आदि शङ्कराचार्य पर फ़िल्म ने चार-चार नेशनल अवार्ड कैसे जीत लिए ?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
भगवान-भाष्यकार आद्य शङ्कराचार्य के जीवन पर एक फ़िल्म संस्कृत में बनाई गई है (जी हाँ, संस्कृत में भी सिनेमा बनाया जाता है!)। यह वर्ष 1983 में प्रदर्शित हुई थी। फ़िल्म महाकाव्यात्मक फलक की है और इसमें शङ्कर के जीवन से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों का समावेश किया गया है। दो घंटा चालीस मिनट की फ़िल्म लगभग पूरे समय स्तोत्रों और ऋचाओं के पाठ से गूँजती रहती है। इसका समग्र परिवेश ही वैदिक है। आश्चर्य है कि लैंडस्केप में भी मध्यकालीन भारत की छटा चली आई है। यह निर्दोष-दृश्यालेख भूमण्डलीकरण के पूर्व के भारत में ही सम्भव हो सकता था!
शङ्कर के जीवन के बारे में जानने के दो ही प्रामाणिक स्रोत हैं- एक तो माधवाचार्य का ‘शङ्कर-दिग्विजय’ और दूसरा आनंदगिरि का ‘वृहत्-शङ्कर-विजय’। आदिगुरु के बारे में समस्त उत्तरवर्ती सूचनाओं का स्रोत ये ही दो ग्रंथ हैं। फ़िल्म की कथावस्तु भी इन्हीं से प्रेरित है। चूंकि उपरोक्त दोनों ग्रंथों की शैली रूपकात्मक है, इसलिए फ़िल्म के कथादेश में भी वही छटा चली आई है। जैसे, प्रज्ञा और मृत्यु का मनुष्य-रूप में पूरे समय शङ्कर के साथ चलना, पूर्णा नदी में भगवा वस्त्र के शोध में शङ्कर का दूर तक चले जाना, अग्निशिखा देखकर शङ्कर के पिता शिवगुरु को मृत्यु-संस्कार का बोध होना, काक और कपोत में बालक शङ्कर को ‘द्वा सुपर्णा’ के दर्शन होना, माहिष्मती नगरी के शुक में आत्मचेतना दर्शाया जाना आदि-इत्यादि। फ़िल्म का बड़ा हिस्सा केरल के हरीतिमा-प्रदेश, अजंता की गुफाओं और चैत्यालयों, महेश्वर के घाटों और उत्तराखण्ड के देवप्रयाग में फ़िल्माया गया है।
फ़िल्म के केंद्र में दो दृश्य हैं- प्रयाग में आत्मदाह कर रहे कुमारिल भट्ट से शङ्कर का भेंट करना, उन्हें ब्रह्मसूत्र का अपना भाष्य दिखलाना और उसे देखकर कुमारिल का शङ्कर से आग्रह करना कि वे मण्डन से शास्त्रार्थ करें। यह दृश्य फ़िल्म ही नहीं, भारत के इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है। शङ्कर ने सनातन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा भारत में की थी। बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था किंतु कालान्तर में तथागत के धम्म में दोष चले आए थे। फ़िल्म का आरम्भिक दृश्य ही यह है कि पूर्णा नदी में कुछ हिन्दू धर्मावलम्बी सूर्य को अर्घ्य दे रहे हैं और ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ का उद्घोष उनकी उपासना में व्यवधान उत्पन्न कर देता है।
बौद्ध धर्म लोकाभिमुख नहीं था। भारत की चेतना के साथ उसकी संगति नहीं बैठती थी। उसका स्वरूप व्यक्तिवादी था, भारत की चेतना समुदाय में बसती थी। उसका अभिप्रेत शून्यवादी था, भारत को पिण्ड से अनुराग था। वह अनित्य-अनात्म की बात करता था, जबकि भारत की चेतना ‘भजगोविन्दम्’ के लिए विकल थी। शङ्कर ने भारत को यह बोध कराया कि उसे सनातन की ही शरण में जाना होगा। किंतु बौद्धों को पराजित किए बिना यह मनोवैज्ञानिक विजय सम्भव नहीं थी। इसमें शङ्कर की मेधा यह है कि उन्होंने सनातन परम्परा का परिमार्जन और उसमें अनेक रचनात्मक सुधार करते हुए ऐसा कर दिखाया।
शङ्कर को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ और बुद्ध को ‘प्रच्छन्न वेदान्ती’ कहने वाले कम नहीं हैं। शङ्कर वैदिक धर्म का प्रसार करने निकले थे, किंतु उनकी प्रविधि औपनिषदिक थी। वेद और उपनिषद् के बीच के भेद कोे डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने रेखांकित किया है। वे यह भी बतलाते हैं कि आधुनिक मानस वेद के बजाय उपनिषद् की ओर अधिक खिंचता है, जबकि वेदान्त का मूल तो वेद में ही है। वेद की मूल आस्थाओं पर बुद्ध ने प्रहार किए थे, किंतु उनकी भी तत्व-मीमांसा औपनिषदिक ही थी। शङ्कर ने इसे समझ लिया था। कर्म-मीमांसा से बात नहीं बनेगी, ज्ञान-मीमांसा की ओर जाना होगा और बौद्धों को उन्हीं के अखाड़े में परास्त करना होगा- यह परख लेना ही शङ्कर की मेधा थी।
जब शङ्कर प्रयाग में कुमारिल से आशीष लेकर मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त करने को उद्यत होते हैं तो वे प्रकारांतर से यह स्थापित कर रहे होते हैं कि अब कर्मकाण्ड के बजाय ज्ञानकाण्ड को महत्व देना होगा। मण्डन कर्मकाण्डी और मीमांसक थे। शास्त्रार्थ में उनकी पराजय ने अद्वैत-वेदान्त का पथ-प्रशस्त किया। पूर्व-मीमांसा की केंद्रीयता समाप्त हुई और उसका स्थान उत्तर-मीमांसा ने लिया। कालान्तर में अद्वैत के प्रतिकार में द्वैतवादियों के आंदोलन सामने आए, जो अपने स्वरूप में वैष्णवी थे। इससे यह हुआ कि महायान और वज्रयान पृष्ठभूमि में चले गए, और इसके स्थान पर द्वैत-अद्वैत, वेद-उपनिषद्, कर्म-ज्ञान, शैव-वैष्णव के संदर्भों की भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठा हुई। हिन्दू धर्म में नई प्रयोजन-भावना निर्मित हुई। यही शङ्कर की दिग्विजय थी।
फ़िल्में पुस्तक की तरह भाषा का व्यवहार नहीं करतीं। फ़िल्म की भाषा दृश्यों से बनती है। आदि शङ्कराचार्य के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म का सम्यक रसास्वादन भी तभी किया जा सकता है, जब आपको भारत के इतिहास के उन संदर्भों का महत्व पता हो, उसके अभाव में फ़िल्म केवल दृश्यों का एक अनुक्रम बनकर रह जाएगी। किंतु उसका छायांकन बहुत सुंदर है और रंग उसमें बहुत निखरकर आए हैं। केंद्रीय भूमिका में सर्वदमन बैनर्जी का मार्मिक अभिनय है।
यह फ़िल्म जी.वी. अय्यर ने बनाई थी। वे दार्शनिक विषयों पर सिनेमा बनाने के लिए विख्यात थे। उन्होंने संस्कृत में ही ‘भगवद्गीता’ नामक फ़िल्म भी बनाई है। कन्नड़ में उन्होंने ‘मध्वाचार्य’ और तमिल में ‘रामानुजाचार्य’ पर फ़िल्में बनाई हैं। हिंदी में उन्होंने ‘स्वामी विवेकानन्द’ पर फ़िल्म बनाई, जिसमें मिठुन चक्रवर्ती ने परमहंसदेव की भूमिका निभाकर राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। फ़िल्म ‘आदि शङ्कराचार्य’ ने भी 1983 के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ पटकथा, सर्वश्रेष्ठ छायांकन और सर्वश्रेष्ठ ध्वनिमुद्रण के पुरस्कार जीते थे। चार-चार राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली यह फ़िल्म है, किंतु पता नहीं कितनों ने यह देखी होगी या इससे वे परिचित होंगे। इसका निर्माण राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम ने किया था।
जब फ़िल्म के क्रेडिट्स रोल हो रहे थे तो उसमें विशेष परामर्शदाता के रूप में उज्जैन के आचार्य श्रीनिवास रथ का नाम देखकर गौरव का अनुभव हुआ और उनके सान्निध्य में बिताए दिनों की याद हो आई। फ़िल्म में निर्देशक जी.वी. अय्यर ने भी एक छोटी-सी भूमिका निभाई है। महर्षि व्यास के वेश में वे शङ्कर से ब्रह्मसूत्रों का तत्त्व-ज्ञान लेने आते हैं। व्यास भारतीय परम्परा में कथावाचक के रूप में प्रथम-स्मरणीय हैं। निर्देशक द्वारा स्वयं को फ़िल्म में व्यास के रूप में प्रस्तुत करना तब एक सुंदर काव्य-न्याय जैसा ही मालूम होता है!
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