Positive India:Diwakar Muktibodh:
अठारहवीं लोकसभा के पहले चरण के मतदान के लिए अब चंद घंटे ही शेष हैं। 19 अप्रैल को 21 राज्यों के 102 सीटों पर मतदान होगा। ये चुनाव पिछले तमाम चुनावों की तुलना में अधिक संघर्षपूर्ण एवं आत्मकेन्द्रित होने के साथ ही देश की राजनीति की नई दिशा भी तय करते नजर आएंगे। इस बार के चुनाव मुख्यतः ईडी की अति सक्रियता, दुर्भावना के साथ विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस को सभी तरफ से घेरने की क़वायद, एक मुख्यमंत्री को चुनाव प्रचार के मौलिक अधिकार से वंचित रखने की कोशिश तथा भाजपा के पक्ष में व्यापक दलबदल की मुहिम के रूप में याद रखा जाएगा। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि प्रवर्तन निदेशालय द्वारा शराब नीति प्रकरण के मामले में पिछले कई दिनों से जेल में बंद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी क्या मौन क्रान्ति का सबब बनेगी ? क्या इस तरह की अनेक घटनाओं से देश की राजनीतिक स्थितियों में कोई बदलाव आएगा ? इस संदर्भ में वर्ष 1977 को कैसे भुलाया जा सकता है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपात काल को समाप्त करने के साथ ही इस विश्वास के साथ चुनाव करवाए थे कि कांग्रेस को प्रचंड बहुमत प्राप्त होगा. लेकिन क्या हुआ ? कांग्रेस चुनाव हार गई तथा अपनी गिरफ्तारी के बाद इंदिरा गांधी को शाह आयोग का सामना करना पडा। अरविंद केजरीवाल, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, आम आदमी पार्टी के बड़े नेता मनीष सिसोदिया, संजय पांडे, सत्येंद्र जैन, भारत राष्ट्र समिति की के.कविता सहित दर्जनों ऐसे नाम हैं जिनके खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामलों में ईडी ने कार्रवाई की तथा उन्हें जेल में डाल दिया गया। देश के राजनीतिक इतिहास में यह पहला उदाहरण हैं जब एक मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के पूर्व गिरफ्तार किया गया हो, उन्हें इस्तीफा देने बाध्य किया जा रहा हो, उन्हें जेल से किसी तरह शासन चलाना पड़ रहा हो तथा विपक्ष के अनेक नेताओं को ऐनकेन प्रकरेण केन्द्रीय सत्ता के सामने घुटने टेकने विवश किया गया हो। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी शासन काल 2014 से 2022 के बीच ईडी ने 121 प्रमुख राजनेताओं पर कार्रवाई की जिसमे 115 विपक्ष के नेता थे यानी 95 प्रतिशत मामलों में ईडी के निशाने पर विपक्षी नेता रहे। एक अन्य रिपोर्ट यह बताती है कि किस तरह इस केन्द्रीय जांच एजेंसी का दुरुपयोग किया जा रहा है। आंकड़ों के अनुसार 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री के रूप में सत्ता की कमान हाथ में लेने के बाद ईडी ने तीन हजार से अधिक मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में छापामारी की किंतु वह सिर्फ 54 मामलों में ही सजा दिला पाई। इसे क्या कहा जाए ?
इन दिनों देश में जो राजनीतिक परिस्थितियां हैं , क्या वे यह संकेत दे रही हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद अधिनायकवाद की जकड़ अधिक मजबूत हो जाएगी ? इस तरह का वातावरण तो आपात काल के दौरान भी नहीं था। उस दौर में भी विपक्ष के नेताओं की राजनीतिक गिरफ्तारियां हुई थीं, उन्हें जेल में डाला गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी छिन ली गई फिर भी आम लोगों में भय का वातावरण नहीं था, ईडी, सीबीआई , आयकर विभाग सरीखी केन्द्रीय एजेंसियों का आतंक नहीं था। वे स्वतंत्र थीं। आपात काल के दौरान स्वअनुशासन की भावना भी विकसित हुई थी। देश पटरी पर आ रहा था फिर भी जनता ने आपात काल को लोकतंत्र की हत्या के प्रयास के रूप में देखा और चुनाव में अपना मानस बना लिया। क्या इस बार भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है ? ईडी की ताबड़तोब कार्रवाइयों को लोग किस नजरिए से देख रहे हैं ? क्या वे इस बात को समझ पा रहे हैं कि भाजपा अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने इस संस्था का दुरुपयोग कर रही है ? विपक्ष को चारों तरफ से घेरने के लिए जो कार्रवाई की जा रही है, उसका मकसद उसे कमज़ोर करना तथा उलझाए रखना है ताकि वह अपनी ताकत चुनाव में न लगा सके ? क्या ऐसी घटनाओं से आमजनों के मन में कोई ज्वार उठ रहा है ? क्या वे समझ रहे हैं कि कथित नियम-कायदों की आड लेकर केन्द्रीय सत्ता कांग्रेस को आर्थिक रूप से भी कमजोर कर देना चाहती है। आयकर विभाग द्वारा उसके फ्रीज कर दिए गए बैंक खाते, 1775 करोड रूपए की टैक्स वसूली की नोटिस जैसी कार्रवाई का मूल मकसद कांग्रेस को इस कदर कमजोर करना है ताकि धन के अभाव में वह लोकसभा चुनाव पूरी ताकत से न लड़ सकें ? क्या मतदाता इस बात को समझ पा रहे हैं कि चुनाव में प्रचंड बहुमत के आधार पर केन्द्र इतना भी ताकतवर नहीं होना चाहिए कि वह लोकतंत्र के साथ खिलवाड की दुष्टता कर सके। हेगडे जैसे कुछ भाजपा नेताओं के बयान के बाद राजनीतिक हल्कों में आशंका घनीभूत है कि यदि मोदी सरकार 400 पार के अपने लक्ष्य को हासिल कर लेती है तो वह अपने हिसाब से देश के संविधान को बदल देगी। हालांकि प्रधान मंत्री अपनी चुनावी सभाओं में इस आशंका को खारिज कर चुके हैं फिर भी स्थिति यथावत हैं। जब ऐसी परिस्थितियां नज़र आ रही हो तो चुनाव के परिणामों पर फिलहाल कुछ भी कह पाना मुश्किल होगा. खासकर तब जब मोदी की गारंटी पर भरोसे के वायदे के साथ आम लोगों की आंखों पर धर्म और आस्था का चश्मा भी अच्छी तरह चढ़ा दिया गया हो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014-2019 व 2019-2024 के कार्यकाल पर नज़र डालें तो दोनों में अन्तर स्पष्ट दिखता है। अब वे ज्यादा आक्रामक हैं और अजेय योद्धा बने रहना चाहते हैं। उनकी विकासपरक दृष्टि, देश को आगे ले जाने के उनके प्रयास, जनकल्याणकारी योजनाएं व तदनुसार सरकार के बेहतर कामकाज के बावजूद उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन गई है जिसे आलोचनाएं बर्दाश्त नहीं, मुददों पर असहमतियां मान्य नहीं , विपक्ष को दंतविहीन करने की जिसकी मानसिकता है तथा जो धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति का पोषक हो। इस एजेंडे का परिणाम स्पष्ट नज़र आ रहा है। इसी वर्ष जनवरी में अयोध्या में भगवान श्रीराम की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के बाद देश भर में धार्मिक आस्था की जो बयार बह रही है, उसने मोदी की जन-स्वीकार्यता में बेतहाशा इजाफ़ा किया है। विशेषकर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बहुसंख्यक लोग मोदी गारंटी पर भरोसा जता रहे हैं। चुनाव में इसका भरपूर लाभ उन्हें तथा भाजपा को मिलना तय है। बौद्धिक वर्ग में भी उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि इंफोसिस के जनक नारायण मूर्ति जैसा महा विद्वान व्यक्ति भी यह चाहता है कि देश की बागडोर नरेंद्र मोदी के हाथ में ही रहनी चाहिए।
यानी मोदी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। ऐसे में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में 77 जैसा कोई चमत्कार हो पाएगा ? कदापि नहीं। पर जैसा कि विपक्ष का मानना है,
यह संभव है कि भाजपा सामान्य बहुमत से आगे नहीं बढ़ पाएगी। क्योंकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह चुनाव है, जनता के मन की थाह लेना मुश्किल, चाहे चुनाव सर्वेक्षण कुछ भी कहते रहे। इसी वजह से भाजपा अपने तय लक्ष्य के प्रति कुछ आशंकित है इसीलिए इस बार के चुनाव में उसने पूरी ताकत लगा रखी है। दरअसल मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा का पूरा तंत्र एक ही एजेंडे पर काम करता रहा है कि कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष दबी-कुचली हालत में बना रहे ताकि संसद के भीतर व बाहर वह तगड़ा प्रतिरोध न कर सके। इस मुहिम में काफी हद तक वह कामयाब भी है। विपक्ष के बड़े नेता के रूप में एकमात्र राहुल गांधी ही हैं जो महीनों से मोदी व उनकी सरकार की नीतियों व कामकाज के तौर-तरीकों पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते रहे हैं, उन्हें घेरते रहे हैं। दो चरणों में सम्पन्न हुई करीबन दस हजार किलोमीटर की उनकी भारत जोड़ो व न्याय यात्रा का कोई राजनीतिक प्रतिफल उन्हें मिले या न मिले पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि इस आवाज को दबा पाना भाजपा को संभव नहीं हो पाएगा भले ही लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी तथा कांग्रेस को वैसी सफलता न मिले जिसकी वह उम्मीद करती है। यानी पिछले चुनाव की तुलना में अधिक सीटें। 2019 के चुनाव में कांग्रेस का खाता 51 पर बंद हुआ था।
बहरहाल भाजपा के खिलाफ इंडिया ब्लाक के रूप में विपक्ष की टूटी-फूटी एकजुटता चुनाव में कितना असर दिखा पाएगी, यह वक्त ही बताएगा। लेकिन उसे जो लाभ मिलता दिखाई दे रहा है, वह उस प्रोपेगेंडा की वजह से है जो मोदी की गारंटी को रामधुन के रूप में देशभर में जोरशोर से बज रहा है। खुद मोदी भी कमी नहीं कर रहे हैं। वे जनसभाओं में अपनी गारंटियों का जिक्र करते हैं तथा विश्वास दिलाते हैं कि भाजपा सरकार के पुनः चुने जाने पर वे शत-प्रतिशत पूरी होंगी। प्रचार का यह अतिरेक ठीक इंडिया शाइनिंग जैसा है जो अटल सरकार के दौरान इतना बजा कि मतदाताओं ने सरकार को ही पलट दिया। दिमाग को झनझना दे ऐसा प्रचार, ऊब पैदा करे ऐसा प्रचार। इसलिए विपक्ष को चुनाव में शक्तिहीन करने की कोशिशों के बावजूद , प्रचार , दुष्प्रचार बनकर भाजपा को कम से कम इतना तो नुकसान पहुंचा सकता है कि वह 370 व गठबंधन सहित 400 से अधिक सीटें जीतने के अपने लक्ष्य से पीछे रह जाए। यदि ऐसा हुआ तो विपक्षी दल इसे अपनी कामयाबी के रूप में देखेंगे जो यह मानकर चल रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार भाजपा के विजय रथ को रोक पाना नामुमकिन है।
साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)