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साल 2005 में जब रानी मुखर्जी अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थीं, तब वे उज्जैन आई थीं। वहाँ इस्कॉन मंदिर का उद्घाटन कार्यक्रम था। इस्कॉन में परम्परागत रूप से बंगालियों का बड़ा आस्था-निवेश रहा है। रानी के पिता राम मुखर्जी ने झांसी स्थित अपनी पैतृक भूमि इस्कॉन को दान में दे दी थी। रानी की माँ कृष्णा गायिका हैं और वे भजन वग़ैरा भी गाती हैं। इन पारिवारिक सम्पर्कों के चलते रानी को मंदिर के उद्घाटन के लिए बुलाना सम्भव हो पाया था, लेकिन उज्जैन जैसे छोटे शहर में सनसनी फैल गई थी। रानी मुखर्जी आई हैं! तब फ़िल्म उद्योग में उनसे चमकीला चेहरा किसी और अभिनेत्री का नहीं था। वे सम्राज्ञी कहलाती थीं।
साल 2005 में मैं एक कॉलेज छात्र था, अंग्रेज़ी में एमए की पढ़ाई कर रहा था। इस्कॉन मंदिर मेरी यूनिवर्सिटी से बहुत दूर नहीं था। ख़बर मिलते ही हम सब क्लास बंक करके दौड़े। रास्ते में एक हुजूम उमड़ा था। रैला चला जा रहा था। हम नाउम्मीद से मंदिर तक पहुँचे ही थे कि ठीक उसी समय एक गाड़ी हमारे पास आकर रुकी। उसमें से रानी बाहर निकलीं- वही चौड़ी, दन्तुरित मुस्कान लिए। उन्होंने बाहर निकलकर वेव किया। एक शोर बरप उठा। रानी मेरी आँखों के ठीक सामने थीं। मैंने इस चेहरे को असंख्य मर्तबा फ़िल्म के परदे पर देखा था और मन ही मन उससे प्यार किया था। मैं गर्व से भर उठा था कि आधी सदी के बाद किसी को बतलाऊँगा- मैंने रानी मुखर्जी को साक्षात् देखा है!
इस अनुभूति को व्यक्त करने के लिए आपका 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में युवा होना ज़रूरी है। उस समय वह अभिनेत्री हर युवा के सपनों की रानी थीं, जैसे 1980 के दशक में श्रीदेवी थीं, 1990 के दशक में माधुरी।
अभिनय करने वाला कोई कलाकार कैसे अतिशय लोकप्रिय हो बैठता है? अपनी प्रतिभा से, यक़ीनन। अपनी सुन्दरता से, अपने गुणों से, अपने आकर्षण और अगम्यता से। लेकिन सबसे बढ़कर, एक ऐसा तत्व होता है जो उस अगम्य सितारे को सर्वजन से सम्पृक्त कर देता है, उसे अपने ख़यालों के किसी संसार में ‘एक्सेसिबल’ बना देता है। रानी मुखर्जी ने ख़यालों की उस दुनिया में पैठ बना ली थी। वे सुदूर की होकर भी निकटतम थीं, वे अलभ्य होकर भी नेक्स्ट-डोर थीं। रानी जैसी लड़कियाँ तब हर तरफ़ दिखलाई देती थीं, जो उनके निभाये किरदारों जैसा ही जीवन बिता रही होती थीं- बहुधा बहुरंगी बबली-सूट पहने हुए। उन दिनों में वे लोकनायिका बन चुकी थीं।
शुरू-शुरू में किसी को भी इसका अहसास नहीं था। अपनी आरम्भिक भूमिकाओं में वे ‘हॉट-केक’ की तरह प्रस्तुत की गई थीं- ‘आती क्या खण्डाला’ से लेकर ‘हटा सावन की घटा तक’। उनका शरीर गुदाज़ था और उन्हें अपनी जँघाओं और वक्षस्थल की संधिरेखाओं को प्रदर्शित करने से कोई ऐतराज़ नहीं था। उर्मिला मातोंडकर से सवाये वज़न वाली एक और सेडक्ट्रेस- तब सबने मन ही मन सोचा। उनकी आवाज़ फटी हुई थी और उसे शुरुआत में फ़िल्मों के योग्य नहीं समझा गया था, उसे डब कर दिया जाता था। और अलबत्ता रानी फ़िल्मी घराने से आई थीं- मुखर्जी-समर्थ परिवार- जिसकी एक शाखा नब्बे के दशक की शीर्ष अभिनेत्री काजोल में प्रकट हुई थी- फिर भी रानी ने काम करते-करते ही काम सीखा था, उन्होंने ख़ुद को कैमरे के सामने ही खोजा था।
और कैसे खोजा! यह उनकी क़िस्मत थी कि उन्हें ‘कुछ-कुछ होता है’ मिली। उनके व्यक्तित्व में निहित ‘ग्रेस’ उसमें सर्वप्रथम प्रकट हुआ। किसी ने कहा, ‘दिल तो पागल है’ में माधुरी का जैसा आभामण्डल था, वैसा ही उन्हें इस फ़िल्म में दिया गया था। उन्हें हलके रंगों वाले सलवार सूट पहने जिसमें दुपट्टा गले में फँसा रहता। पर प्रोविंशियल भारत की सर्वप्रिय नायिका वो बनीं ‘साथिया’ से, जिसकी प्रेम-विवाह की कहानी तब हर दूसरे दिल में धड़क रही थी। सुहानी- क़स्बाई युवकों ने मन ही मन इस नाम को पुकारा, मुस्कराए और उसके पोस्टर ख़रीद लाए। तीख़े नैन-नक़्श नहीं, कमनीय के बजाय किंचित स्थूल देह, शास्त्रीय मानदण्डों पर खरी सुंदरता नहीं, आवाज़ में स्त्रियोचित कोमलता नहीं- इसके बावजूद सुहानी उन्हें बहुत, बहुत अपनी लगी थी। अपने क़रीब।
फिर वो ‘वीर-ज़ारा’ की शाइस्ता मिज़ाज सामिया सिद्दीक़ी बनीं। ‘बबली’ नाम की ठग-लुटेरन बनीं। ‘पहेली’ की कुँवारी दुल्हन और ‘ब्लैक’ की मूक-एकांतिका। ‘हम-तुम’ की आत्मविश्वस्त, आत्मसंयत रिया, ‘युवा’ की समर्पिता शशि। एक-एक कर फ़िल्में आती रहीं, हर बार दर्शकों को उनसे पहले से ज़्यादा ही प्यार हुआ। वे हर रंग में सराही गईं। एक लहर की तरह तब रानी ने फ़िल्म-संसार को अपने आग़ोश में ले लिया था।
‘युवा’ का एक दृश्य है। लल्लन जेल से लौटा है। शशि के घर जाकर उसे पुकारता है। शशि उसकी आवाज़ सुनते ही पेटी-अटैची बाँधने लगती है। जानती है कि यह पुरुष आदतन अपराधी है, हिंसक है, इससे कोई उम्मीद नहीं, पर माँ-पिता के घर रहने वाली अवाँछित ब्याहता के जीवन से तो वही बेहतर जिसमें प्रेम के कुछ क्षण तो होंगे- कभी नीम, कभी शहद होगा। वो रोते-रोते माँ के पैर छूती हैं, बहन को सहलाती हैं, पिता की अनदेखी कर पति के साथ चली जाती हैं, उसको सौगंध खिलवाकर, रो-गाकर उसको सही रास्ते पर लाने के जतन करती हैं। उस रोल में रानी को देखकर उनसे नज़र नहीं हटतीं। उनमें निहित वल्नरेबिलिटी, चाहना, समर्पण आपको स्तम्भित करते हैं, आप गलने लगते हैं। आपके भीतर उन्हें लाड़ करने की हूक उठने लगती है। रानी की फ़िल्में इस तरह के बेबूझ और इंटेंस दृश्य-बंधों से भरी पड़ी हैं।
रानी की उज्जैन-यात्रा के कुछ ही महीनों के बाद की बात है। टीवी पर फ़िल्मफ़ेयर समारोह चल रहा था। बेस्ट एक्ट्रेस के नॉमिनेशंस हुए। रानी को दो नॉमिनेशन मिले- ‘ब्लैक’ और ‘बबली’। अंत में विजेता की घोषणा हुई। प्रस्तावक ने नाम लिए बिना कहा, “शी इज़ द क्वीन ऑफ़ बॉलीवुड”, और कैमरा रानी के चेहरे पर चला गया। कैमरामैन को पता था, कौन है सम्राज्ञी। मैंने देखा, वही चौड़ी, दन्तुरित मुस्कान, जिसे मैं पहचानता था। लड़कपन से भरी एक स्त्री जिसमें भावनाओं का ज्वार जानता था। रानी स्टेज पर अपना पुरस्कार लेने गईं, मैं उन्हें निहारता रहा। मेरे भीतर गूँजा- “हँसती रहे तू हँसती रहे, हया की लाली खिलती रहे!” और तब, मैंने मन ही मन ख़ुद से कहा- जैसे कि मुझे इस बात पर गर्व हो- कि मैंने रानी मुखर्जी को अपनी आँखों से देखा है!
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)