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क्या मोदी बनाम कौन के जवाब में केजरीवाल कहीं ठहरते हैं ?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
बीबीसी के 2013 के एक इंटरव्यू में अरविंद केजरीवाल से पूछा गया, विश्व के 100 प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में आपका नाम तीसरे स्थान पर चल रहा है, आप क्या कहेंगे? अरविंद केजरीवाल ने कहा था मुझे पता तो नहीं लेकिन दुनिया के किसी लिस्ट में नाम आए यह मेरा मकसद नहीं। मेरा मकसद है लोगों के लिए काम करना।

आज मोदी बनाम कौन के जवाब में मनीष सिसोदिया ने आम आदमी पार्टी को सामने कर दिया है। बयान देते हुए भले मनीष सिसोदिया एक राजनीतिक आत्मविश्वास में न दिखें लेकिन इतना तो सत्य है कि आम आदमी पार्टी को उसके आरंभिक काल में तक बेहतरीन राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखा गया।

ठीक है कि नरेंद्र मोदी आज दुनिया के सबसे पावरफुल लीडर के रूप में गिने जाएं। लेकिन 2013 में अरविंद केजरीवाल दुनिया के 100 प्रभावशाली व्यक्तियों की टाइम पत्रिका वाली सूची में अकेले भारतीय थे। 2015 में इस सूची में नरेंद्र मोदी अव्वल आए, लेकिन अरविंद केजरीवाल भी उस सूची में कहीं ना कहीं मौजूद रहे। दुनिया की छोड़िए 2014 के आम चुनाव में मोदी जी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल ने मोदी जी के करीब साढ़े 5 लाख वोट के मुकाबले 2 लाख से ऊपर वोट इकट्ठा किए थे। इतने वोट में अगले टर्म तक निश्चित ही कोई देश स्तर का स्थापित नेता हो सकता है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ।

लेकिन अरविंद केजरीवाल के लिए आज ऐसा दिन आन पड़ा है कि एक पेड न्यूज़ के लिए विवादित न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार में मनीष सिसोदिया का नाम आ जाए तो उन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस कर देशभर में जताना पड़ रहा है कि हमारे शिक्षा मंत्री दुनिया के सबसे बेहतर शिक्षा मंत्री हैं। सोच कर देखिए कहां वह दिन थे, जब किसी लिस्ट में आना अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी बात नहीं थी और आज ऐसे किसी कवरेज के लिए उन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस करना पड़ रहा है।

सवाल है राजनीतिक आत्मविश्वास का। यदि अरविंद केजरीवाल ने अपना राजनीतिक आत्मविश्वास खो दिया है, तो चाहे वे दुनिया के सबसे बेहतरीन शिक्षा मॉडल अथवा स्वास्थ्य मॉडल प्रस्तुत कर लें, परिणाम वैसा नहीं आ पा रहा। पंजाब को छोड़ दें तो पिछले 9 वर्षों में अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के अलावे क्या हासिल हुआ है? बनारस से पीएम के उम्मीदवार को बेहतरीन टक्कर देने वाले नेता, यूपी से एक विधायक भी नहीं प्राप्त कर सके।

दरअसल अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक लड़ाई अब आम आदमी की लड़ाई नहीं रह गई है। यह लड़ाई अब उनकी आम आदमी पार्टी की भी लड़ाई नहीं रह गई। बल्कि उनकी राजनीति को उन्होंने अपनी निजी लड़ाई बना ली है। वे अब वही सब करते नजर आ रहे हैं जो देश में बाकी के परिवारवादी राजनीतिक पार्टियां करती हैं। अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए इमाम और मोअज्जिनों को प्रति मस्जिद ₹18000 तनखा देना। विनीबलिटी को देखकर विधायकों को टिकट देना। फंड जुटाने के लिए कभी खालिस्तानी हो तो कभी हवाला कारोबारियों की मदद लेना। कहीं ना कहीं तेजी से एक राजनीतिक उपलब्धि हासिल करने मैं अरविंद केजरीवाल ने तमाम सारी राजनीतिक गंदगियों को अपना लिया है।

ठीक है कि बाकी के दल भी ऐसे ही करते हैं। लेकिन जब बात मुकाबले की आती है तब आत्मविश्वास में भाजपा आज बहुत दूर निकल चुकी है। इतना कि वक्त पड़ने पर भाजपा का वोटर वर्ग भाजपा के किसी नेता के लिए पूरे दल से लड़ जाता है। नूपुर शर्मा के समर्थन में मोदी जी का विरोध किया जाने लगता है। भाजपा के यूपी का मुख्यमंत्री टेंडर-कालाबाजारी बंद कर देता है, तो विधायक अपने सरकार के खिलाफ ही विधानसभा में खड़े हो जाते हैं। मतलब एक तरफ आज मोदी वाली भाजपा है, जिस की लड़ाई आम जनता लड़ रही है। और यहीं से आत्मविश्वास पैदा होता है। बाकी तमाम दल हेडलाइन की लड़ाई लड़ रहे हैं और जनता उनसे बहुत पीछे छूट चुकी है। फिर आत्मविश्वास कहां से आएगा?

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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