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व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते आलोचनाओ को देशद्रोह कैसे कहा जा सकता है ?

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Positive India:Dr Chandrakant Wagh:
आज हम कैसे लिखें और कैसी आलोचना करे, यह विषय बहुत महत्वपूर्ण होता जा रहा है। शायद अभी आलोचना को राष्ट्रद्रोह का नाम देकर वैधानिक रूप से प्रताड़ित किये जाने की संभावना है । आप राजनीतिक आलोचना नहीं कर सकते, आप न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी नहीं कर सकते । लोकतंत्र में हम शायद कम्युनिस्टतंत्र की तरफ कूच कर रहे है।

जब नेता देश के विरुद्ध खुले आम बोलते है, पर हमारा सर्व मान्य कानून खामोशी अख्तियार किये रहते है, न प्रशासन संज्ञान मे लेता है, न न्यायालय । जब विश्वविद्यालय से देश तोड़ने वालो नारों पर लगी धाराओ को अनुमति के लिए न्यायालय ही बाट देखते रह गया ?

देशद्रोह है क्या, यह समझना जरूरी है। जहां देशद्रोह हो रहा है, वहां कानून खामोश है । एक नहीं ढेरों उदाहरण है, जिसे मै रखने वाला हूं । पर तब आश्चर्य और दुख होता है जब व्यक्ति विशेष की आलोचना को देशद्रोह का नाम दिया जाता है।

अगर कोई किसी राज्य शासन की आलोचना करे, कोई मुख्यमंत्री की आलोचना करे, कोई किसी पार्टी के प्रमुख की आलोचना करे, तो यह आलोचना कैसे देशद्रोह के परिधि में आयेगा, यह समझ पाना मुश्किल है । व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते इन आलोचनाओ को देशद्रोह कैसे कहा जा सकता है ?

एक तरफ कुछ लोग बाहर जाकर प्रधानमंत्री की आलोचना कर सकते हैं; कुछ लोग तो प्रधानमंत्री को सत्ताचयुत करने के लिए दुश्मनों से सहयोग तक की बात करते है। तब लोग इनके मानसिक दिवालियापन की सीमा से भी परिचित होते हैं।

एक राज्य के तीन पीढ़ियों से मुख्यमंत्री रहे लोग भी चीन से उम्मीद करने लगे, तो ये देशद्रोह नहीं तो और क्या है? परंतु अफसोस किसी भी एक नेता ने यह नहीं कहा कि देशद्रोह यह होता है ।

दुर्भाग्य से राजनीति को एक तरह से पुश्तैनी व्यवसाय में तबदील किया गया है। फिर इस पद पर किसी दूसरे का आरूढ होना गंवारा नहीं होता । पहली बार देश में नेता देखकर चुनाव के परिणाम आने लगे ।

मीडिया के कारण जागरूकता भी काफी आई है। यही कारण है कि राष्ट्रवादी दलो के नेताओं के आचरणो को भी देश के जनमानस ने सिरे से खारिज किया है ।

राजनीति के गलियारे में बैठे व्यक्ति और उनके रिश्तेदार कुछ भी कह ले, लोगों की भावनाओं को आहत कर ले, तब यह कानून और संविधान सब मौन रहते है। आखिर क्यो? पर एक सामान्य नागरिक आक्रोश मे आकर देश नहीं पद नहीं सिर्फ उस व्यक्ति की आलोचना कर दे, तो वह कैसे देशद्रोह हो सकता है? यह एक तरह से राजनीति मे सहनशीलता की कमी हो रही है, यह उसका धोतक है ।

अभी पिछले कुछ समय से एक चैनल और प्रदेश की लड़ाई हर बार न्यायालय के चौखट मे आकर ही रूक रही है । दोनों ने अपने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश या रोक इसका हश्र हमनें आपातकाल के बाद देखा है ।

लोकतंत्र की खूबसूरती है कि स्वस्थ आलोचना का सम्मान करे । यही राजनीति , नेताओं व देश के स्वास्थय के लिए अनुकूल है। राजनीति करनी है तो अपनी आलोचना को तवज्जों देनी होगी । कोई जरूरी नहीं है कि सत्ता में बैठे व्यक्ति हर काम सही और इमानदारी से करते है।

आज जो भी भ्रष्टाचार, बलात्कार की घटनाओं के बारे मे तभी पता चल पाता है जब वहीं के लोग इन मुद्दों पर बात करते है और राजनीति करते है। यही कारण है कि मीडिया ने भाभी को भी ढूंढ लिया । एक आम आदमी या नागरिक के मौलिक अधिकार मे आलोचना का अधिकार जरूरी है। बस इतना ही
डा . चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ-अभनपूर (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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