Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
न्यायालय मे एक दिन आम आदमी के लिए किसी सजा से कम नही रहते । पर शायद ही कोई हो जिसे कभी इससे रूबरू न होना पड़े । एक पुरानी कहावत है “दुश्मन को भी अस्पताल व अदालत का मुह देखना न पड़े” ।
वही व्यक्ति इससे दूर रह सकता है जो ज्यादती व नाइंसाफी के खिलाफ कभी भी आवाज नही उठाता । इन्हे ऐसे ही जीने की आदत सी रहती है । जिसका लोग फायदा उठाने से नही चूंकते । चलो फिर अदालत के परिसर के ओर रुख करे । न्यायालय के समय मे पहुंचने का एक मानसिक तनाव पहली बार जाने को ज्यादा रहता है । आप आरोपी हो या निर्दोष, यह बाद की बात, पर कोई परिचित मिल जाए तो बड़ी शंका भी नजरो से देखता है । फिर आंखो ही आंखो मे प्रश्न भी खड़ा करता है कैसे ? फिर अपने निर्धारित समय मे अदालत शुरू होती है तो उसके साथ गहमागहमी भी शुरू होती है । वकीलो का इधर से उधर आना जाना आम बात है ।
गवाही के लिए आए लोगो का अदालत के बरामदे मे इधर से उधर, सीमेंट के बेंच मे बैठकर अपने बुलाने का इंतजार काफी तकलीफ देह रहता है । वही मुवक्किल को वकील द्वारा पुनः आने की बात या कोर्ट द्वारा तलब करने पर बुलाने आ जाना, कहना हर किसी को इससे सामना करना पड़ता है ।
अपने मुवक्किल को पूरा आश्वस्त करते हर समय वकील दिखाई देते है । ठीक वैसे ही जैसे आप्रेशन थियेटर मे चिकित्सको द्वारा उनके परिवार को निश्चिंत किया जाता है। कोर्ट आहते मे मोबाइल पर पाबंदी होने से समय भी फिर कम कट पाता है । बरामदे से मूंगफली बेचने वाले निकलते है तो आया बंदा समय काटने के लिए लेने के लिए मजबूर होता है। अगर किसी कारणवश बुलावा देरी से होता है तो वह शख्स ऐसे हालात से तौबा करने की कसम खाने की सोचता है ।
लंच के समय भी किसी कारण से अगर तब तक फ्री नही होता तो उस समय भी वो अपने वकील के इर्द-गिर्द रहते हुए सुरक्षित महसूस करता है । किसी के मिलने पर आने के हालात सविस्तार बताना, ऐसा महसूस होता है कि सामने वाले से निर्दोष साबित के सर्टिफिकेट लेने के समान ही है ।
अदालत परिसर मे प्रतिदिन मे कितने लोग दोषमुक्त होते होंगे, पता नही। कितनो को सजा मुकर्रर होती होगी,वह भी नहीं पता। कई अपराधीयो को हथकड़ी लगे होने के बाद भी जब निश्चिंत, बिंदास और मुस्कुराते हुए देखता हू तो आश्चर्य के साथ यह महसूस होता है की इन्हे फिक्र नही है । कुल मिलाकर हर लोगो का न्यायालय मे दिन ऐसा ही जाता है । पर किसी भी कारण से पुनः तारीख मिलने पर निश्चित ही काफी दुख होता है ।
न्यायालय मे मैने जैसे अनुभव किया उसे मैंने लिखा है । हो सकता है किसी अन्य के साथ कोई और अनुभव हो । इसके बाद भी लोग बहुत ही मजबूरी मे न्याय के लिए न्यायलय मे जाने को मजबूर होते है ।
लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ अभनपुर(ये लेखक के अपने विचार हैं)