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हिंदी की लाठी हैं लता मंगेशकर

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
मैं समझता हूं बहुतेरे लोगों ने प्यार की पहली छुअन छूते ही, पहली लौ लगते ही जो कभी अभिव्यक्ति की ज़रूरत समझी होगी तो लता मंगेशकर के गाए गीतों में उसे जरूर ढूंढा होगा, और ढूंढते रहेंगे। मुकेश के साथ लता ने गाया भी है कि, ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा।’ प्यार का सिलसिला जैसे अनथक है, अप्रतिम और न बिसारने वाला है, लता की गायकी भी उसी तरह है। प्यार में पुकारने की, प्यार को बांटने की अविकल छटपटाहट से भरी-पूरी।

‘प्यार की उस पहली नज़र को सलाम’ गाने वाली लता मंगेशकर अब पैसठ [अब चौरासी] की हो चली हैं। और ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ जैसे उन के गाए ताज़ा फ़िल्मी गीत इन दिनों जब धूम मचाए हुए है तो जीते जी पुरस्कार बन जाने वाली, दादा साहब फाल्के पुरस्कार समेत जाने कितने पुरस्कारों से सम्मानित लता मंगेशकर को अब ‘अवध रत्न’ से सम्मानित करने की सूचना उतनी ही सुखद है जितना सुखद उन्हें सुनना है, उनके गाए गीतों को गुनना है।

‘जो शहीद हुए हैं उन की ज़रा याद करो कुर्बानी’ गा कर जवाहर लाल नेहरू जैसों को रुला कर और मथ कर रख देने वाली लता अकेली गायिका हैं जिन्हों ने देश-गीतों और भजनों को भी बड़े पन और मन से गा कर उसे लोकप्रिय ही नहीं बनाया है, लोकप्रियता की हदें भी लंघवा दी हैं। और हिला कर रख दिया है। लता मंगेशकर ही अकेली ऐसी गायिका हैं जिन्हों ने जीवन के उजालों और अंधेरों दोनों के द्वंद्व को दिलों में उतारा है। लता मंगेशकर ने सिर्फ रूमानी और देशगीत ही नहीं गाए। जीवन के दुख और थपेड़ों, खुशी और खुश्की को भी गीतों में गति दी है, गुरूर दिया है। पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे गीत ‘तुम आशा विश्वास हमारे … जीवन के हर पतझड़ में एक तुम्हीं मधुमास हमारे’ जब लता पूरी तन्मयता से गाती हैं तो पूरा का पूरा एक माहौल बुन दती हैं। ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो’गाती हैं तो एक श्रद्धा भर देती हैं माहौल में। दरअसल तमाम गायकों, गायिकाओं की तरह वह गीत तत्व को मारती नहीं, अमर करती हैं और उनकी इसी खूबी का नतीज़ा है कि उन के गाए एक-दो दर्जन नहीं हजारों गीत अमर हो गए हैं, जिनकी फेहरिस्त बनाते-बनाते पसीने क्या छक्के छूट जाएं।

लता ने हिन्दी के अलावा और भी कई भारतीय भाषाओं में गाया है। पर मशहूर वह अपने हिंदी के गाए गीतों से ही ज़्यादा हुईं। इसी तथ्य को ज़रा पलट कर कहूं तो यह कि हिंदी के विकास, समृद्दि और प्रसार में लता की आवाज़ ने जो काम किया है, हिंदी को जो लोकप्रियता दिलाई है लता ने, उस के मुकाबले कोई एक भी नाम मुझे नहीं सूझता। कहूं कि लता मंगेशकर हिंदी की लाठी हैं तो इसे लंठई नहीं मानेंगे आप। क्यों कि देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए, भाषाएं आप को बदलती मिलेंगी पर लता की आवाज़, उन के गाए गीत हर जगह बजते मिलेंगे। जिन-जिन जगहों पर हिंदी का घोर विरोध है, लता वहां भी बजती मिलती हैं। वह अमरीका, रूस, और चीन में भी उसी कशिश से सुनी जाती हैं, जिस कशिश, कोमलता और कमनीयता लिए वह हमारे दिलों में उतरी हुई हैं। जो तड़प उन के गाए गीतों से फूटती है, वह देस-परदेस की सीमाएं फाड़ जाती हैं। पाकिस्तान में भी वह उसी पाकीजगी के साथ पाई जाती हैं, जितनी पवित्रता उनकी गाई रामायण की चौपाइयों, तुलसी, मीरा, सूर के गाए भजनों में भरी मिलती है।

संजीदा गीत जिस तरह शऊर और सलीके से लता गाती हैं, लगभग उसी सुरूर में वह शोख गीतों की कलियां भी चटकाती हैं। उन की गायकी में नरमी, लोच और मादकता का मसाला इस मांसलता और इतने अलमस्त ढंग से मथा रहता है कि मन बिंधे बिना रहता नहीं। वह चाहे ‘आज मदहोश हुआ जाए रे मन’ या ‘शोखियों में घोला जाए थोड़ी सी शराब’ या‘सावन का महीना पवन करे सोर’ या ‘पिया तोंसे नयना लागे रे’ या फिर‘जुल्मी संग आंख लड़ी’ गा रही हों, मन में एक अजीब सा उमंग भर देती हैं। एक तरंग सा बो जाती हैं तन-बदन और मन में।

‘मारे गए गुलफाम, अजी हां मारे गए गुलफाम’, ‘अजीब दास्तां हैं ये’,‘फूल आहिस्ता फेंको’, ‘आवाज़ दे के हमें तुम बुलाओ’, ‘दुनियां करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’, ‘नीला आसमां सो गया’, ‘हमने देखी है तेरी आंखों में महकती खूशबू’, ‘इस मोड़ पर जाते हैं’, जैसे ढेरों गीतों में जब वह तनाव के तार बुनती हैं तो उन का तेवर और भी तल्ख हो जाता है। ऐसे जैसे तनाव का तंबू तन जाए।

युगल गीतों में भी वह बीस ही रहती हैं। मुहम्मद रफ़ी, मुकेश और किशोर कुमार की त्रिवेणी बिना लता के बहती ही नहीं थी। लता ही इकलौती हैं जो सहगल, सी.एच.आत्मा, तलत महमूद, महेंद्र कपूर, हेमंत कुमार, मन्ना डे, रफ़ी, मुकेश, किशोर, भूपेंद्र, उदित नारायण, शेलेंद्र सिंह, अजीज, शब्बीर, एस.पी बालासुब्रमण्यम, सुरेश वाडेकर, किशोर कुमार के बेटे अमित कुमार और मुकेश के बेटे नितिन मुकेश से ले कर आज के कुमार शानू, अभिजीत तक के साथ भी उसी तन्मयता के साथ वह गाती हैं जिस तन्मयता के साथ वह रफ़ी, मुकेश और किशोर के साथ गाती थीं। जिस एकात्मकता से लता एकल गीत गाती हैं, उसी रागात्मकता से वह युगल गीत में रस भी भरती हैं।

[ 1994 में लता मंगेशकर को लखनऊ में अवध-रत्न दिए जाने पर दयानंद पांडेय द्वारा लिखा गया लेख]

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