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कुम्भ मेले में एक आईआईटीयन को देखकर भारत-देश की जनता विस्मय-विमुग्ध हो गई

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
कुम्भ मेले में एक आईआईटीयन को देखकर भारत-देश की जनता विस्मय-विमुग्ध हो गई। इन्होंने इससे पहले कोई शिक्षित संन्यासी नहीं देखा था?

व्यास से लेकर कृष्ण तक, बुद्ध से लेकर महावीर तक, शंकराचार्य से लेकर विवेकानन्द तक- सभी उच्च-शिक्षित थे।

कृष्णमूर्ति, रजनीश, अरबिंद, चिन्मयानंद, रामतीर्थ- सभी हाईली एजुकेटेड!

वास्तव में, अत्यन्त मेधावी होना संन्यासी होने की पहली शर्त है। गीता का ‘कर्म-संन्यास’ और ‘मोक्ष-संन्यास’! यह उपदेश एक सुशिक्षित अर्जुन को दिया जा रहा है। शंकराचार्य ने ‘विवेकचूड़ामणि’ में विवेक और वैराग्य की युति बनाई है। विवेक के पीछे-पीछे वैराग्य आता है, जैसे भोर के साथ आलोक आता है। जिसमें प्रखर बुद्धि होती है, उससे संसार अन्तत: छूट ही जाता है।

इसका यह अर्थ नहीं कि कुम्भ में साधु का चोला पहनकर जो भी चला गया है, वह मेधावी है। मैंने बहुत से निकम्मों को भी साधु के वेश में अपनी कमियाँ छुपाते देखा है। कुछ अपराधी वृत्ति वाले भी इसमें चले आते हैं। या कुछ किसी कौतुक के वशीभूत होकर इसमें आ जाते हैं, फिर यहीं मन रम गया। किन्तु मन के रमने (रमणतृषा) के विरुद्ध विद्रोह ही संन्यास है।

किन्तु जो भी सच्चा संन्यासी होगा, अनिवार्यत: मेधावी होगा। सुशिक्षित भी हो सकता है, किन्तु आवश्यक नहीं। कबीर तो ‘मसि कागद छुओ नहीं’ के बावजूद प्रखर प्रज्ञावान थे।

बहुतों को लगा कि जिस आईआईटी में प्रवेश के लिए हम मारे-मारे फिरते हैं, उसको यह छोड़ आया। किन्तु जो पाएगा, वही तो त्यागेगा। जिसको मिला ही नहीं, वह कैसे छोड़ेगा? छोड़ने के लिए पाना ज़रूरी है। पाने के बाद छोड़ना बहुत सहज है। छूट ही जाता है अगर दृष्टि हो तो। या अगर चित्त चंचल हो तो डिगा देता है। किन्तु पाने या छोड़ने भर से कोई वरेण्य नहीं हो जाता।

संसार में अचीवर्स की बड़ी पूजा की जाती है, उनके लिए बहुत वंदनवार सजाए जाते हैं। या फिर त्यागी का जयघोष किया जाता है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसको नहीं मिला, वह इन दोनों से अभिभूत रहता है। पाने और छोड़ने की क्रिया को उसकी दृष्टि अपनी अपूरित कामनाओं से रंजित कर देती है।

मैंने तीन कुम्भ देखे हैं। उनमें रिपोर्टिंग की है। उसमें संन्यास के परदे के पीछे संसार की कैसी लीलाएँ चलती रहती हैं, यह भी निकट से देखा है। किन्तु साधु के वेश में किसी उच्च-शिक्षित व्यक्ति का कुम्भ में होना एक बहुत ही साधारण-सी बात है। चप्पे-चप्पे पर आपको वैसे मिलेंगे। नफ़ीस अंग्रेज़ी बोलते हुए चिलम फूँकने वाले। विदेशों से भी सफल और सुशिक्षित जन यहाँ चले आते हैं- कौतुक से या वैराग्य से- वे ही जानें। किन्तु सांसारिक मानकों पर किसी सफल व्यक्ति का सबकुछ त्यागकर संन्यास में चले जाना कोई असाधारण घटना नहीं, बहुत ही स्वाभाविक बात है।

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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