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आप कितना जानते हैं झिझिया अथवा झिझरी के बारे में?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
चैत्र नवरात्रि की महाअष्टमी है आज। निकट ही दुर्गा मंदिर है। ज्यादा नहीं दो दशक पहले मुझे याद है घर के लोग बच्चों को घर से बाहर निकलने से पहले गले में लहसुन की माला डालना नहीं भूलते थे। इस दशक के बच्चे तो शायद ये बातें जानते भी न हों। पर तब सबको मालूम था कि तंत्र साधना से बुरी शक्तियां सिद्धि प्राप्त करती हैं, महाअष्टमी की रात में ही। यद्यपि शारदीय नवरात्रा की महाअष्टमी की रात ऐसी सिद्धियां प्राप्त करने के लिए सबसे उपयुक्त कही जाती है।

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डांडिया सबको मालूम है। झिझिया शायद ही किसी को मालूम। गुजरात विकास कर गया तो डांडिया की ब्रांडिंग बॉलीवुड होते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंची। लेकिन उत्तर-पूर्वी राज्य पिछड़े बिहार के मिथिलांचल का झिझिया दिनोंदिन जैसे विलुप्त होता चला गया। तंत्र साधना कर सिद्धि प्राप्त कर चुकी बुरी शक्तियों के विरुद्ध झिझिया का प्रचलन हुआ। सिद्धि प्राप्त करने के क्रम में डायनें श्मशान में महाष्टमी की रात को ही नृत्य करती हैं। और झिझिया इसी नृत्य के विरुद्ध आया।

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झिझिया बस एक नृत्य नहीं है। इसमें गीत भी है। लोकनृत्य और लोकगीत दोनों साथ-साथ। इसमें मनोविनोद भी है और भय भी। इसमें दुस्साहस भी है और दुत्कार भी। बुरी शक्तियों के खिलाफ एक लड़ाई और कल्याण की भावना भी। कुंवारी कन्याएं पूरे श्रृंगार में अपने माथे पर बिड़वा डालकर, कई छिद्रों से बने मटके रखकर समूह में नृत्य गायन के लिए सड़कों पर निकलती हैं। ब्रह्म बाबा का आश्रय लेकर गायन आरंभ करती हैं। यह गायन और नृत्य लोकचेतना का एक स्वाभाविक समूह होता है। आज के वक्त में समूहें नियोजित होती हैं, स्क्रिप्टेड-प्लॉटेड। कोई स्क्रिप्टेड, प्लॉटेड या नियोजित समूह सामूहिकता का असल निहितार्थ खो देता है। एकात्मकता का भाव खो देता है। जो एकात्म भाव हमारे ग्रामीण समाज का प्राण होता है।
डांडिया का स्तर भले ऊंचा हो गया हो, लेकिन असल निहितार्थ बहुत पीछे छूट चुका है। सब कुछ प्रायोजित-सा होने लगा है। डांडिया की ट्रेनिंग होने लगी है।

झिझिया नृत्य में माथे पर रखे मटके को बिना हाथ से पकड़े नृत्य करना होता है। रात का वक्त होता है। मटके में दीया रखा होता है। मटके के बहुत सारे छिद्रों से उस दीये का प्रकाश निकलता रहता है। मां बताती हैं कि माथे पर मटका रखकर लगातार नृत्य करते रहना होता है। स्थिर नहीं होना है। नहीं तो डायन मटके के उन छिद्रों को गिन ले, तो नृत्य करने वाली कन्या की मृत्यु हो जाएगी। यह बात सामूहिक नृत्य कर रही कन्याओं को विनोद, उत्साह, नृत्य और गायन के साथ स्वयं में साहस विकसित करने का एक अतिरिक्त संदर्श देता है।

कल्याण भाव से ब्रह्म बाबा का आश्रय लेकर बुरी शक्तियों के खिलाफ डायनों को चुनौती देने का काम झिझरी का सबसे अंतिम हिस्सा होता है। गीत है, “तोहरे भरोसे बरहम बाबा झिझिया बनेलीयय हो।” दैनिक भास्कर ने पिछले माह मिथिलांचल के मधुबनी में पुलिस प्राइड अवार्ड कार्यक्रम का आयोजन किया था। झिझिया लोकनृत्य से कार्यक्रम का आरंभ हुआ तो खबरें मुझ तक भी पहुंची। आधुनिकता के इस दौर में लोकगायन और लोकनृत्य के प्रति मेरे मन में जैसे सहानुभूति सा भाव है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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