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अगर कुंभ जितनी संख्या में अरबी, बंग्लादेसी, या रोहिंग्या इकट्ठे हों तो वे एक दूसरे को ही चबा जाएंगे

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
और इस तरह मात्र चार दिन में, संसार के इतिहास में एक स्थान पर अबतक जुटी सबसे बड़ी भीड़ प्रयागराज से लगभग वापस लौट गयी। किसी एक शहर में पाँच छह करोड़ बाहरी लोगों की भीड़ इकट्ठा होने पर प्रशासन के अतिरिक्त उस शहर के आम लोगों को भी जितनी संवेदना दिखानी चाहिये, उतनी लोगों ने दिखाई भी। यह सुखद है…

तीर्थयात्रियों के सहयोग के लिए आम लोग उतरे। हॉस्टल के छात्र, सामाजिक संगठन, दुकानदार… जिससे जो बन पड़ा उसने वह किया। भोजन, नाश्ता, चाय, पानी, बसेरा, सब ले कर खड़े मिले… यही इस देश का मूल चरित्र है। प्रयाग का महाकुम्भ हो या किसी सुदूर देहाती गाँव का साधारण सा मेला, आम ग्रामीण ऐसे ही मिलते हैं। सहयोग के लिए तत्पर, धन-जन लेकर तैयार… हालांकि फिर भी असंख्य तीर्थयात्री ऐसे रहे होंगे जो जल के लिए तड़पे होंगे, उन तक कोई सहयोग नहीं पहुँचा होगा। सहयोग करने वालों के सामर्थ्य की भी सीमा होती है। लोग लोग ही हैं, देव नहीं हैं।

यह सुनने में अजीब लगेगा, सम्भव है बुरा भी लगे, पर सच है कि जो दुर्घटना हुई उसका होना आश्चर्यजनक नहीं। कोई भी व्यवस्था इतनी बड़ी भीड़ को पूरी तरह नियंत्रित नहीं रख सकती। प्रयाग में जितने लोग थे, उससे अधिक जनसंख्या वाले दुनिया में केवल पन्द्रह बीस देश हैं। शेष सभी देशों की जनसंख्या उस दिन प्रयाग से कम ही थी। ऐसे किसी महाजुटान में अनहोनी होना आश्चर्यजनक तो बिल्कुल नहीं है। हाँ सत्ता को प्रयास करना होगा कि इसकी पुनरावृत्ति न हो। सतर्कता बढ़ानी होगी, तप करना होगा… चूक सुधारनी होगी, कमियों को स्वीकार कर उसे दूर करना होगा। मृत्यु से अधिक भयावह कुछ नहीं होता। जो छूट गए, उनके जाने की टीस उनके परिवार को जीवन भर सालेगी। पर होनी इसी को कहते हैं। ईश्वर मृतक श्रद्धालुओं को मोक्ष दें और दोषियों को दण्ड! एक सामान्य जन इससे अधिक क्या ही कहे…

दुर्घटना से विचलित हो कर श्रद्धालुओं को भी उदण्ड या लापरवाह कहने वाले भी अनेकों लोग मिल जाएंगे, पर मैं उलट सोचता हूँ। मेरे हिसाब से इससे अधिक नियंत्रित भीड़ नहीं मिलेगी दुनिया में। आप कल्पना कर के देख लीजिये कि कहीं इतनी संख्या में अरबी, बंग्लादेसी, या रोहिंग्या इकट्ठे हों तो क्या होगा… वे एक दूसरे को ही चबा जाएंगे। यहाँ वाले फिर भी एक दूसरे की मदद कर रहे थे, खोए लोगों को साथ ले जा कर उनके घर पहुँचा रहे थे।

मेला चल रहा है। बुजुर्ग सास को पीठ पर उठाए चल रही बहुएं भी जा रही हैं, तो नवेली दुल्हन को दुलार के साथ दुनिया दिखाने ले जा रही सास भी। बुजुर्ग दादा की अंतिम बार गङ्गा नहा लेने की इच्छा पूरी करने वाले नाती पोतों की पांति चल रही है, तो दूसरी ओर नन्हे नाती को नहलाने ले गए दादाजी लोग भी पहुँच रहे हैं। सब अपना धरम निभा रहे हैं। गङ्गा मइया में लोग ही नहीं, श्रद्धा के हजारों रङ्ग डुबकी लगा रहे हैं। आस्था की इस रङ्ग बिरंगी फुलवारी को देख कर तृप्त होइये, सीखिए जीवन जीने का ढंग और हृदय में दृढ़ करिए इस भरोसे को कि आधुनिकता की ताप आपकी सभ्यता के मूल भाव को जरा भी नुकसान नहीं पहुँचा सकी है।

कुम्भ में कैलाश चचा की कविता जीवंत उतर रही है। आजी गोड़ रंगा रही हैं, बब्बा देख के मुस्कुरा रहे हैं। दुर्घटनावों के कारण उपजी शोक की लहर लोक का मार्ग नहीं रोकती, जीवन चलता रहता है। जीवन चल रहा है, कुम्भ चल रहा है, कुम्भ का अमृत भी छलक रहा है।
कल्याण हो हमारा आपका, इस देश का, इस सभ्यता का, धर्म का…

साभार:सर्वेश तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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