Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
आयुर्वेद का विकास कैसे हो, यह अब भी एक अनबुझी पहेली बनकर रह गया है । वहीं यहाँ से निकलकर छात्रो की स्थिति आजीवन संघर्ष का पर्याय बन कर रह गई है । इस सबके लिए पहले तो शासन, फिर शिक्षा विभाग, विशेषकर विश्वविद्यालय भी जिम्मेदार है । आयुर्वेद की इस हालत के लिए कुछ हद तक आईएमए जैसी संस्थाए भी जरूरत से ज्यादा जिम्मेदार है । इन लोगो के लिए तो आयुष चिकित्सक तभी तक अच्छे लगते है जब तक इनके नर्सिंग होम का काम सुचारू रूप से चलते रहता है । कुछ लोगो को अगर मरीज मिलते रहते है तब तक वो चिकित्सक बहुत अच्छा रहता है । जिस चिकित्सक के गले मे गलबहियाँ करने वाले के लिए कब यह झोला छाप चिकित्सक बन जाता है ये पता भी नही चलता । कुल मिलाकर स्वार्थ का सब खेल है । चलो पुनः मूल मुद्दे पर, सात दशक से या आजादी के तुरंत बाद से स्व. रविशंकर शुक्ल जी के प्रयास से यह परिसर अपने अस्तित्व मे आया । इसमे स्व.खुदादाद डूंगाजी और स्व.नारायण प्रसाद अवस्थी के संयुक्त प्रयासो का प्रतिफल है ये परिसर । चिकित्सकों की कमी के कारण पहले तीन साल का, बाद मे पांच साल का इंटीग्रेटेड कोर्स चालू कराया गया,जिससे इस अंचल को चिकित्सक तुरंत मुहैया हो सके; जिसमे वे सफल भी रहे । पर उस समय आईएमए की चुप्पी और एमसीआई की चुप्पी का मतलब ही यही था कि वे इस शिक्षा पाठ्यक्रम से सहमत थे । बात यहाँ तक भी होती तो कोई बात नही । उस समय मेडिकल कॉलेज के लेक्चरर लोगो ने भी बहुत मेहनत की । इसके कारण यहाँ के छात्र मार्डन मेडिसिन से भी अवगत होने लगे । जिसके चलते दूर दराज के व पिछड़े क्षेत्र के लोगो को चिकित्सा जैसी मौलिक आवश्यकताये मिलने लगी, जो उनका मौलिक अधिकार भी था । पर तब तक आईएमए को भी कोई आपत्ति नही थी,क्योंकि एमबीबीएस किए हुए डॉ वहाँ जाने से बचना चाहते थे । रायपुर आयुर्वेदिक कॉलेज से निकलकर छात्रों ने शासन की नीतियों विशेषकर टीकाकरण जैसे अभियान को सफल बनाने मे अपना सहयोग प्रदान किया । जिसके कारण यह देश पोलियो जैसे गंभीर बीमारी से मुक्त हुआ । पिछड़े इलाके मे कम संसाधन मे बेहतर सेवा देना कोई आसान काम नही था । पर यहाँ से निकलकर डा. बने लोगो ने यह कर दिखाया । लेख बड़ा हो रहा है ये आगे भी क्रमशः जारी रहेगा ।
लेखक: डॉक्टर चंद्रकांत वाघ(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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