मैं दिलीप कुमार नहीं मैं युसुफ खान हूँ
तथाकथित सेकुलर कलाकारों द्वारा देश को बदनाम करने की गहरी साजिश ।
Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
पांचवें,छठवें और सातवे के आधे दशक का स्टार, जिसकी फिल्मो में तूती बोलती थी;वो और कोई नहीं बल्कि दिलीप कुमार थे । जिन्होने आगे चलकर लोगों को बालीवुड मे आने के लिए प्रेरित भी किया । देश उनके अभिनय का कायल भी था । कोई ऐसी फिल्म नहीं रही होगी, जिसने बाक्स आफिस में झंडे नहीं गाड़े होंगे । पर इस नायक ने भी क्या किया? जब पाकिस्तान ने अपने यहां का सर्वोच्च पुरस्कार निशाने पाकिस्तान दिया तो भाव विभोर इस कलाकार ने अपने धर्मनिरपेक्षता का जो चोला तीन दशकों तक पहने रखा,उसे एक झटके में उतार फेंका । फिर उस दिन उसने अपनी पहचान बताना चालू किया “मैं दिलीप कुमार नहीं, मै युसुफ खान हूँ”। दिलीप कुमार शायद पाक अवाम को दिखाना चाहते थे कि मैं आप लोगों का ही आदमी हू ।
वैसे भी इस कलाकार को यह समझ लेना था कि जो देश मजहबी बुनियाद पर बना है, वो इतना बड़ा पुरस्कार देने के पहले, उसने कुंडली खंगालने का काम कर लिया होगा । तभी पुरस्कार के लिए चयन किया गया होगा । दिलीप कुमार युसुफ खान है, वैसे ही लोगों को पता था। पर यह युसुफ खान दिलीप कुमार तभी तक था जब तक व्यवसायिक हित सध रहे थे ।
पता नहीं कितने कलाकारों ने नाम बदलकर काम किया, उसकी एक बहुत बडी लिस्ट है । क्या इन लोगों ने ऐसा कर लोगों को धोखा नहीं दिया? यह भी एक अनुत्तरित प्रश्न है । जिन्होने अपने मूल नाम से काम किया, उनको भी देश ने काफी सराहा ।
सबसे ज्यादा अगर किसी को प्यार मिला है, वो है अमर गायक स्व.मोहम्मद रफ़ी । जैसी आवाज़ वैसे ही शख्स थे मोहम्मद रफ़ी । आज भी लोगों के दिलों में राज कर रहे हैं । यही कारण है कि लोग बीच बीच मे उन्हे भारत रत्न देने की मांग भी करते रहते है ।
एक कलाकार और चर्चा में आया, वो और कोई नहीं बल्कि नसरूद्दीन शाह थे । उनके लिए 2014 तक यह देश सेकयूलर था । पर एनडीए की सरकार आने से उन्हे काफी परेशानी महसूस होने लगी । यही कारण था कि उन्होंनें अनुपम खेर जैसे कलाकार की जबरदस्ती आलोचना करनी शुरू कर दी, जिसका मुंह तोड़ जवाब खेर जी ने भी दे दिया । तब जाकर लोगों को पता चला कि नसरूद्दीन शाह महोदय नशा भी करते है । जब ये ऐसा बोलते है तो और ज्यादा एक्सपोज होते हैं । इन्हे भी डर लग रहा है । नसरूद्दीन वो कलाकार है जिसने सेवन वेडनेसडे में आतंकवादीयों को मारा था। उसी दिन बोलना था कि मै शांति प्रिय मसीहाओ को नहीं मार सकता । पर यह उनके लिए सिर्फ अभिनय था ।
इन लोगों को उस दिन बिल्कुल डर नहीं लगा, जब अजमल कसाब और उनके साथियों ने घूम घूम कर मुंबई में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया । इन्हे उस दिन भी डर नहीं लगा, जब मुंबई में रेलवे के बोगियों मे सीरियल बम धमाके हो रहे थे । क्योकि आम जनता मरे तो उन्हे क्या लेना देना । इन्हे तब भी डर नहीं लगा जब दो साधुओं को महाराष्ट्र के पालघर में भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला । इन्हें डर इसलिए नही लगा क्योंकि महाराष्ट्र में इनके पसंद की सरकार है?
ये वही लोग हैं,जो अब तक सुशांत सिंह राजपूत के डैथ मिस्ट्री पर खामोशी की चादर ओढ़े, बेशर्मी से खड़े है । कुछ नहीं, इनका डर व्यवसायिक और राजनीतिक ज्यादा है । इन डरे लोगों ने ही एक नहीं दो दो शादीयां हिंदू समुदाय से की है । तब इन्हे डर नहीं लगा ? डर लगा इनके मेहरारू को वो भी तीस साल बाद ! यही कारण है कि लोगों ने अच्छी पिक्चर होने के बाद भी बायकाट का फैसला लिया है ।
इन तथाकथित सेकुलर कलाकारो का यह कदाचार देश में सांप्रदायिक सौहार्द खराब करने और अपने राजनीतिक मकसद के लिए देश को बदनाम करने की साजिश से कम नहीं है । क्या इन लोगों ने बैंगलोर घटना की भर्त्सना की ? नहीं। अपने राजनीतिक एजेंडा के तहत कुछ मामलों तक ही इनकी प्रतिक्रिया रहती है ।
भारत वही इस देश है जिसन नौशाद साहब को, उनके संगीत को, सर आंखों पर लिया है । आज भी इनके भजन और गाने लोगों को आल्हादित कर देते है । क्या कारण है कि ये लोग कभी किसी विवाद में नही पड़े ? बस इतना ही । क्रमशः
लेखक डा.चंद्रकांत वाघ-अभनपूर (ये लेखक के अपने विचार हैं)