई राजाओं के पास। मोटर साइकिल है तो पेट्रोल भरवाने का पैसा नहीं है। लेकिन भाजपा में तो राज परिवार की एक विजयाराजे सिंधिया ही थीं जो पहले कांग्रेसी ही थीं। अब उन के पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वाया कांग्रेस भाजपा में हैं , बीते साल से। लेकिन कांग्रेस में नटवर सिंह , जम्मू के राजा कर्ण सिंह से लगायत पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह तक कई लोग राजपरिवार से रहे हैं और हैं।
एक समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी भी रॉयल फेमिली से थे। चूंकि राजा और व्यवसाई सर्वदा सत्ता के साथ रहते रहने के आदी हैं , सो ऐसा हुआ। जब मुग़ल आए तो यह राजा लोग उन के साथ हो गए। जब ब्रिटिशर्स आए तो यह राजा लोग ब्रिटिशर्स के साथ हो गए। आप पढ़िए कभी सावरकर के लिखे लेखों को। ब्रिटिशर्स के साथ हिंदू राजाओं के गठजोड़ पर सावरकर ने बहुत ज़बरदस्त ढंग से लिखा है। बल्कि नागपुर की रानी सतारा ने ब्रिटिशर्स से बाक़ायदा संधि की तो सावरकर ने लिखा कि इन हिंदू राजाओं को कीड़े पड़ें। सिंधिया , रानी लक्ष्मी बाई के ख़िलाफ़ अंगरेजों का साथ देने के लिए कुख्यात हैं ही। बल्कि उन दिनों तो सावरकर मुस्लिम राजाओं की तारीफ़ में कसीदे लिख रहे थे। क्यों कि कई सारे मुस्लिम राजा भले अपना राज वापस पाने के लिए ही सही ब्रितानिया हुक़ूमत से पूरी ताक़त के साथ लड़ रहे थे। जब कि हिंदू राजा ब्रिटिशर्स से हाथ मिला कर देश के साथ गद्दारी कर रहे थे। फिर सावरकर के साथ यह था कि जो अंगरेजों का दुश्मन , वह उन का दोस्त। तो यह मुस्लिम राजा लोग सावरकर के दोस्त थे तब। सावरकर इन मुस्लिम राजाओं के प्रशंसक।
बाद में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो यह हिंदू राजा , मुस्लिम राजा सभी कांग्रेस के साथ हो गए। ख़ास कर हिंदू राजाओं ने ही कांग्रेस में सावरकर के ख़िलाफ़ डट कर माहौल बनवाया। ऐसा पेण्ट किया कि सावरकर तो हिंदुत्ववादी । टू नेशन थियरी का जनक। मुस्लिम विरोधी। और तो और अंगरेजों का पिट्ठू था सावरकर। यह रजवाड़ों का कमाल था। यह ठीक है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंगरेजों से माफ़ी मांगी थी। पर सावरकर के अलावा कोई एक दूसरा नाम भी कोई बताए न जिसे अंगरेजों ने दो बार काला पानी के आजीवन कारवास की सज़ा भी दी हो। दो बार आजीवन कारावास यानि जेल में ही मर जाना। अच्छा तब के समय का कोई एक आदमी बताइए जिस ने नाखून से जेल की दीवारों पर अंगरेजों के खिलाफ किताबें लिखी हों। और उसे लोगों को याद करवा कर जेल से बाहर भेजा हो। और उन लोगों ने जेल से बाहर आ कर उन किताबों को याद के आधार पर लिख कर सावरकर के नाम से किताबें छपवाई हों। कोई एक दूसरा नहीं मिलेगा। बाद में सावरकर के साथियों ने ही उन्हें समझाया कि माफ़ी मांग कर बाहर निकल कर काम करने में भलाई है। बजाय इस के कि जेल में तड़प-तड़प कर मर जाएं। बाहर निकल कर समाज में छुआछूत के खिलाफ जो काम सावरकर ने किया वह अदभुत है। गांधी ने सावरकर के इस काम को और आगे बढ़ाया।
एक प्रसंग है कि गांधी लंदन में हैं। भारत आ कर राजनीतिक काम करना चाहते हैं। इस बारे में गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोखले को चिट्ठी लिखते हैं। गोखले उस समय फ्रांस में अपना इलाज करवा रहे हैं। गोखले भी राजा हैं। पर अंगरेजों के ख़िलाफ़ हैं। ख़ैर , वह गांधी को चिट्ठी लिख कर बताते हैं कि मैं लंदन आने वाला हूं। बिना मुझ से मिले भारत मत जाना। दुर्भाग्य से तभी विश्वयुद्ध छिड़ जाता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता बंद हो जाता है। पर लंदन से भारत का रास्ता खुला हुआ है। लेकिन गांधी भारत नहीं आते। लंदन में गोखले की प्रतीक्षा करते हैं। यह प्रतीक्षा 6 महीने की हो जाती है। दूसरा कोई होता गांधी की जगह तो 6 महीने इंतज़ार नहीं करता गोखले का। भारत आ गया होता। पर जब विश्वयुद्ध खत्म होता है। फ़्रांस से लंदन का रास्ता खुलता है तो गोखले लंदन आते हैं। गोखले से गांधी मिलते हैं। गोखले गांधी को बहुत सी बातें बताते हैं। पर साथ ही कहते हैं कि भारत में इस समय एक त्रिमूर्ति है। बिना इस त्रिमूर्ति से मिले कुछ मत करना। जो भी करना , इन तीनों से पूछ कर ही। इन की सलाह से ही। यह त्रिमूर्ति है रवींद्रनाथ टैगोर , सावरकर और मुंशी राम की। मुंशी राम बाद में स्वामी श्रद्धानंद के नाम से जाने गए। जिन की हत्या दिल्ली के चांदनी चौक में उन के घर में घुस कर अब्दुल राशीद ने कर दी थी। यह एक अलग कहानी है , घिनौने सेक्यूलरिज्म की।
खैर , गांधी आते हैं भारत में। तीनों से मिलते हैं। इन तीनों की राय से ही काम शुरू करते हैं। इस तरह सावरकर गांधी के मेंटर बनते हैं। लेकिन हिंदू रजवाड़े कांग्रेस में घुस कर सावरकर को सांप्रदायिक , हिंदुत्ववादी घोषित करवा देते हैं। इतना कि लोग जिन्ना को नहीं , सावरकर को गाली देने में व्यस्त हो जाते हैं। जिन्ना नहीं , सावरकर से घृणा सिखाने में लग जाते हैं। यह लंबी कथा है। इस पर फिर कभी। बस संकेत में इतना ही समझ लीजिए कि कर्ण सिंह के पिता राजा हरी सिंह अगर समय रहते कश्मीर का विलय भारत में करने पर रज़ामंद हो गए होते तो पकिस्तान के पास पी ओ के नहीं होता। चीन के पास अक्साई चीन भी नहीं। भारत के पास होता। वह तो जब रातो-रात जान पर बन आई तो हरि सिंह ने कश्मीर का विलय भारत में किया। फिर दूसरी ग़लती नेहरू ने किया , संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले को रख कर। खैर।
अभी तो कुकुरमुत्ता टाइप राजाओं की बात करते हैं। एक बात जान लीजिए कि जो भी कोई कहे कि हम अलाने राजा , फलाने राजा। तो उस राजा से इतना भर पूछ लीजिए कि दिल्ली में आप का कौन सा हाऊस है ? हुआ यह कि अंगरेजों ने जब नई दिल्ली बसाई तो बड़ी बुद्धि से बसाई। वह जो कहते हैं न कि , न हर्र लगे , न फिटकरी और रंग चोखा। तो उस समय देश में जितने भी राजा थे , अंगरेजों ने सभी से कहा कि आप आइए दिल्ली। दिल्ली में आप को जितनी भी जगह चाहिए , हम देते हैं। आप अपना महल बनाइए। तो देखिए न हैदराबाद हाऊस , बड़ौदा हाऊस , सिंधिया हाऊस जैसे तमाम बड़े-बड़े महल हैं। जो रजवाड़ों और नवाबों ने अंगरेजों की मिजाजपुर्शी में बनवाए। और इन रजवाड़ों के खर्च पर शानदार नई दिल्ली बस गई। अंगरेजों ने बस प्लानिंग की। बाद के समय में जब कांग्रेस सरकार आई तो तब के गृह मंत्री सरदार पटेल ने सभी रजवाड़ों से देश का खजाना भरने की अपील की। कहते हैं राजा दरभंगा ने सर्वाधिक 5 टन सोना तब भारत सरकार को दान दिया था। कभी पूछिएगा न राजा पड़रौना जैसों या उन की पैरोकारी में मरे जा रहे लोगों से कि तब इन्हों ने कितना टन सोना भारत सरकार को दान दिया था। या फिर दिल्ली में उन का कौन सा हाऊस है। फिर वंशावली क्या है। हक़ीक़त सामने आ जाएगी। या फिर उस राजा या राज परिवार से एक समय सरकार दिया जाने वाला प्रिवीपर्स मिलने का विवरण ही पूछ लीजिए। प्रिवीपर्स मिलने का विवरण भी अगर नहीं है तो समझ लीजिए कि वह राजा बेटा तो है लेकिन राजा नहीं है। किसी सूरत नहीं है।
इतना ही नहीं , आप कभी जाइए बनारस। तमाम राजाओं के महल गंगा किनारे मिलेंगे। लखनऊ आइए कभी। राजा साहब बलरामपुर की तमाम निशानियां हैं। बलरामपुर अस्पताल से लगायत जाने क्या-क्या। राजा साहब महमूदाबाद पकिस्तान चले गए। फिर लौटे। उन की भी तमाम संपत्तियां लखनऊ में यत्र-तत्र हैं। शत्रु संपत्ति के रूप में ही सही। कपूरथला के नाम पर भी निशानियां हैं। हर बड़े शहर में रजवाड़ों की निशानियां मिलती हैं। कहानियां मिलती हैं। लोक में भी तमाम किस्से हैं। अब कि जैसे राजा पड़रौना के राजा बनने का क़िस्सा भी कभी कहीं मैं ने पढ़ा नहीं है। गोरखपुर में ही विभिन्न लोगों से सुना है। एक बार एक यात्रा में कवि , आलोचक , संपादक , गोरखपुर विश्विद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर रहे और साहित्य अकादमी , दिल्ली के अध्यक्ष रहे , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने भी इस कथा को बहुत रस ले कर सुनाया। तिवारी जी उसी क्षेत्र के रहने वाले भी हैं। तो यह कथा अगर लोक में है तो अकारण नहीं है। लोगों को जानना चाहिए कि राजा पड़रौना का ही राजतिलक पैर के अंगूठे से नहीं हुआ है। विवरण मिलते हैं कि छत्रपति शिवा जी का भी राजतिलक एक ब्राह्मण ने अपने पैर के अंगूठे से किया था। तो यह राजा पड़रौना का क़िस्सा किसी व्यक्ति को , किसी जाति या किसी समुदाय को अपमानित करने की गरज से नहीं लिखा गया है। अनायास ही लिखा गया है। कृपया कोई इसे दिल पर न ले।
फिर तमाम राजाओं की वंशावली है। सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। गजेटियर में दर्ज है। बहुतों की नहीं है। कहीं कुछ भी दर्ज नहीं है। दान या बख्शीस में दी गई जमींदारी और राजपाट से न कोई राजा बनता है , न जमींदार। वैसे तो शेरशाह सूरी अफ़ग़ान था। उस के पुरखे बिहार के सासाराम में बहुत बड़े जमींदार थे। शेरशाह सूरी का असल नाम फ़रीद ख़ान है। पिता से बग़ावत कर दूसरे बड़े जमींदारों की नौकरियां करने लगा। कभी एक जमींदार के साथ शिकार में पैदल ही शेर को मार दिया तो फ़रीद ख़ान से शेर ख़ान बन गया। जमींदारों की नौकरियां करते-करते हुमायूं का सेनापति बन गया किसी सूबे का। बाद में हुमायूं को ही मार कर ईरान भगा दिया। और ख़ुद शासक बन गया। 7 साल हिंदुस्तान पर हुकूमत की। बारूदखाने का एक्सपर्ट था पर अपने ही बारूदखाने में मारा गया। फिर अब राजतंत्र नहीं , लोकतंत्र है। तो काहे के राजा , काहे का रजवाड़ा। बाक़ी अपने दिल और अपनी क़लम के राजा तो हम भी हैं। लेकिन किसी गजेटियर में हम नहीं मिलेंगे। न किसी और सरकारी रिकार्ड में। दिल्ली , बनारस , लखनऊ आदि में कोई हाऊस या महल आदि-इत्यादि या बेहिसाब संपत्तियां भी नहीं हैं हमारी। लेकिन हम राजा हैं , तो राजा हैं। आप मत मानिए। हम ने चंदन लगा कर अपना राज तिलक ख़ुद कर लिया है। क्या कर लेंगे आप ! अपनी क़लम के राजा हैं हम। अपनी किताबों में , अपने लिखे में हम ज़रूर मिलेंगे। खोजना हो तो खंजन नयन बन कर खोज लीजिए। नहीं नयन मूंद कर निद्रा में निमग्न हो जाइए। हम डिस्टर्ब नहीं करेंगे।
साभार:दयानंद पांडेय(ये लेखक के अपने विचार हैं)