सोनागाछी नाम क्यों पड़ा कलकत्ता की इस बदनाम बस्ती का ?
-संदीप तिवारी "राज" की कलम से-
Positive India:संदीप तिवारी “राज”:
सोनागाछी में सोने का गाछ यानी पेड़ न कभी था, न आज है…फिर भी नाम सोनागाछी(Sonagachi) है। कुछ बुजुर्गों का कहना है कि पुराने जमाने में यह जगह सोने के गहने-जेवर बनाने-बेचने की पूर्वी भारत में एक बड़ी मंडी थी और तब के हिसाब से यहां बहुत निपुण स्वर्णकार बसते थे…बृहत्तर सोनागाछी इलाके में आज भी सोना-चांदी की कुछ दुकानें हैं, पर सोने की मंडी के रूप में सोनागाछी कोलकाता महानगर में भी मशहूर नहीं है।
पुराने जमाने की सोने की मंडी बताने वाले बुजुर्गों का खयाल है कि दूर-देहात से आनेवाली भोली और सोने की लोभी सुंदर औरतों को ऐय्याश किस्म के स्वर्णकार और दूसरे लोग बहका लिया करते थे। धीरे-धीरे यह आम बात हुई और सोनागाछी ऐय्याशी की छोटी-मोटी मंडी बन गई। लेकिन कंचन और कामिनी के संयोग से पैदा हुई सोनागाछी के लिए इतिहास की कोई गली नहीं खुलती…इसे लोक-लोक की बात ही कह सकते हैं।
फिर सोनागाछी नाम क्यों पड़ा इस बदनाम बस्ती का…? एक थीं देवी सोना गाजी। उनकी सोनागाछी में मजार भी है। वे इतनी मशहूर हुईं कि इस इलाके का नाम ही उनके नाम पर हो गया। यानी सोना गाजी से सोनागाछी। बहरहाल, इतिहास में झांकते हैं तो पाते हैं कि मनोरंजन के आधुनिक साधनों से दूर 18वीं-19वीं सदी के अंग्रेजी भारत में कलकत्ता का मुख्य मनोरंजन केंद्र थी सोनागाछी। पानी के जहाज से आने वाले सात समुंदर पार के लोगों का भी मन बहलाती थी सोनागाछी। हुगली की लहरों पर चांदनी रात में हिचकोले खाती नौकाओं पर अंग्रेज साहबों का साथ देती थी यह सोनागाछी। बड़े-बड़े जमींदारों, सेठ-साहूकारों, उनके बिगडै़ल लाडलों, रईसों के पहलू में भी थी सोनागाछी। पर तब ये आम ग्राहक की नहीं थी, जैसी कि आज नजर आती है।
असल में सोनागाछी के विकास में बंगाल के अकाल, ऐतिहासिक बंगभंग और फिर पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक हिस्से के चले जाने का बड़ा हाथ है… बड़ा हाथ है पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के आज़ाद मुल्क बंगलादेश बनने का भी…
नजीर के तौर पर 1980-81 में सोनागाछी आई संध्या डे की दास्ताँ ही देखें…बंगलादेश के जैसोर जिले में केशवपुर थाने के तहत एक गाँव है- मध्यकुल ग्राम… संध्या इसी गाँव की बेटी है… जब वह 13-14 साल की हुई तो उसके पिता सुधीर डे को डर लगा कि बेटी की इज्जत खतरे में है… कभी भी कोई उसे छीनकर ले जा सकता है…संध्या के पिता ने उसे उत्तर चौबीस परगना के हाबरा में नाना-नानी के पास पहुंचा दिया…
एक दिन शेफाली दी नाम की महिला ने गाँव की सीधी-सादी संध्या को कलकत्ता घुमाने का बहाना बनाया और पहुंचा दिया उसे सोनागाछी… संक्षेप में संध्या के सोनागाछी पहुँचने की यही दास्ताँ है…ऐसी सैकड़ों-हज़ारों संध्याओं से अटी पड़ी है सोनागाछी… और, अभी तो इस की हालत नो वैकेंसी या हाउस फुल जैसी है…
इतिहास की पगडण्डी पर और पीछे चलते हैं तो 1911 की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट बताती है कि तब कलकत्ता में 14 हज़ार 271 महिलायें जिस्म के पेशे(Prostitution)में थीं… इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तब कलकत्ता की कुल स्त्रियों में से जिनकी उम्र 20-40 साल की है, हर 12 वीं स्त्री जिस्म बेचती है…
सोनागाछी का मतलब है-
इस आग के दरिया में डूब ही जाना है…!!!
साभार:संदीप तिवारी “राज” की सोनागाछी से विशेष रपट ।