Positive India:Rajkamal Goswami:
हमें तो सदा यह शिकायत रही कि जो हम पढ़ते हैं वह हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में नहीं होता था और जो स्कूली पाठ्यक्रम में होता था उसे पढ़ने में हमारा मन नहीं लगता था ।
अब बताइए गुलशन नंदा का शायद ही कोई उपन्यास हमने छोड़ा हो मगर उसे लुगदी साहित्य बताया जाता था और यशपाल का झूठा सच जैसा बोरिंग उपन्यास कोर्स में था । यूँ तो मैं बीएससी का छात्र था पर उन दिनों सब कुछ पढ़ डालने की जिज्ञासा थी तो सब कुछ पढ़ते थे । स्कूली पढ़ाई पर ही ध्यान देते तो कहीं इंजीनियरिंग में सलेक्ट हो जाते और ज़िंदगी रेता बजरी सीमेंट और नहरों की सिल्ट की सफ़ाई करते बीत जाती ।
एक से एक रोचक उपन्यास होते थे । इब्ने सफ़ी के कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद के कैरेक्टर आज भी यादों में बसे हैं । एक बार उपन्यास उठाओ तो जब तक ख़त्म न हो जाए तब तक दूसरी किताब छूने का मन न करे । हमारे रूममेट आशुतोष भार्गव बर्कले की फ़िज़िक्स पढ़ते थे सो आईएएस हो गए लेकिन हम भी छोटी मोटी सरकारी नौकरी पा ही गए वह भी इसलिए कि सब कुछ ऊटपटाँग पढ़ते पढ़ते जनरल नॉलेज बहुत स्ट्राँग हो गई जो सारे नम्बर कवर कर देती थी। हिंदी अंग्रेज़ी के उपन्यास पढ़ने से भाषाओं पर पकड़ भी मज़बूत हो जाती है
बहुत अर्से बाद अब सरकार सही रास्ते पर आई है । अब गुलशन नंदा पढ़ाए जायेंगे ।उनकी जीवनी रटनी पड़ेगी । पहले पता नहीं किस किस की जीवनी रटनी पड़ती थीं जिन्हें अब हिंदी साहित्य ने भुला दिया है । जीवनी वाला एक दोहा अब भी याद है ,
मातृभाषा के प्रचारक विमल बीए पास
सौम्य शील निधान बाबू श्यामसुन्दर दास
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)