Positive India:Kanak Tiwari:
उच्च न्यायालय हर राज्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण ताकतवर न्यायिक संस्था होते हैं। बमुश्किल दस पंद्रह प्रतिशत उनके निर्णयों की अपील सुप्रीम कोर्ट में करने का नागरिक साहस होता है। सरकारें कर सकती हैं क्योंकि फीस और खर्चो में मंत्री और अधिकारी मालेमुफ्त दिल-ए-बेरहम का स्थायी आचरण करते हैं। हाई कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के बराबर संवैधानिक अधिकार हैं। हाई कोर्ट सरकारी, लोकअधिकारी आदेश बल्कि विधायिकाओं के अधिनियम को बातिल कर सकते हैं। वे अफसरों के कदाचरण की समीक्षा कर सकते हैं। जनहित के नाम पर हाई कोर्ट जनता के हक में बुनियादी फैसले कर सकते हैं। अनुभव बताता है ऐसा पहले बेहतर होता था। धीरे धीरे न्याय के तेवर जनहित की बजाय व्यवस्थाजनित हो रहे हैं।
ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों से लेकर संसद तक बल्कि राष्ट्रपति के भी चुनाव में मतदान के आधार पर अधिकतम पांच वर्षों के लिए निर्वाचन हो सकता है। कई सरकारी नौकरियों में कर्मी को उसके गृह जिले में पोस्टिंग नहीं दी जा सकती। न्याय के बारे में अंगरेजी आप्त वक्य की घुट्टी पिलाई जाती है। न्याय केवल होना नहीं चाहिए बल्कि होता दिखना भी चाहिए। यह जुमला न्यायपालिका पर चस्पा होता है। विसंगतियां खुलकर सामने आने लगी हैं। हर नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं और इंटरव्यू वगैरह हैं। कनिष्ठ न्यायपालिका में भी प्रतियोगिता के दंगल से गुजरना पड़ता है। सभी नौकरियों के मरुस्थल में हाई कोर्ट मरुद्यान है। पता ही नहीं चलता कौन वकील कब हाई कोर्ट का जज बना दिया जाएगा। न योग्यता निर्धारण का घोषित मापदंड होता है। न ही बौद्धिक प्रतियोगिता होती है।
हाई कोर्ट जज का पद है उसी हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों, प्रदेश सरकार, राज्यपाल वगैरह की सिफारिश से होता केन्द्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और फिर अंततः राष्ट्रपति भवन तक गोपनीय यात्रा करता है। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और मुख्यमंत्री की चलती ही चलती है। सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पांच वरिष्ठ जजों की एक घरेलू संस्था को काॅलेजियम का नाम दे दिया। काॅलेजियम हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता आ रहा है। प्रतीक में कहें पांच उंगलियों से मुट्ठी बनती है। उसमें सब कुछ बंद होता है।
केन्द्र सरकार ने अनुभव के बाद निष्कर्ष निकाला। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली जनतांत्रिक और विकेन्द्रीकृत होनी चाहिए। कभी वक्त था जब देश के मुख्य न्यायाधीश प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से टेलीफोन पर न्यायाधीशों की नियुक्ति की फाइल को अंजाम तक पहुंचा देते थे। अब सुप्रीम कोर्ट में 7 के बदले 34 जजों का प्रावधान है। हाई कोर्ट के जजों की स्वीकृत संख्या में इजाफा है। हालांकि एक तिहाई पद खाली पड़े रहते हैं। सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां कमीशन अधिनियम पारित किया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। काॅलेजियम को गवारा नहीं था उसका महत्वपूर्ण अधिकार ढीलापोला कर दिया जाए।
देश के उच्च न्यायालयों में दो तिहाई उसी हाई कोर्ट के वकीलों को जज बना दिया जाता है। कुछ अच्छे वकील होते हैं। कुछ मंदबुद्धि और कुछ के बारे में प्रतिकूल टिप्पणियां होती हैं। वे अपने साथ पूर्वग्रह, दुराग्रह, पसंद और नापसंद सब कुछ लेकर इंसानी आचरण करने से महरूम नहीं किए जा सकते। उसी हाई कोर्ट में पति, पत्नी, भाई, बहन, पत्नी का भाई, चाचा, मामा वगैरह रिश्तेदारों में से कई प्रैक्टिस करते हैं। उन्हें लाभ तो होता है। ऐसा आरोप भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन तक पर लग चुका और अन्य पर भी। तेजतर्रार वकील प्रशांतभूषण ने खुलेआम कहा कि देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में कई आचरणभ्रष्ट रहे हैं। प्रशांतभूषण पर अदालत की अवमानना का मुकदमा अभी ठंडे बस्ते में है। चार वरिष्ठ सुप्रीम कोर्ट जजों ने ही सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाए। यह नहीं कहा कि हाई कोर्ट में उसी राज्य के वकीलों को नियुक्त नहीं होना चाहिए।
नौकरशाहों के लिए आईएएस, आईपीएस जैसी केन्द्रीय परीक्षाएं होती हैं। न्यायिक सेवाओं में राज्य के वकीलों को नियुक्त करने के खिलाफ महत्वपूर्ण शोधसंस्थान विधि आयोग ने मजबूत सिफारिशें की हैं। सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की मिलीजुली युति के कारण रिपोर्टें विस्मृति के गोदामों में पड़ी हैं। हाई कोर्ट में नवनियुक्त न्यायाधीशों में कशिश होनी चाहिए कि उन्हें अन्य राज्य में नियुक्त कर दिया जाए। हाई कोर्ट में अन्य प्रदेश के जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता है। ऐसा सभी पदों पर न्यायाधीशों के लिए हो सकता है। बाहर से आने वाले अतिथि न्यायाधीशों के लिए जनता में उत्सुकता और उत्साह होता है। न्याय व्यवस्था में देर, अंधेर और ढाक के तीन पात हैं। कब तक रहेंगे? वह सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की आपसी समझ और प्रबल जनमत पर निर्भर है।
साभार:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)