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क्या यह कबीर और गांधी के बीच की लड़ाई है ?

-अनिल द्विवेदी की कलम से-

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Positive India:अनिल द्विवेदी :
आखिर कुणाल शुक्ला का ‘एक्टिविज्म जाग गया। जैसे हनुमानजी को उनकी संपूर्ण शक्ति का पता सालों बाद चला, ठीक वैसे ही कुणाल भी सत्ता की मजबूरियों के चलते भूल गए थे! पर ठीक है, आफिरी सद आफिरी. देर आये, दुरूस्त आए।

महाराज ने राजधानी स्थित उस कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के खिलाफ मोर्चा खोला है, जिसके साए में पल रही चार शोध पीठों में से एक के अध्यक्ष वे हैं यानि कबीर संचार शोध पीठ। कांग्रेस सरकार बनते ही जिन चुनिंदा लोगों पर सरकार की कृपा बरसी, शुक्लाजी उन्ही भाग्यशालियों में से एक हैं। सीएम के सबसे खासमखास, पर दाल में नमक कम होने पर जैसे कोई तलाक देता है, वैसा ही कुणाल ने भी किया। उनका आरोप है कि नियुक्ति के ढाई साल पूरे होने को हैं लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन, दर्जनों गुहार लगाने के बावजूद नई कुर्सी, टेबल या चाय-पानी की व्यवस्था नही दे सका।

बुलडोजरी दृश्य देखिए कि शोधपीठ के सर्वसुविधायुक्त कमरे में एक विभागाध्यक्ष कुण्डली जमाए बैठे हैं। इधर कोई सुनवाई ना होने पर अंतत: शुक्ला जी ने महात्मा गांधी मार्ग पकड़ा और जमीन पर बैठकर कार्यालय चला रहे हैं! लड़ाई कबीर संग गांधी हो गई है। पिछले चार दिनों से कबीर संचार शोध पीठ का यही हाल है मगर इतनी थू-थू होने के बाद भी वि.वि प्रशासन, उच्च शिक्षा मंत्री और सरकार के कानों में जूं तक नही रेंग रही। एक बात और कि कुणाल की इस गंभीर लड़ाई को उनके क्रूर.आरोप मजाक में भोथरा कर रहे हैं! जैसे कि कुलपति को संघी-भाजपाई बताना और कुलसचिव को बख्श देना।

अरे बिरादर, दुनिया जानती है कि केटीयू में फिलहाल आपकी सरकार है! भाजपा राज में तीन-तीन महीने वेतन के लाले कभी नही पड़े महाराज! और उलटबांसी देखिए कि आपकी सरकार ने पहला आपरेशन तो इसी पत्रकारिता विश्वविद्यालय पर चलाया था क्योंकि स्टूडियो और सभागार निर्माण में करोड़ों का खेला हुआ था! यह हिस्सा किस-किसके जेब में गया, इसकी निष्पक्ष जांच क्यों नही हुई? क्यों बख्श दिया गया इन्हें? कुलसचिव भी तो आपकी सरकार ने ही बिठाया और अब आपको ही मूलभूत आवश्यकताओं का मोहताज होना पड़ रहा है।

खैर..एक दूसरा सच यह है कि गुजरे 14 सालों में केटीयू’ की हैसियत, राजधानी के कई कॉलेजों के बराबर तक नही पहुंच सकी। 15 सालों का समय बहुत होता है लेकिन एक विभाग का हाल यह है कि उनके स्टूडेंट्स की संख्या प्रतिवर्ष 25 से ज्यादा ना हो सकी! ‘तुमसे ना हो पायेगा’ की तर्ज़ पर यहां आने वाले कुलपति, खुद का चेहरा चमकाने में लगे रहे, बजाय विश्वविद्यालय का। शुक्र मनाइए सरकार का कि उसने ही संसाधन बनाकर दिए और प्रतिवर्ष 4 करोड़ से अधिक का अनुदान देकर उसे जिंदा रखे हुए है अन्यथा अकादमिक उपलब्धियां तो महज इतनी हैं कि प्रोफेसरों की नियुक्तियां हाईकोर्ट के न्यायरूपी तराजू में तौली जा रही हैं या राजभवन में ‘रहम की भीख’ मांग रही!

एनीवे..कोई केले का छिलका अगले फिसलने वाले को यह शिक्षा नही दे सकता कि मुझ पर पांव मत रखो! कुणाल की ताजा चुनौती का सारांश यही है कि यह लड़ाई व्यक्तिगत नही है बल्कि सरकार द्वारा नियुक्त अधिकांश अध्यक्षों, चेयरमैनों, आयोग के सदस्यों के मान.सम्मान का प्रतिप्रश्न है! फिर वह किसी भी दल की सरकार हो!

बस एक चेतावनी आवश्यक है कि लोकतंत्र में सारी लड़ाई लोगों की समझ बदलने की लड़ाई होती है! विश्वविद्यालय प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व को चना-मुर्रा ना समझे क्योंकि इस बार पाला कुणाल शुक्ला जैसे एक्टिविस्ट से पड़ा है! वे कबीर और गांधी के मार्ग पर चल पड़े हैं! हालांकि कुणाल के मन का एक हिस्सा विश्वविद्यालय के खिलाफ है तो एक उसी के साथ। वे सौम्य, संयत और संवाद के साथ अनशन कर रहे हैं लेकिन उनके इरादे शक्तिशाली और सामर्थपूर्ण हैं। चक्षुदृष्टि से कहूं तो लड़ाई महाभारत में तब्दील हो सकती है!

कबीर का यह दोहा सनद रहे :
और ज्ञान सब ज्ञान री, कबीर ज्ञान शो ज्ञान।
जैसे गोला तोप का करता चले मैदान।

साभार-अनिल द्विवेदी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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