अखंड ज्योति के पीछे विवाद खड़ा करना तो बहाना है। असल मुद्दा तो सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा से नाराजगी का है
-विशाल झा की कलम से-
Positive India:Vishal Jha:
लोग कह रहे हैं अखंड ज्योति के पीछे विवाद खड़ा करना तो बहाना है। असल मुद्दा तो सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा से नाराजगी का है।
सत्य है कि जिस प्रकार से भारत सुभाष चंद्र बोस को स्वीकारते जा रहा है, एक वक्त आएगा जब सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रपिता तो नहीं लेकिन राष्ट्रनायक बनकर लोक विमर्श में स्थापित हो जाएंगे। क्या तब भी कोई राष्ट्रपिता रह जाएगा यह एक बड़ा सवाल है?
1939 में सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध कतिपय कारणों से गांधी जी ने कांग्रेस के अध्यक्ष चुनाव के लिए आंध्र प्रदेश के एक डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया को उतारा था, और कहा था, “सीतारमैया की हार मेरी हार है।” फिर क्या था! चुनाव हुआ। सुभाष चंद्र बोस चुनाव जीत गए अर्थात् गांधीजी चुनाव हार गए। गांधीजी ने अपनी बात फिर एक बार दुहराई। उन्होंने कहा, “यह सीतारमैया से अधिक मेरी हार है।” सुभाष चंद्र बोस ने आखिरकार त्यागपत्र देकर गांधी जी को हारने से बचा दिया।
स्वाभाविक है इतिहास ने ही तय कर रखा है कि गाँधी की जीत सुभाष की हार होगी और सुभाष की जीत गांधी की हार होगी। लोक विमर्श में आज तक गांधी स्वीकृत रहे तो वहीं सुभाष चंद्र बोस गुमनाम। विगत 70 सालों में देश के सबसे महान योद्धा होते हुए भी सुभाष चंद्र बोस उतनी प्रमुखता से किसी विमर्श में स्वीकार नहीं किये गए। किंतुु अब जिस प्रकार से लोकमानस में उनकी स्वीकृति बढ़ रही है, ठीक उसी अनुपात में गांधी पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं।
आज स्वयं गांधी के बनाए हुए मानक ही गांधी की अस्वीकृति के कारण सिद्ध हो रहे हैं। अब तो सुभाष चंद्र बोस भी स्वयं मौजूद नहीं हैं कि वे लोक विमर्श से अपना किरदार हटाकर गांधी की स्वीकृति को सुरक्षित कर दें। ठीक जैसा 1939 में हुआ था।
इसलिए नैतिकता कहती है कि जिस गांधी के नाम पर कांग्रेस घराने ने 70 साल सत्ता की मलाई खाई, उसी ने ही अब गांधी की प्रतिष्ठा बनाए रखने की जिम्मेवारी निभानी पड़ेगी।
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)