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उपनिषदों का इतना सुंदर, सुग्राह्य अनुवाद मैंने तो नहीं देखा। और उपनिषदों के अध्ययन के क्रम में मैंने बहुत सारे अनुवाद टटोले हैं। सबसे बड़ी चुनौती भाषा की होती है। उपनिषद् संस्कृत ही नहीं, वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं, जो अब प्रचलित नहीं। उनमें ऐसे बहुत पारिभाषिक शब्दों का उपयोग आता है, जिनका अनुवाद असम्भव है। उनके भावार्थ के आसपास तक पहुँचने की कोशिश ही लेखक कर सकता है, बशर्ते वह वेद-वाङ्मय का गुणी जानकार हो।
भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन के लोकविश्रुत विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल कहा करते थे कि उद्गीथ-विद्या को जाने बिना छान्दोग्योपनिषद् का अर्थ स्पष्ट हो ही नहीं सकता। उद्गीथ का भी अनुवाद सम्भव नहीं। इतना ही बतलाया जा सकता है कि यह उच्च-स्वर में सामगान है। छान्दोग्य सामवेद का उपनिषद् है और सामविद्या ही सूर्यविद्या है। इस उपनिषद् में प्राणतत्त्व की उपासना की गई है। प्राण का अनुवाद वो लोग अंग्रेज़ी में लाइफ़ करते हैं, जो दूर-दूर तक उसके अर्थ को व्यंजित नहीं करता। अग्नितत्त्व की व्याख्या भौतिक-अग्नि (फ़ायर) की तरह की जाती है। अन्न को फ़ूड कहा जाता है। देवताओं को गॉड्स। यानी अर्थ का घोर अनर्थ है। मॅक्स म्युलर और शोपेनऑवर तो अनुवाद पढ़कर ही मतवाले हो गए थे, जबकि वह फ़ारसी उल्था (दारा शुकोह) से निर्मित यूरोपीय पाठ था। ईश्वर जाने मूल का कितना भाव उन तक सम्प्रेषित हुआ होगा। जबकि वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन करने वाला पृथक से एक ग्रंथ निरुक्त है, जिसे वेदांग की संज्ञा दी गई है। निघण्टु में वैदिक शब्दावली के पर्याय हैं।
पिछले महीने जब मैं उपनिषदों का अध्ययन कर रहा था तो भाषा की बाध्यता बारम्बार सामने आई। मैंने एकाधिक पाठ अपने सामने रखे थे। गीताप्रेस के लिए ईशादि नौ उपनिषदों का अनुवाद हरिकृष्ण दास गोयन्दका ने किया है। अद्वैत आश्रम (रामकृष्ण मठ) के लिए स्वामी गम्भीरानंद ने। इनकी उल्था अंग्रेज़ी में है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन् और श्रीअरबिंद की भी। आँग्लभाषा में तो उस तत्त्व को पकड़ना और दूभर हो जाता है, जो हिन्दी में ही कठिनाई से आता हो। मैंने पाया कि हर पाठ में भावार्थ भिन्न है। शांकरभाष्य भी संस्कृत में है, जो अनुवाद में अनेकार्थ रचता है। किन्तु एकादशोपनिषद् के शब्दार्थ-भावार्थ की इस पुस्तक ने कुछ हद तक इस अभाव को पाटा है।
प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार हैं। इन्होंने इन्हीं ग्यारह प्रमुख उपनिषदों के विवेचन की एक अन्य पुस्तक उपनिषद्-प्रकाश भी रची है। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे और वेदऋषि कहलाते थे। उपनिषदों के अध्ययन में वे उसी सुपरिचित समस्या का सामना करते थे कि मूल से अनुवाद शब्दजाल से भरा हुआ दीखता है, भाव की प्रधानता कम दिखलाई देती है। वे कहते थे कि जब उपनिषद रचे गए, तब वैदिक संस्कृत प्रचलित थी अतैव उन्हें वैसे लिखा गया। पर आज तो हम खड़ी बोली बोलते हैं। अगर आज वे ऋषि हिन्दी में इन्हें रचते तो किस तरह से लिखते, यही सोचकर मैंने अनुवाद किया है। एक हज़ार से अधिक पृष्ठों का यह ग्रंथ सिद्धान्तालंकार जी ने वर्षों के परिश्रम से तैयार किया था, पर उसके प्रकाशन के पैसे उनके पास न थे। तब उन्होंने अपने मित्रों-संस्थाओं से ऋण-चंदा लेकर इसे छपवाया। किन्तु कालान्तर में यह इतना प्रसिद्ध हो गया कि आज उनकी ख्याति इसी ग्रंथ पर टिकी है। पुरानी पुस्तकों के एक विक्रेता के यहाँ यह जब मुझे मिला तो मेरे हर्ष का पारावार न था। ज्यों अमूल्य निधि हाथ लगी हो। उपनिषदों के हर मंत्र को पाँच से छह स्रोतों से जाँचने का उद्यम मेरा रहता आया है, पर इस ग्रंथ की सुरुचि सरस होने के बावजूद प्रामाणिकता के सन्निकट है। यह शुभ बात हुई। इति!
साभार: सुशोभित