हिंदू धर्म की न किसी से प्रतिद्वन्द्विता है न वैर ।
- राजकमल गोस्वामी की कलम से-
Positive India:Rajkamal Goswami:
आज जब इस्लाम स्वयं को सबसे तेजी से विस्तृत होने वाले धर्म का गौरवगान करता है ईसाइयत दुनिया का सबसे बड़ा धर्म होने का दावा करती है, हिंदू धर्म शान्त भाव से इस स्पर्धा का अवलोकन कर रहा है क्योंकि वह इस दौड़ में कभी शामिल था ही नहीं फिर भी संसार का तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है जिसके अनुयायियों की संख्या सौ करोड़ के पार है ।
ऐसा नहीं है कि हिंदू शासक कभी प्रभावशाली नहीं रहे किंतु धर्म प्रचार का जो जोश और जीवट दूसरे धर्मों है वह हिंदुत्व में कभी नहीं रहा । धर्म रक्षा के लिये शस्त्र उठाना अवश्य कर्तव्य रहा है किंतु बलपूर्वक धर्म प्रचार का कोई उदाहरण नहीं मिलता ।
तत्वदर्शन और आत्मचिंतन हिंदू धर्म की परंपरा रही है जिसने संसार को सदैव राह दिखाई है। भारत में आने वाला कोई धर्म हिंदू दर्शन से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । जीवन जीने के जो बुनियादी सूत्र भारत में विकसित हुये वे हर देश काल और परिस्थिति में लागू होते हैं ।
भोजन को ही लीजिये तत्वदर्शियों ने भोजन को सात्विक, राजसिक और तामसिक में वर्गीकृत कर दिया । आध्यात्मिक उन्नति और विकास के लिये सात्विक भोजन लीजिये । कठिन परिश्रम और युद्ध आदि में रत रहने वालों के लिये राजसिक भोजन का परामर्श है और तामसिक भोजन तो सर्वथा त्याज्य है । औषधीय प्रयोजन के लिये तामसिक भोजन प्याज लहसुन सुरा मदिरा भी वर्जित नहीं हैं ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः किसी भी हिंदू प्रार्थना का अभिन्न अंग है और शांतिपाठ संपूर्ण सृष्टि के सभी अवयवों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पति आदि की शांति के लिये प्रार्थना है ।
जब सभी पश्चिमी धर्म कहीं दूर बैठे हुये ईश्वर के संदेशवाहकों द्वारा भेजे गये आदेशों से संचालित होते हैं हिंदू धर्म आत्मचिंतन और आध्यात्मिक विधियों से परमात्मा की खोज और उसका सान्निध्य प्राप्त करने के मार्ग खोज निकालता है । मंसूर के अनल हक़ को इस्लाम हजम नहीं कर पाता और उसका सर उड़ा देता है हिंदू धर्म की बुनियाद ही अहम् ब्रहास्मि , तत्त्वमसि और सर्वं खल्विदम् ब्रह्म पर टिकी हुई है ।
हिंदू धर्म की न किसी से प्रतिद्वन्द्विता है न वैर । वह परमात्मा को प्राप्त करने के अनगिनत साधनों और मार्गों को मानता है । हर धर्म के संत महापुरुषों के प्रति सहज आदर का भाव रखता है । हिंदू धर्म के संपर्क में आकर मलिक मुहम्मद जायसी भी बोल उठते हैं,
विधना के मारग हैं तेते ।
स्वर्ग नखत महि रजकन जेते ।।
सामाजिक विषमता का हिंदू तत्व चिंतन से कोई लेना देना नहीं है । सामाजिक ढाँचा डार्विन के विकास वाद से ही चलता है और समय के अनुरूप स्वयं को ढालता रहता है ।
केवल हिंदू धर्म ही है जो बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण जड़ चेतन जगत को एक परिवार का अंग मानता है और उसके कल्याण की कामना करता है । पश्चिमी धर्म तो संसार के अवश्यंभावी नाश और तदुपरांत ईश्वर के न्याय के दिन की आशा पर ही टिके हुये हैं। अगर ईश्वर सर्वनाश नहीं कर रहा है तो बेसब्र हो कर स्वयं क़यामत लाने की कोशिश में हैं ।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां !
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् !!
” यह हमारा है, यह पराया है इसकी गणना संकुचित चेतना वाले लोग करते हैं, उदार चरित्र वालों के लिये संपूर्ण पृथ्वी ही अपने समस्त जड़ चेतन प्राणियों सहित एक कुटुंब के समान है ”
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)