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हिंदुस्तानियत,कश्मीरियत और इन्सानियत-प्रथम किश्त

गांधीनामा

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Positive India:Kanak Tiwari:
गांधीनामा
(1) महात्मा गांधी को देश की हर छोटी बड़ी समस्या से गहरा सरोकार रहा है। इसकी जांच करने में सबसे प्रामाणिक दस्तावेजी सबूत गांधी खुद मुहैया कराते हैं। उन्होंने जीवन की हर छोटी बड़ी घटना को लेख, पत्र, डायरी, इंटरव्यू, भाषणों और प्रार्थनासभाओं में अभिव्यक्त किया है। गांधी की हत्या के कई प्रचारित कारणों में एक यह भी बताया जाता है कि भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपयों का भुगतान करने का वायदा गांधी अपनी व्यग्रता में पूरा कराए जाने के पक्षधर थे। यह कथित पक्षपात हिन्दुत्व के पैरोकारों को नागवार गुजरा। इसलिए भी गांधी की हत्या की गई। देश और कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होने की हैसियत में ही नहीं इतिहास को भी अपनी नजर से रेखांकित, व्याख्यायित और प्रभावित करते गांधी समस्याओं के बहुविध आयामों को समेटते हैं। अचरज होता है कि इतनी पैनी और दूरदर्षी नज़र दूसरों की क्यों नहीं हो सकी।

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(2) गांधी केवल एक बार कश्मीर तीन दिनों के लिए 1947 में जुलाई में जा सके। हिन्दुस्तान की आज़ादी मिलने का जब निश्चय ही हो गया तब कश्मीर में गंभीर राजनीतिक और सामाजिक उथलपुथल हो रही थी। गांधी तत्काल कश्मीर जाना चाहते थे लेकिन ब्रिटिश हुकुमत द्वारा तरह तरह का अड़ंगा अटकाए जाने की वजह से उनका कश्मीर प्रवास मुलतवी होता रहा। 26/06/1947 को उन्होंने अपने सचिव जबलपुर के महेशदत्त मिश्र को इस बाबत इशारा भी किया था। कश्मीर समस्या बल्कि पूरा देश आज़ादी के पहले और बाद में लाॅर्ड माउंटबेटन की नेकनीयती और तिकड़मों का शिकार होता रहा है। यह रहस्य अब परत दर परत इतिहासकार खोल रहे हैं। 26/07/1947 को माउंटबेटन को दिल्ली की भंगी काॅलोनी से प्रिय मित्र संबोधित करते माउंटबेटन को लिखा कि कश्मीर महाराजा को तार भेजें कि गांधी वहां जनसभाओं को संबोधित नहीं करेंगे और राज्य में किसी तरह की असुविधा नहीं होगी। राष्ट्रपति की कश्मीर को लेकर व्यग्रता, चिंता और समस्याओं से फौरी तथा मैदानी स्तर पर जूझने की कशिश मिलती है। कश्मीर में जो चल रहा था उससे गांधी संतुष्ट नहीं थे। वे सभी बड़े स्टेक होल्डर्स वाइसराॅय, नेहरू और पटेल सहित कई गौण किरदारों से भी पारदर्षी पत्र लिखकर खुद को भारत के सच्चे सेवक होने का अहसास कराते चलते हैं।

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(3) 05-08-1947 को वहाँ की प्रार्थना सभा में गांधी ने तीन दिनी कश्मीर यात्रा का ब्यौरा दिया। यह ब्यौरा अंगरेजी में उनके पत्र ‘हरिजन‘ में 24/08/1947 को छपा। अलग अलग मजहबों के लोगों को भाषा और संस्कृति के लिहाज से गांधी ने कश्मीर में एका पाया। उनसे मिलने वाले शिष्टमंडल भी धार्मिकता की नस्लों की केंचुल ओढ़कर नहीं आते थे। गांधी ने कहा जम्मू कश्मीर के लोगों की इच्छा ही उनके भविष्य निर्धारण के लिए सर्वोपरि होगी। 06/08/1947 को गांधी ने संक्षिप्त नोट लिखकर नेहरू और वल्लभभाई पटेल को भेजा। गुजराती के पत्र में गांधी ने पटेल को लिखा, “तुम्हें इस मामले में कुछ करना चाहिए। मेरे ख्याल से कश्मीर का मामला सुधर सकता है”। इस तरह गांधी सरदार पटेल को कश्मीर समस्या से शुरू से ही संबद्ध कर देते हैं।

(4) बाद में लगातार प्रार्थना सभाओं में गांधी की चिंताएं व्यक्त होती रहती हैं। गांधी के प्रार्थना सभाओें के भाषण अब महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों के रूप में लगातार बदलते इतिहास और उससे फूटने वाली अवधारणाओं से जिरह करते रहेंगे। इसी दरम्यान हसन सोहरावर्दी 30/10/1947 को गांधी जी से मिले। सोहरावर्दी ने बताया उन पर कोई भी भारत में भरोसा नहीं करता। गांधी ने सपाट कहा भरोसा कायम करने के लिए सुहरावर्दी को पाकिस्तान की नीतियों और क्रियाकलापों की साफ साफ लानत मलामत करनी चाहिए। गांधी ने पूछा पाकिस्तान का कश्मीर पर किए गए हमले में कोई हाथ है तो क्या एक भारतीय नागरिक होने के नाते आपको अपनी मान्यता व्यक्त करने का अधिकार नहीं है? इतना सब होने के बाद भी सुहरावर्दी पाकिस्तान का हाथ नहीं होने की बात करते हैं। तो इतिहास यह जिम्मेदारी उन पर सौंपना चाहेगा कि जाएं और पता लगाकर बताएं सच क्या है।

(5) यह भी दिलचस्प है कि भारतीय फौज के मेजर जनरल के.एम. करियप्पा जो दिल्ली प्रवास पर थे, ने गांधी को 18/01/1948 को खबर भेजी कि वे कुछ दिनों में दिल्ली और पूर्वी पंजाब कमांड के मुखिया की हैसियत में कश्मीर अभियान पर जा रहे हैं। गांधी ने उन्हें जवाब दिया मुझे उम्मीद है आप कश्मीर समस्या को अहिंसक तौर पर हल करने में सफल होंगे। लौटकर मुझसे मिलें।

(6) गांधी की कश्मीर समझ के कुछ तयशुदा आयाम हैं। उनकी हाल के दिन तक कश्मीर समस्या के हल के लिए कोई मुनासिब रास्ता संविधान, सरकार और संसद ने भी तय नहीं किया था। बाद में जो हुआ वह बहुत कुछ गांधी की समझ से अलग हुआ। इसलिए गांधी की समझ की अब केवल ऐतिहासिकता है। यह अलग बात है कि उन्होंने इस बहाने कुछ ऐसा नायाब और अनोखा भी कह दिया है जो आज भी संदर्भ से बाहर नहीं कहा जा सकता।
साभार:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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