अपर्णा की सास साधना न होतीं तो अखिलेश मुख्य मंत्री ही न बने होते और अब वही बनने नहीं देंगी
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
अमर सिंह को लोग पावर ब्रोकर कहते थे। पावर ब्रोकर मतलब सत्ता का दलाल। अमर सिंह के पावर ब्रोकर के आगे मैं ने बड़े-बड़े लोगों को झुकते और सलाम करते देखा है। दिलीप कुमार जैसे महान अभिनेता तक को। आज तक नहीं समझ पाया कि दिलीप कुमार भी अमर सिंह को क्यों भाव दिया करते थे। लेकिन अमर सिंह जितने बड़े पावर ब्रोकर थे उस से भी बड़े वह गृह क्लेश करवाने वाले भी थे। कम से कम चार परिवारों का ज़िक्र तो यहां कर ही सकता हूं। अंबानी परिवार , मुलायम परिवार , सहारा परिवार और अमिताभ बच्चन परिवार। इन सभी परिवारों के अमर सिंह अभिन्न मित्र थे। और इन चारों परिवारों को गृह क्लेश में डाल कर विदा हो गए। अभी यहां हम फ़िलहाल सिर्फ़ मुलायम परिवार की बात करते हैं। अमर सिंह दोस्तों के दोस्त तो थे ही। दोस्तों के कट्टर दुश्मन भी। ईंट से ईंट बजा देते थे दोस्तों की। बशीर बद्र का एक शेर है :
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों।
इस शेर का लिहाज अमर सिंह कभी नहीं करते थे। वह तो वसीम बरेलवी के इस शेर के हामीदार रहे सर्वदा :
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए।
तो मुलायम सिंह जो काम चुपके-चुपके करते रहे थे , अमर सिंह ने उसे एक बार मंच से सार्वजनिक कर दिया। और मुलायम सिंह यादव को अपनी मुट्ठी में कर लिया। फिर न वह मुलायम के रहे , न साधना के , न अखिलेश के। घर में आग लग गई। फिर तो सल्तनत के लिए जैसे कभी मुग़लिया सल्तनत में बाप – बेटे , और भाई-भाई के बीच जो-जो होता था , मुलायम परिवार में शुरु हो गया। अमर सिंह चले गए। बाप-बेटे की सत्ता चली गई। पर मुलायम परिवार का गृह क्लेश नहीं गया। अब खतरनाक मोड़ पर खड़ा है यह गृह क्लेश। अपर्णा यादव का भाजपा में जाना आप इसी गृह क्लेश का एक और पड़ाव मान लीजिए। अभी कई और पड़ाव शेष हैं।
फिर यह तो होना ही था। अपर्णा विष्ट यादव तो 2017 में योगी के मुख्य मंत्री बनने के बाद से ही भाजपा में आने के लिए निरंतर पेंग मार रही थीं। बस भाजपा निरंतर टाल रही थी। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य , दारा सिंह चौहान का इस तरह पलक-पांवड़े बिछा कर अखिलेश यादव ने स्वागत न किया होता तो शायद अपर्णा विष्ट यादव को भाजपा में अभी भी न लिया गया होता। भाजपा का यह फ़ैसला सिर्फ़ अखिलेश यादव को मुंह चिढ़ाने के लिए लिया गया है। आप को याद ही होगा कि बचपन में मुंह चिढ़ाने का खेल हम सभी ने खेला है। मुंह चिढ़ाना , ठेंगा दिखाना आदि साफ़्ट खेल हैं , बचपन के। अभी चिढ़ाया , अभी भूल गए। फिर एक हो गए।
भाजपा ने यही बचपन वाला खेल खेला है। कुछ और नहीं। नहीं , अपर्णा यादव के पास कोई वोट नहीं है , दस वोट भी नहीं। वोट बैंक तो बहुत दूर की कौड़ी है। असल में मुलायम सिंह यादव की दोनों बहुएं , डिम्पल यादव एयर अपर्णा यादव दोनों ही उत्तराखंडी हैं। दोनों ही क्षत्रिय हैं। दोनों ही ने प्रेम विवाह किया है। अखिलेश यादव ने तो डिम्पल से विवाह के लिए लगभग बगावत कर दी थी। नहीं , मुलायम सिंह यादव तो अखिलेश यादव का विवाह , लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा से तय कर बैठे थे। बतौर रिपोर्टर मैं इस का साक्षी हूं। तब राबड़ी देवी बिहार की मुख्य मंत्री थीं। लालू , राबड़ी , मीसा , मीसा की छोटी बहन तब लखनऊ आई थीं। यह 1998 की बात है। ताज होटल में सपरिवार ठहरे थे यह लोग। सब कुछ ठीक चल रहा था। सगाई आदि की बात होने लगी। लेकिन अखिलेश ने पहले तो दबी जुबान मना किया। फिर बगावत पर आ गए।
तब के दिनों अमर सिंह मुलायम का सारा प्रबंध देखते थे। अखिलेश को चॉकलेट खिलाते थे। सो अमर सिंह ने अखिलेश को चॉकलेट खिला कर उन की बग़ावत को न सिर्फ़ मैनेज किया बल्कि इस बाबत कोई ख़बर भी बाहर नहीं आने दी। अलग बात है कभी मुलायम को प्रधान मंत्री बनने की राह को बिल्ली की तरह काटने वाले लालू ने लखनऊ में तब समधी भाव को प्रगाढ़ करते हुए मुलायम के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस में ऐलान किया था कि अब मुलायम सिंह को प्रधान मंत्री बनवा कर ही दम लूंगा। बहरहाल लालू , राबड़ी अपनी बेटियों के साथ उदास लौटे। वह बरसात के दिन थे।
लखनऊ के विक्रमादित्य मार्ग पर मीसा , और अखिलेश यादव के विवाह का संयोग उस बरसात में ही बह गया। पर यह अखिलेश यादव की पहली बग़ावत थी , पिता मुलायम सिंह यादव से। यह वही दिन थे जब वह टीपू से अखिलेश यादव में तब्दील हो रहे थे। अमर सिंह को समझ आ गया था कि अखिलेश यादव अब उन की चॉकलेट से बहलने वाला नहीं है। एक बार मजाक में ही सही , अमर सिंह ने एक हेलीकाप्टर यात्रा में मुझ से कहा भी। फिर डिम्पल से विवाह के लिए अमर सिंह ने ही मुलायम सिंह को राजी किया। मुलायम सिंह आसानी से मान गए। नवंबर , 1999 में उन का विवाह डिम्पल से हो गया। उत्तराखंड मूल की पुणे में पैदा हुई डिम्पल अखिलेश से 5 बरस छोटी हैं। कर्नल आर.एस. रावत की मंझली बेटी हैं। फर्राटे से अंगरेजी बोलते लोकसभा में हम ने उन्हें देखा है।
बहरहाल , अखिलेश यादव की जवानी की इच्छा पूरी हो गई तो उन की राजनीतिक इच्छाएं जागृत हुईं। तो 2009 में फ़िरोज़ाबाद और कन्नौज से लोकसभा के चुनाव में चुनाव लड़ा दिया मुलायम ने अखिलेश को। अखिलेश दोनों जगह से जीत गए। कन्नौज से इस्तीफ़ा दिया और फ़िरोज़ाबाद सीट अपने पास रखी। कन्नौज से उपचुनाव में डिम्पल को खड़ा किया गया। पर समाजवादी पार्टी से बेआबरु हो कर निकले राज बब्बर ने कांग्रेस के टिकट पर डिम्पल को हरा कर मुलायम की अकड़ ढीली कर दी। 2012 में अखिलेश यादव ने फिर कन्नौज संसद की सीट छोड़ी। अब की अखिलेश ने ऐसा जोड़-तोड़ किया कि लोकतंत्र दांव पर लग गया। लोग हल्ला मचाते रह गए पर डिम्पल यादव कन्नौज से निर्विरोध चुनाव जीत कर संसद पहुंच गईं। भाजपा का उम्मीदवार तक बिक गया। इतना कि नामांकन भी नहीं कर पाया। ख़ैर , यह अलग क़िस्सा है। पर हम यहां बात करना चाहते हैं , अखिलेश यादव की दूसरी बग़ावत की। जो अखिलेश यादव की ज़िंदगी का निर्णायक मोड़ है। अखिलेश यादव ही नहीं , मुलायम सिंह यादव की ज़िंदगी का भी निर्णायक मोड़ साबित हुआ। और मुलायम की राजनीतिक सत्ता पर ताला लग गया।
इस बग़ावत का सबब बनीं मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता यादव। अखिलेश यादव को बहुत देर से साधना गुप्ता और मुलायम सिंह यादव के संबंध के बारे में पता चला। लेकिन जब से यह पता चला , अखिलेश और मुलायम के संबंध सामान्य नहीं रह गए। तब और जब उन्हें अपने सौतेले भाई प्रतीक के बारे में पता चला। अखिलेश को हमेशा ही लगता रहा कि मुलायम ने उन की मां मालती यादव के साथ सर्वदा ही अन्याय किया। शुरु में इन्हीं सारे कारणों से मुलायम ने साधना से अपने संबंध सार्वजनिक नहीं किया। साधना तब लखनऊ के इंदिरा नगर में ही रहती थीं। मुलायम अपनी लालबत्ती कार से नियमित पहुंचते रहे। बिलकुल जयललिता और एम जी रामचंद्रन के क़िस्से की तरह यह क़िस्सा चलता रहा। पर साधना के इसरार पर अमर सिंह ने मुलायम को सार्वजनिक रुप से साधना को स्वीकार करने के लिए मना लिया। मुलायम सिंह यादव जब अगस्त , 2003 में मुख्य मंत्री बने तो लखनऊ में मुख्य मंत्री के औपचारिक निवास 5 , कालिदास मार्ग पर हुए पूजा समारोह में सार्वजनिक रुप से साधना गुप्ता को देखा गया।
न सिर्फ़ देखा गया बल्कि बतौर पत्नी साधना गुप्ता , मुलायम सिंह यादव के साथ पूजा में बैठीं। लेकिन इस पूजा समारोह में सीमित लोग ही थे सो बात सत्ता के गलियारों तक ही सीमित रही। पर कब तक रहती भला। साधना गुप्ता मुलायम सिंह के पहले दो कार्यकाल 1989 -1991 और 1993 – 1996 में भी सत्ता के कामकाज में दखल देती रही थीं। पर परदे के पीछे से। लेकिन अब खुल्लमखुल्ला। यहां तक कि अखिलेश को लगने लगा कि मुलायम सिंह यादव कहीं प्रतीक यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी न बना दें। बग़ावत के बीज यहीं पड़े अखिलेश यादव के मन में।
लेकिन अगला चुनाव मुलायम के लिए भरी पड़ा। मायावती को बहुमत मिला और वह मुख्य मंत्री बन गईं। तो मुलायम परिवार में सत्ता के लिए मुग़लिया सल्तनत वाली लड़ाई वैसे ही स्थगित हो जैसे बरसात बाद अपना भोजन आदि ले कर मेढक धरती के भीतर समा जाता है। फिर बरसात में ही बाहर निकलता है। तो 2012 में परिवार में यह सत्ता संघर्ष फिर बाहर आ गया। मायावती अपने हाहाकारी भ्रष्टाचार और एकतरफा दलितोत्थान के एजेंडे के कारण पराजित हो गईं। अखिलेश यादव की जैसे लाटरी खुल गई। मुग़लिया जोड़-तोड़ और अंतत: पिता से भीतर ही भीतर खुली बग़ावत का बम चला कर अखिलेश यादव ने पिता से मुख्य मंत्री पद हथिया लिया।
बग़ावत भी नहीं , मैं तो इसे ब्लैकमेल कहता हूं। अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव को ब्लैकमेल यह कह कर किया कि आप के और साधना गुप्ता के संबंधों की छीछालेदर सार्वजनिक रुप से शुरु कर दूंगा। साधना गुप्ता ने भी कैकेयी रुप नहीं धरा। गो कि वह चाहतीं तो वह अखिलेश की ब्लैकमेलिंग को उसी समय कुचल कर अखिलेश को वनवास दिलवा सकती थीं मुलायम द्वारा। पर ऐसा करने से वह बचीं। क्यों कि तब के दिनों साधना की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी। प्रतीक भी छात्र थे। कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। जो भी हो , साधना गुप्ता को यह अखिलेश यादव की पहली शह थी। लेकिन अखिलेश का सौतेली मां को निरंतर अपमानित करने , उपेक्षित करना भारी पड़ गया। फिर तो शह-मात का निरंतर 2012 से 2017 तक चलता रहा। कई बार बिलो द बेल्ट भी। पर कुछ भी सार्वजनिक नहीं हुआ।
साधना गुप्ता यादव ने शतरंज के खेल की तरह मोहरे की तरह अमर सिंह और शिवपाल को आगे किया। अखिलेश यादव का इलाज करने के लिए। मुलायम ने भी अमर सिंह और शिवपाल को अखिलेश को चेक करने के लिए लगाया। यहां तक कि अखिलेश यादव के मुख्य मंत्री कार्यालय में एक महिला आई ए एस अफसर अनीता सिंह को अखिलेश का सचिव बना कर तैनात करवाया। जो अखिलेश सरकार की पल-पल की ख़बर मुलायम को देती रहती थीं। ठीक वैसे ही जैसे कभी कांशीराम ने मुलायम के मुख्य मंत्री कार्यालय में पी एल पुनिया को मुलायम का सचिव बनवा कर तैनात करवाया था। पुनिया मुलायम सरकार की पल-पल की खबर कांशीराम और मायावती को दिया करते थे। पुनिया बाद में मायावती के भी सचिव रहे थे। पुनिया ही थे जिन्हों ने मायावती के खिलाफ भी व्यूह रचा और उन्हें भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में फंसा दिया। कि मायावती आज तक कराहती हैं। पुनिया रिटायर होने के बाद अब बरसों से कांग्रेस में हैं। मनमोहन सरकार में खूब मलाई काटी पुनिया ने। सांसद तो हुए ही , कैबिनेट मंत्री पद की एक कुर्सी का भी इंतज़ाम कर लिया था बतौर चेयरमैन अनुसूचित आयोग के ।
बहरहाल याद कीजिए जब एक समय अखिलेश यादव सरकार में कई सुपर चीफ़ मिनिस्टर बताए जाते थे। पैरलेल चीफ़ मिनिस्टर बताए जाते थे। शैडो चीफ मिनिस्टर भी। जैसा जिस का मन , वैसा मन। शिवपाल सिंह यादव , आज़म ख़ान , रामगोपाल यादव आदि इन सुपर चीफ़ मिनिस्टरों में थे । उन में एक नाम अनीता सिंह का भी लिया जाता था। मुलायम इन सब से ऊपर। कहा जाता है कि समय रहते साधना गुप्ता ने ध्यान नहीं दिया होता , हस्तक्षेप नहीं किया होता तो अखिलेश यादव को एक और सौतेली मां से परिचित होना पड़ता। अखिलेश को प्रशासनिक अनुभव नहीं था। डिम्पल से विवाह के बावजूद अखिलेश की अपनी भी कुछ निजी कथाएं थीं सो वह अनीता सिंह की मुट्ठी में थे। पर धीरे-धीरे अखिलेश यादव मुग़लिया सल्तनत वाली पारिवारिक चालों से परिचित होते गए और उस की काट भी करते गए। यह वही दिन थे जब टाइम्स आफ इंडिया अखबार ने अखिलेश यादव को औरंगज़ेब शब्द से अलंकृत कर रहा था। औरंगज़ेब मतलब अखिलेश और शाहजहां मतलब मुलायम।
गरज यह कि टाइम्स आफ इंडिया की इस ख़बर की कुल ध्वनि यह थी कि अखिलेश यादव ने मुलायम को क़ैदी बना कर सत्ता-विहीन कर दिया था। यह ख़बर अमर सिंह ने टाइम्स आफ इंडिया में प्लांट करवाई थी। वह सर्दियों के दिन थे। अब मुलायम अखिलेश यादव को हटा कर ख़ुद मुख्य मंत्री बनना चाहते थे। सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश को लौंडों की तरह डांटने लगे थे। फिर वह डरे कि कहीं पार्टी टूट न जाए और ज़्यादा विधायक कहीं अखिलेश की तरफ चले गए तो कहीं भद न पिट जाए। फिर उन्हों ने शिवपाल सिंह यादव को आगे किया। अखिलेश अंतत: साधना गुप्ता यादव और पिता मुलायम की लगातार चालों से आजिज आ कर चाचा रामगोपाल यादव की शरण में गए। कुछ लोग कहते हैं कि मुलायम के मौसेरे भाई रामगोपाल यादव ने अखिलेश यादव को खुद ही बरगलाया। और अखिलेश को भड़काया। जितने मुंह , उतनी बातें हैं। बहरहाल पार्टी की एक मीटिंग लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में बुलाई गई। और मुलायम सिंह को हटा कर अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया।
अब मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव पर हमला बोल दिया। कहा कि रामगोपाल ने अखिलेश का कैरियर खत्म कर दिया। और जाने क्या-क्या। मुलायम ने तब ठीक ही कहा था। मुलायम यहां तक कहने लगे कि अभी तक किसी ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री नहीं बनाया पर मैं ने अपने बेटे को मुख्य मंत्री बनाया। पर अखिलेश ने मुझे धोखा दे दिया। मुलायम कहते , जो अपने बाप का नहीं हो सकता , किसी का नहीं हो सकता। वह कहते बताइए कि अपने चाचा को मंत्रिमंडल से निकाल दिया। संयोग से मुलायम के इस भाषण का वीडियो इन दिनों फिर वायरल है। बहरहाल बात चुनाव आयोग तक गई। अमर सिंह और शिवपाल खुल कर अखिलेश के खिलाफ़ खड़े हो गए। मुलायम भी। मुलायम ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखी। चुनाव आयुक्त से मिले भी यह कहते हुए कि असली अध्यक्ष मैं हूं। चुनाव आयोग ने मुलायम सिंह से यही बात शपथ पत्र पर लिख कर देने को कहा। मुलायम चुप लगा गए। शपथ पत्र नहीं दिया तो नहीं दिया। शिवपाल और अमर सिंह ने सारा जोर लगा लिया। पर मुलायम टाल गए।
अगर शपथ पत्र दे देते मुलायम चुनाव आयोग को तो सपा का चुनाव चिन्ह साइकिल ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। अखिलेश , क्या पार्टी भी समाप्त हो जाती। मुलायम अनुभवी राजनीतिक हैं। अखिलेश के आगे सरेंडर कर गए। लोगों ने इसे मुलायम का पुत्र-मोह भी कहा। अभी भी कहते हैं। पर इस सब में शिवपाल सिंह यादव पलिहर के बानर बन गए। न घर के रहे , न घाट के। धोबी का कुत्ता बन गए। आज तक बने हुए हैं। अब कहते हैं कि अखिलेश ही हमारे नेता जी हैं ! अलग बात है कि भाजपा अभी भी जसवंत नगर सीट पर शिवपाल की प्रतीक्षा कर रही है। और शिवपाल कह रहे हैं नहीं , बिलकुल नहीं। बहरहाल घर में सब से लड़ते हुए 2017 के विधान सभा चुनाव में राहुल की कांग्रेस के साथ मिल कर अखिलेश लड़े। सौ सीट कांग्रेस को दे बैठे। नतीज़ा आया तो ख़ुद सिमट कर 47 सीट पर रह गए। शिवपाल की गति को प्राप्त हो गए। अखिलेश यादव अब तक पलिहर का बानर बने हुए हैं। धोबी का कुत्ता बन कर न घर के रह गए हैं , न घाट के। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती से गठबंधन कर फिर लुढ़क गए।
पर इतनी मार खाने के बाद भी अखिलेश को अभी तक समझ नहीं आई। अब ओमप्रकाश राजभर जैसे उठल्लों , स्वामी प्रसाद मौर्य , दारा सिंह चौहान जैसे दगे कारतूसों के बूते कूद रहे हैं। मनबढ़ई भरी बातों से चुनाव नहीं जीते जाते। मीडिया मैनेजमेंट और बिना विजय के विजय यात्रा से भी चुनाव नहीं जीते जाते। पिता की बद्दुआ साथ ले कर भी चुनाव नहीं जीते जाते। पैसा खर्च कर अगर चुनाव जीते जाते तो कांग्रेस या मायावती कभी चुनाव नहीं हारते। सर्वदा सत्ता में बने रहते। मुस्लिम वोट बैंक का मिथ टूट चुका है। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग कर मंडल , कमंडल की दूरी मिटा दी है। शौचालय , पक्का मकान , गैस , मुफ्त राशन , जनधन में पैसा दे कर लाभार्थी नाम की एक नई जाति खड़ी कर दी है भाजपा ने। पर अखिलेश यादव हैं कि पुराने औजारों से ही चुनाव जीत लेना चाहते हैं। मेहनत बहुत कर रहे हैं , इस में कोई शक़ नहीं। पर मेहनत तो एक रिक्शा वाला , एक मज़दूर भी बहुत करता है। मेहनत भी बुद्धि के साथ करनी होती है। तब उस का अपेक्षित परिणाम मिलता है। पर आस्ट्रेलिया से एम टेक करने वाले अखिलेश यादव वर्चुअल रैली का मतलब ही अभी तक नहीं जान पाए हैं। ढाई हज़ार लोगों को पार्टी कार्यालय में इकट्ठा कर वर्चुअल रैली करते हैं। अकेले विकास यात्रा निकालने की बात करते हैं।
अब तो आलम यह है कि हरिओम यादव , मुलायम के समधी भी भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं। साधना गुप्ता के परिवार के प्रमोद गुप्ता जो सपा के पूर्व विधायक हैं , मुलायम सिंह यादव के साढ़ू भाई हैं , वह भी अब भाजपा में आ गए हैं। आते ही बयान दे दिया है कि अखिलेश ने मुलायम को बंधक बना कर रखा हुआ है। यानी अमर सिंह अखिलेश को औरंगज़ेब का खिताब वैसे ही नहीं टाइम्स आफ इंडिया में छपवा गए हैं। असल में आस्ट्रेलिया से एम टेक करने वाले अखिलेश को न सही अपने पिता से बल्कि किसी और से नौवीं फेल लालू पुत्र तेजस्वी यादव से ही राजनीतिक पाठ सीखना चाहिए। कि बिना माता-पिता का एक रोयां दुखाए नीतीश कुमार जैसे कद्द्वार नेता को भी बिहार में अकेलेदम पर पानी पी रखा है। मुलायम के पास साधना हैं तो लालू के पास भी कांति सिंह जैसी कई हैं। तेजप्रताप जैसा लंठ और बांगड़ भाई है। मीसा जैसी महत्वाकांक्षी बहन भी। बावजूद इस सब के तेजस्वी बिहार में अपने दम पर खड़ा है। प्रेम विवाह तेजस्वी ने भी किया है। अंतर्धार्मिक विवाह।
वह तो ग़नीमत है कि साधना गुप्ता यादव के बेटे प्रतीक यादव की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। नहीं , अगर होती तो यह सौतेला भाई अखिलेश यादव को नाको चने चबवा देता। सारी पारिवारिक ब्लैकमेलिंग भूल जाते अखिलेश यादव। पिता की बरसों की कमाई राजनीतिक ताक़त को चुटकी में खत्म करना और बात है। अपनी राजनीतिक ज़मीन बनाना और बात। अखिलेश तो अभी भी पिता मुलायम के बनाए एम वाई समीकरण यानी मुस्लिम , यादव वोटर पर ही आश्रित हैं। तब जब कि युद्ध की दुनिया अब बदल चुकी है। चाहे किसी देश से युद्ध हो , किसी चुनाव का युद्ध हो। सब का गणित , सब की रणनीति और तकनीक बहुत बदल चुकी है। निरंतर बदलती जा रही है।
एक समय कांग्रेस में एक कोषाध्यक्ष थे सीताराम केसरी। बिहार से आते थे पर दिल्ली में उन की बादशाहत थी। बाद में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हुए। बतौर अध्यक्ष उन का कार्यकाल बहुत कम समय का था। और उन की बेइज्जती भी बहुत हुई। कांग्रेस कार्यालय से उठा कर फेंके गए थे। सोनिया गांधी ने फिंकवा दिया , कुर्सी सहित। वह कुर्सी पर बैठे रहे और कुर्सी पर बैठे-बैठे ही कांग्रेस दफ्तर से उठा कर फेंक दिए गए। पर जब कोषाध्यक्ष थे तब इंदिरा जी का राज था। कांग्रेस का स्वर्णिम काल था। तब कहा जाता था कि न खाता , न बही , केसरी जो कहे , वही सही। अब तो तमाम ओपिनियन पोल , एक्जिट पोल आदि की बहार है। पर तब सीताराम केसरी अकेले दम पर चुनाव परिणाम आने के पहले ही बता देते थे कि कांग्रेस की इतनी सीट आ रही है। और जब चुनाव परिणाम आता था तो लगभग सीताराम केसरी के अनुमान के अनुरुप ही आता था। एक बार सीताराम केसरी से पूछा गया कि आखिर कैसे इतना सटीक अनुमान आप लगा लेते हैं। केसरी ने बताया कि सभी उम्मीदवारों को पोस्टर , बैनर , बिल्ला , पैसा आदि देता हूं। कई राउंड में देता हूं। पहले राउंड के बाद जो उम्मीदवार यह सब लेने नहीं आता है तो समझ जाता हूं कि पट्ठा चुनाव जीत रहा है , इस सब के लिए उस के पास टाइम नहीं है। फाइनल है इस का। कुछ उम्मीदवार दूसरे राउंड में आते हैं ई सब मांगने तो उस को सेमी फाइनल में मान लेता हूं। और जो तीसरे राउंड में भी आ जाता है तो मान लेता हूं कि यह हार रहा है। जो चौथे राउंड में भी आ जाता है तो जान जाता हूं कि इस की ज़मानत ज़ब्त हो रही है। यह चुनाव नहीं लड़ रहा है , सिर्फ चंदा , पोस्टर बटोर रहा है। तो इसी लिए हमारा अनुमान सटीक बैठ जाता है।
तो क्या आज भी सीताराम केसरी का अनुमान चल सकता है ? बिलकुल नहीं। अब तो हर बार , हर क्षेत्र का पैटर्न बदल जाता है। इसी बार किसी क्षेत्र में कुछ चलेगा , किसी क्षेत्र में कुछ और। तो बताऊं आप को मैं सीताराम केसरी नहीं हूं। न किसी पार्टी का कोषाध्यक्ष आदि। न किसी पार्टी का समर्थक। पर चुनाव परिणाम के अनुमान और आकलन मेरे भी अमूमन सही साबित होते रहते हैं। क्यों कि मैं अपने वामपंथी साथियों की तरह अपनी मनोकामना नहीं लिखता। जनता के बीच रहता हूं। एकदम अनजान लोगों से भी बातचीत करता रहता हूं। सभी धर्म , सभी जातियों , सभी वर्ग से संपर्क रखता हूं। गांव , गली , शहर , महानगर , हर कहीं के लोगों का मन थाहता रहता हूं। संतरी से लगायत मुख्य मंत्री , प्रधान मंत्री तक के मनोविज्ञान को पढ़ना जानता हूं। बनते-बिगड़ते सामाजिक और जातीय समीकरण की थाह भी लेता रहता हूं। फिर बिना किसी पूर्वाग्रह के समय की दीवार पर लिखी इबारत में बिना कोई मिलावट या संपादन किए जस का तस बांच देता हूं।
नरेंद्र मोदी जब 2014 में हाहाकारी जीत दर्ज कर प्रधान मंत्री बने तो आप क्या समझते हैं कि सिर्फ मनमोहन सिंह सरकार की निकम्मई और भ्रष्टाचार के बूते ? अन्ना आंदोलन के बूते ? बिलकुल नहीं। याद कीजिए उन दिनों एक भाजपा को छोड़ कर देश की सभी पार्टियां मुस्लिम तुष्टिकरण की खेती में लगी थीं। मनमोहन सिंह ने तो बतौर प्रधान मंत्री यह तक कह दिया कि देश के सभी संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक़ है। दूसरे उन दिनों पूरी दुनिया भर में इस्लामिक आतंक अपने चरम पर था। देश में भी लोग जगह-जगह आतंकी कार्रवाइयों से त्राहिमाम कर रहे थे। जब देखिए , जहां देखिए बम विस्फोट हो रहा था। कचहरी में , बाज़ार में , मंदिर में , स्टेशन पर। हर कहीं। बाटला हाऊस हो रहा था। पर निशाने पर आतंकी नहीं , पुलिस थी। सलमान खुर्शीद , आतंकियों के लिए सोनिया गांधी का रोना बता रहे थे। क्यों कि वह आतंकी मुसलमान थे। फिर मुंबई में जो 26 /11 हुआ , उस से तो दुनिया दहल गई। पकिस्तान पर कोई कार्रवाई करने के बजाय डोजियर सौंपे जाने लगे। कांग्रेस के एक पॉकेट से तो मुंबई हमले में आर एस एस का हाथ भी बताया गया। अजीज बर्नी नाम के एक सांप्रदायिक पत्रकार ने इस बाबत एक किताब भी लिखी। दिग्विजय सिंह ने इस किताब का विमोचन किया।
अगर कसाब नाम का आतंकी ज़िंदा न पकड़ा गया होता तो अब तक यह सिद्ध हो गया होता कि मुंबई हमला तो संघियों का कारनामा था। हिंदू आतंकवाद , भगवा आतंकवाद का नैरेटिव रचा गया। अभी भी यह प्रलाप जारी है। आप 2002 के गुजरात दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को अभी भी लगाते रहिए फांसी। पर देश ने देख लिया था कि जो आदमी गुजरात में यह मुश्किल ठीक कर सकता है , वह देश में भी ठीक कर सकता है। दंगों के बाद गुजरात के मुसलामानों को तिरंगा ले कर गुजरात में तिरंगा यात्रा निकालते देखा। इस तिरंगा यात्रा में मुसलमानों को भारत माता की जय का नारा लगाते सुना गया। फिर उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के तहत मंडल और कमंडल की दूरी खत्म की भाजपा ने। तब वह 2014 की हाहाकारी जीत भाजपा को नसीब हुई। 2019 में तो पुलवामा को , सर्जिकल स्ट्राइक को , एयर स्ट्राइक को भाजपा का औजार बताया हारने वालों ने। पर क्या सचमुच ऐसा ही था ?
जी नहीं।
पाकिस्तान से अभिनंदन की शानदार वापसी भी फैक्टर थी। पर सामजिक समता के नाम पर पाखंडी नेताओं की पोल खोलते हुए सामजिक न्याय पर भाजपा के शानदार काम ने भाजपा को 2014 से भी बड़ी जीत दिलवाई। 130 करोड़ की आबादी में अगर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन को आप सेक्यूलरिज्म की खोखली खेती में स्वाहा कर देना चाहते हैं तो क्षमा कीजिए आप न भूख जानते हैं , न ग़रीबी। शौचालय , पक्का मकान , उज्ज्वला में आज तक एक रिपोर्ट देखने को नहीं मिली कि फला धर्म या फला जाति या फला क्षेत्र के लोगों को यह सुविधा नहीं मिली। यही सामाजिक न्याय की खेती इस बार 2022 में बाइसकिल के पहियों को फिर बड़ी ताक़त से रोकती दिख रही है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण , काशी में बाबा विश्वनाथ कारीडोर और मथुरा की ओर मुड़ती राह भाजपा के वोटरों के बीच सोने में सुहागा का काम करने वाली है। आप को यह सब नहीं दीखता या किसी और को नहीं दीखता तो वह राजनीतिक रुप से अंधा है। अखिलेश जब सत्ता में थे सिर्फ़ चुने हुए चार-छ ज़िलों में बिजली देते थे। बाक़ी समूचे उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ आठ घंटे , छ घंटे की बिजली थी। पर अब केजरीवाल की तरह 300 यूनिट फ्री बिजली का लालीपाप है। पर यह पब्लिक है , सब जानती है।
मुज़फ्फर नगर का दंगा और कैराना से पलायन का दुःख जानती है। जानती है कि कश्मीर में सेना को लोग अब पत्थर नहीं मारते। कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा अब पूरे शान से फहराते हैं। कैराना को कश्मीर बनने से कौन रोक सकता है बाइसकिल बाबू आप नहीं जानते हैं। हां , कैराना पलायन के मास्टर माइंड नाहिद हसन को टिकट देना ज़रुर जानते हैं। हमारे गांव में भोजपुरी में कहते हैं बड़-बड़ मार कोहबरे बाक़ी। तो अभी सौतेली मां के घाव को देखिए। उस की आह और उस की चाल को देखिए। पिता मुलायम की बद्दुआ और चाचा शिवपाल का अपमान याद रखिए। पिछले चुनाव की तरह यह लोग इस चुनाव में भी सताएंगे। जो अपने बाप का नहीं हो सकता , अपने घर को नहीं संभाल सकता वह देश और प्रदेश को संभालने का सपना देखता है तो ज़रुर देखे। सपने तो मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित पात्र मुंगरीलाल भी प्रकाश झा के निर्देशन में ख़ूब देखता था। नहीं रहे अमर सिंह। होते तो इस मुंगेरीलाल को कोई सपना भी नहीं देखने देते।
मुलायम के पुत्र मोह के बावजूद साधना गुप्ता अपना अपमान नहीं भूलने वाली हैं। अपर्णा विष्ट यादव के पिता पत्रकार हैं। मां अम्बी विष्ट प्रदेश सरकार में अधिकारी हैं। दोनों को ठीक से जानता हूं।अपर्णा के पिता टाइम्स आफ इंडिया में हमारे साथी रहे हैं। तो जानता हूं कि लो प्रोफ़ाइल वाले अरविंद विष्ट और अम्बी विष्ट ने बेटी अपर्णा को कैसे और क्या पढ़ाया , सिखाया है। अपर्णा अखिलेश यादव की तरह हलकी बात करने वाली नहीं हैं। गऊ सेवक हैं। गऊ सेवक वाला धैर्य भी है और विनम्रता भी। भाजपा ज्वाइन करने के बाद दिए गए वक्तव्य में अपर्णा ने पारिवारिक मर्यादा से विमुख न होने की बात कह कर अपनी भावना स्पष्ट कर दिया है। अखिलेश ने भी उन्हें शुभकामना दे कर अपना मुंह छुपाया है। हो सकता है जो अपर्णा यादव सपा में इच्छित स्पेस न पा सकीं वह स्पेस भाजपा में पा लें।
अलग बात है कि अपर्णा यादव के भाजपा में आने को मुलायम के कदाचार को छुपाने से जोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि प्रतीक यादव का जो आर्थिक साम्राज्य है , उसे खंडित होने से बचाने के लिए वह भाजपा में आई हैं। मुमकिन है यह भी। कुछ भी मुमकिन है। वैसे भी अपर्णा के पति प्रतीक यादव फरारी कार में चलते हैं। बताना ज़रुरी है कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में फरारी कार सिर्फ़ दो ही लोगों के पास है। एक सुब्रत रॉय सहारा के पास। दूसरे , प्रतीक यादव के पास। सुनते हैं फरारी कार का एक टायर ही दस-बारह लाख में आता है। पता नहीं हक़ीक़त क्या है। पर साधना गुप्ता और अखिलेश यादव की हक़ीक़त की तफ़सील बहुत हैं। समय-समय पर बताता रहूंगा। अभी तो बिस्मिल्ला है। लिखूं तो अखिलेश यादव और साधना गुप्ता के बीच की संघर्ष कथा की पूरी किताब हो जाए। पारिवारिक संघर्ष , राजनीतिक संघर्ष , आर्थिक संघर्ष और सब से बड़ा अहम का संघर्ष। अभी तक अखिलेश यादव जीतते आए हैं।
अब शायद साधना गुप्ता का समय आ रहा है। अभी तक लोग ट्रांसफर पोस्टिंग , ठेके , पट्टे में ही पैसे का लेन-देन करते रहे हैं। पर कितने लोग जानते हैं कि अखिलेश यादव सरकार में मंत्री बनाने के लिए भी पैसों का लेन-देन होता था। गायत्री प्रजापति जैसे लोग इसी तरह दुबारा मंत्री बने थे। राजा राम पांडेय जैसे लोग करोड़ो रुपए दे कर भी मंत्री पद की प्रतीक्षा करते हुए मर गए। ऐसी अनेक कथाएं हैं। कहा न मुग़लिया सल्तनत में साज़िश की कथाएं फेल हैं , मुलायम परिवार के बीच हुई और हो रही साज़िशों के आगे। शायद इसी लिए पहले कुछ लोग मुलायम को मुल्ला मुलायम कहते थे। अब अखिलेश को भी मुल्ला अखिलेश कहने लगे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा ने जिस तरह टिकट बांटा है , उस में उन का मुल्ला छलक कर सामने आया है। अब अलग बात है कि आजमगढ़-आजमगढ़ का पहाड़ा रटते हुए मैनपुरी से चुनाव लड़ने का फ़ैसला कर लिया है। और बता दिया है कि अखिलेश को सिर्फ़ और सिर्फ़ यादव वोट पर ही भरोसा है। मुस्लिम वोट उन के साथ भले हो मुस्लिम वोट पर वह आंख मूंद कर भरोसा नहीं करने वाले। क्यों कि ऐसा कोई सगा नहीं , जिस को अखिलेश ने ठगा नहीं।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)