कठिन कोरोनाकाल से अब किसान ही उबारेंगे देश को
ट्रैक्टर कंपनियों ने देश के छोटे मझोले किसानों और खेती का किया है बंटाधार।
Positive India:राजाराम त्रिपाठी;12 मई 20:
भारत की अधिकतर जनसंख्या पहले से ही गावों में रहती है, कोरोला काल में महानगरों से तथा मझोले शहरों से वहां पर विभिन्न कार्यों में लगे मजदूरों के परिवार सहित वापस अपने गांवों की अभूतपूर्व पलायन न केवल गांव की जनसंख्या में इजाफा करने जा रहा है बल्कि भोजन, पानी, रहवास सहित अन्य कई तरह की जटिल आर्थिक तथा सामाजिक समस्याएं उत्पन्न करने वाला है।
हमारे गांवों के खेतो में ही केवल गांव के लिए ही नहीं हमारे महानगरों की जनसंख्या के लिए भी अनेकों प्रकार के खाद्यान्नों, फलों सब्जियों, तिलहनों आदि जिन्सो का उत्पादन किया जाता है। मानव के विकास के साथ ही उसकी जरूरतें तथा उनका प्राथमिकता क्रम बदलता रहा है, किंतु आज भी भोजन मानव की मूलभूत आवश्यकता है। अतः खाद्यान्नों का सीधा सम्बन्ध देश की जनसंख्या की भोजन की थाली से है। देश के औद्योगिक उत्पादन, कृषि क्षेत्र के उत्पादन, निर्यात दर, जीडीपी तथा अन्य किसी भी सकारात्मक आंकड़ों की तुलना में भारत की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ रही है। इस प्रकार बढती हुई जनसंख्या को भोजन की अबाध आपूर्ति के दृष्टिकोण से लिए कृषि उत्पादन को सतत रूप से बढाने पर जोर दिया गया और पश्चिमी देशों की तर्ज पर 1966- 67 से हरित क्रांति का अभियान चलाया गया और “अधिक अन्न उपजाओ” का नारा दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप अधिक उपज प्राप्त करने के लिए रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशकों एवं रासायनिक खरपतवारनाशकों के कारखाने लगाये गए। रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशकों एवं रासायनिक खरपतवारनाशकों का अन्धाधुन्ध व असन्तुलित उपयोग प्रारम्भ हुआ। 1966-67 की हरित क्रांति हुए सैंतालिस साल से अधिक बीत चुके हैं । इस बीच सघन खेती के लगभग सभी क्षेत्रों में भूजल स्तर रसातल में पहुंच गया है । रासायनिक खादों ने जमीन नष्ट करनी शुरू कर दी है । कीटनाशकों ने पर्यावरण को ही प्रदूषित नहीं किया, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर दिया है । कीटनाशकों की अनेक नई किस्में किसानों के लिए बर्बादी लेकर आ रही है । कृषि वैज्ञानिक इसे “तकनीकी थकान” बता रहे हैं । शायद यह तकनीकी असफलता को दिया गया शालीन नाम है । हरित क्रांति का अग्रदूत कहे जाने वाले पंजाब के कई ब्लाकों में भूजल के स्तर के मामले में डार्क जोन घोषित कर दिए गये हैं । इन क्षेत्रों में भूजल के दोहन का स्तर खतरे के निशान 80 प्रतिशत को भी पार कर 97 प्रतिशत तक पहुंच गय है । जितने अधिक भूजल का दोहन किया जायेगा, खेती की लागत उतनी ही बढ़ती जयेगी । पानी के लिए किसानों को अधिक गहराई तक बोर करना पड़ेगा, जिससे ट्यूबवेल लगाने का खर्च बढ़ जायेगा केंद्रीय भूजल बोर्ड ने अधिक दोहन के कारण भूजल का स्तर खतरनाक स्थिति में पहुंचाने वाले कई ब्लाकों की पहचान की है । इनमें से आधे से ज्यादा ब्लाक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है । गन्ना उत्पादक किसान, जो मिलों के साथ गन्ना आपूर्ति का बांड भरते हैं, की फसल हर साल लगभग 240 क्यूबिक मीटर पानी पी जाती है । गेहूं और चावल के मुकबले यह करीब ढाई गुना अधिक है । गिरता भूजल स्तर जमीन को अनुत्पादक और बंजर बना देता है ।
राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भू-उपयोग नियोजन ब्यूरो का अनुमान है कि देश की लगभग कुल 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि अलग-अलग तरह से ह्रास का शिकार हो रही है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि हम जिस कृषि तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या उसी में गड़बड़ी है? सालों तक हमें बताया जाता रहा कि फसल की पैदावार बढ़ने के लिए रासायनिक खाद बहुत जरूरी है। शुरुआती दौर में रासायनिक खाद ने पैदावार जरूर बढाई, लेकिन इसके साथ-साथ कृषि भूमि रोगग्रस्त और अनुपजाऊ हो गयी । पर्यावरण के विश्वास के निशान दृष्टिगोचर थे, लेकिन खेतों की कम हो रही उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद कंपनियों के खाद से खेत पाट दिए । जैसे इतना ही काफी न हो, भूजल में नाइट्रेट मिलते जाने से जन-स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बढ़ता ही जा रह है।
कार्नेल विश्वविद्यालय के डॉ डेविड पीमेंटल ने 1980 में ही यह निष्कर्ष निकाल कर बता दिया था कि, कीटनाशकों की केवल 0.01 प्रतिशत मात्रा ही कीटों तक पहुंचती है बाकी 99.99 प्रतिशत कीटनाशक जहर सीधे तौर पर हमारे पर्यावरण में मिल जाता है। यह सब जानने के बावजूद कीटनाशक कंपनियां हमें दिग्भ्रमित करती रही , प्रगतिशील उन्नत वैज्ञानिक कृषि पद्धति के नाम पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे धोखेबाज बीज खरीदते रहे और अपनी पीठ पर केन लादकर इनके बेहद मंहगे जहरीले कीटनाशकों से अपने खाद्यान्नों , साग सब्जियों, फलों को जहरीला बनाते रहे। इतना ही नहीं हमने अपनी जेब काटकर इनके महंगे जहरीले रासायनिक दवाइयों और उर्वरकों सेअपनी मिट्टी, पानी, हवा को भी जहरीला बना डाला है।
हकीकत तो यही है कि उन्नत तकनीक के नाम पर फार्म मशीनरी के महंगे और बड़े बड़े कृषि उपकरण भारत में , जहां की 84% किसानों की अधिकतम भूमि 5 एकड़ से कम है, उनके लिए बिल्कुल उपयोगी नहीं है। यह कृषि उपकरण अमेरिका जैसे हजारों एकड़ों के खेतों पर तो किफायती उपयोगी सिद्ध होते हैं,पर भारत में यह सफेद हाथी साबित होते हैं।
एक आश्चर्यजनक तथ्य है, कि भारत में इन छोटे, मझोले किसानों की मशीनीकरण की प्रमुख आवश्यकता पावर ट्रेलर अथवा बेहद छोटे ट्रैक्टर अधिकतम 20 हार्स पावर की हो सकती है,(वैसे तो यह कार्य परंपरागत बैलों से ज्यादा अच्छे तरीके से हो सकता ), किंतु पिछले 40 सालों में बाजार की ताकतों ने अपने बड़े बड़े ट्रैक्टरो 30 से लेकर 60 हार्सपावर तक के विशालकाय ट्रैक्टरों को बेचने के लिए किसानों को सेल्स एजेंट तथा बैंकों के साथ मिलकर कर्ज के जिस मकड़जाल में उलझाया है, उस में फंसकर लाखों किसान आज तक आत्महत्या कर चुके हैं, कितने ही किसान अपनी जमीनों से मरहूम हो चुके हैं, और कितने ही किसान आज भी ट्रैक्टर के लिए , लिए गए कर्ज के जाल में छतपटा रहे हैं। ट्रैक्टर बिक्री के आंकड़े बताते हैं कि, इस कठिन कोरोना काल में भी ट्रैक्टर कंपनियां और उनके एजेंट अपने ग्राहक तलाशने में सफलतापूर्वक लगे हुए हैं। इस पर तुर्रा यह है यह कंपनियां यह सब देश की खेती के तथा किसानों के तकनीकी विकास के नाम पर करती हैं तथा सरकारें इनकी पीठ भी थपथपाती हैं।
इजराइल की टपक सिंचाई योजना यद्यपि सूखे क्षेत्रों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती है किंतु यह आज भी सामान्य किसानों की जेब के बूते से बाहर है। यूं तो सरकारें टपक सिंचाई अर्थात ड्रिप इरिगेशन पर किसानों को अनुदान देने का ढकोसला भी करती हैं पर वास्तव में सरकारी एजेंसियां,आपूर्तिकर्ता कंपनियों के साथ मिल बांटकर अनुदान राशि की मलाई तो पहले ही डकार जाती है और किसान को प्राय: घटिया उपकरण व सामग्रियां महंगे दामों पर ही मिलते हैं।
आजकल प्रगतिशील तथा धनी किसानों में तेजी से लोकप्रिय हो रही इजराइल की कृषि तकनीक मानी जाने वाली पाली-हाउस योजना की भी पुनर्समीक्षा जरूरी है। 1 एकड़ में पाली हाउस की लागत सरकारी योजनाओं में लगभग 40 लाख बताई जाती है जिसमें सरकारी एजेंसियां किसान को ₹20 लाख तक की अनुदान देती है। इस 20 लाख रुपए के अनुदान लालच में प्राय: संपन्न , प्रगतिशील तथा विशेषकर युवा किसान फंस जाते हैं। इस अनुदान लालच के अलावा पाली हाउस बनाने वाली कंपनियां तथा इनके एजेंट किसानों को ऐसे-ऐसे रंगीन सब्जबाग दिखाते हैं जैसे कि 20 लाख रुपए से लेकर ₹50 लाख,, करोड़ों रुपए,, प्रति एकड़ सालाना आय की बाकायदा योजनाएं तथा प्रेजेंटेशन आदि दिखाए जाते हैं, और कुछ सफल उद्यमियों के उदाहरण गिनाए जाते हैं,, और किसान सम्मोहित हो जाता है तथा उनके जाल में पूरी तरह फंस जाता है।
और इसके बाद शुरू होता है, सरकारी एजेंसी, बैंकों कथा पालीहाउस बनाने वाली कंपनियों का खेल। 40 लाख की लागत योजना का पालीहाउस लगभग 15 – 16 लाख में तैयार कर खड़ा कर दिया जाता है ।अनुदान की पूरी राशि तो आपस में सब मिलकर चट कर ही जाते हैं, उल्टे किसान की टेंट से भी ₹ 3- 4 लाख चले जाते हैं। पहला साल तो पाली हाउस बनाने में निकल जाता है । दूसरे साल जब फसल आती है, तो किसान जोड़ घटाना तथा अपना मुनाफे की गणना शुरू करता है, पर उससे पहले ही बैंक उसकी छाती पर ब्याज का मुगदर लेकर सवार हो जाता है। तीसरे साल के आखिर तक उसके सारे सपने बिखर जाते हैं और कई बार तो, इससे पहले ही आंधी तूफान में पालीहाउस ही बिखर जाता है। धनी किसान यहां वहां से व्यवस्था करके बैंक से तथा पाली हाउस से पीछा छुड़ाते हैं तथा खेती के नाम से तौबा कर देते हैं वहीं छोटे मझोले किसान अपने इस विदेशी तकनीक के सपने की कीमत अपनी जमीन जायदाद बेचकर चुकाते हैं। और अगर किसान नहीं भेज पाते तो बैंक उनकी जमीन नीलाम कर देता है। दुखद सत्य यही है कि, हमारी जमीनी पड़ताल में, अपवादों को छोड़कर अधिकांश प्रकरणों में यही देखने में आया है। हमें कृषि कार्यों की छोटी छोटी मशीनों की आवश्यकता है जो कि हमारी कृषि लागत को कम करने में मदद करें।
इसलिए विदेशी तकनीक के नाम पर हर चमकने वाली चीज को सोना समझकर दौड़ने और गठियाने की प्रवृत्ति से हमें उबरना होगा तथा हमें अपने देश, काल ,परिस्थिति ,जलवायु, आवश्यकता, क्षमता के अनुरूप नई पद्धतियों ,तकनीकों की खोज करनी होगी। उदाहरण के तौर पर पालीहाउस का बेहद सस्ता तथा भारी लाभदायक प्रभावी विकल्प का एक सफल मॉडल “मा दंतेश्वरी हर्बल फार्म तथा रिसर्च सेंटर” कोंडागांव के द्वारा विगत तीन दशकों के शोध द्वारा विकसित किया गया है। उसे भी जाकर, देख समझकर, अपनाया जा सकता है।
जैविक कीटनाशक तथा जैविक खाद बनाने की ढेर सारी परंपरागत प्रभावी तकनीकें हैं, जिन्हें अपनाकर बेहद कम खर्चे में हर छोटा किसान भी अपने खेतों पर ही जैविक खाद तथा जैविक कीटनाशक आदि बना सकता है।
जैविक खेती में भी “जीरो बजट” जैसे लुभावने अव्यावहारिक नारों , तथा किसानों के प्रशिक्षण के नाम पर पूरे देश में पैसा उगाही करने वाले अंतरराज्यीय खेमेबाज गिरोहों से भी बचना जरूरी है। ये खेमेबाज गिरोह इतने शक्तिशाली है कि सरकार को प्रभावित करके पद्मश्री जैसी उपाधियां भी ले उड़ते हैं।
गांव गांव में हर किसान को अपने खेतों का जैविक खाद बनाना ही होगा, क्योंकि अब यह साबित हो गया है कि दस साल पहले जितनी फसल लेने के लिए उस समय की तुलना में दोगुनी रासायनिक खाद डालनी पड़ रही है । इससे किसान कर्ज के जाल में फंस रहे हैं । हालिया अध्ययन में खाद की खपत और उत्पादन के बीच नकारात्मक सह-संबंध के बारे में साफ साफ बताया गया है। जिन क्षेत्रों में खाद की खपत कम है वहां फसल की उपज अधिक है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि खाद कंपनियों को कभी ऐसे निर्देश नहीं दिए गये कि वे मिट्टी के पोषक तत्वों में संतुलन का ध्यान रखें, ताकि विविध प्रकार से भूमि में रासायनिक तत्वों का जमावड़ा न हो । आंख मूंदकर विदेशों से आयातित तकनीकों को स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति किसानों पर बहुत भारी पड़ रही है । वास्तव में इन महंगी तकनीकों के प्रलोभन ने कृषक समुदाय की खाल ही उतार दी है । फसल उगाने से बचने वाली रकम इन संगीत तकनीकों की खरीद और रख-रखाव में चली जाती है । इससे खेती पर संकट बढ़ता गया है ।
अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि आज कोरोना काल को देखते हुए पहली जरूरत है कि गांव गांव में किसान संगठनों, कृषि विज्ञान केंद्रों, कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विभाग आदि के समन्वित सहयोग से जैविक कीटनाशक, जैविक खाद, परंपरागत जल संरक्षण तथा सिंचाई की तकनीकों का पुनरोद्धार के द्वारा पर्यावरण हितैषी, सस्ती भारतीय तकनीकों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाए। कभी कोरोना के वार से छिन्न-भिन्न हुई अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी लाने में देश की कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावी भूमिका निभा पाएगी।
लेखक:राजाराम त्रिपाठी- अध्यक्ष-अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)