140 करोड़ की आबादी के बावजूद ओलिम्पिक में एक अदद स्वर्ण हमारे लिए दिवास्वप्न है।
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
हमें चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आदत डाल लेनी चाहिए। तथ्य यह है कि चार साल पहले टोक्यो ओलिम्पिक में मात्र 87.58 मीटर दूरी का भाला फेंकने के बावजूद नीरज चोपड़ा अत्यंत भाग्यशाली रहे थे कि वे स्वर्ण पदक जीत गए। उन्होंने कभी भी 90 मीटर से अधिक दूर भाला नहीं फेंका है, जबकि 1986 के बाद से 24 एथलीट ऐसा कर चुके हैं। विश्व रिकॉर्ड तो 98.48 मीटर का है, जो चेक रिपब्लिक के यान ज़ेलेन्षी के नाम दर्ज़ है!
इस परिप्रेक्ष्य में इस बार के स्वर्ण-पदक विजेता अरशद नदीम का 92.97 मीटर दूरी का भाला फेंक भी कोई दूर की कौड़ी नहीं है। वर्ष 1986 में खिलाड़ियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले जैवलिन का आकार बदला गया था। उससे पहले तो 104.80 मीटर दूरी का भाला भी फेंका जा चुका है। यह रिकॉर्ड ईस्ट जर्मनी के यूवे होन के नाम दर्ज़ है, जो कि नीरज के कोच रहे हैं। कल रात ग्रेनाडा के जो एंडरसन पीटर्स 88.54 मीटर दूरी का भाला फेंककर कांस्य पदक विजेता बने, वे भी अतीत में 93.07 मीटर दूरी का भाला फेंक चुके हैं।
सही मायनों में, नीरज अत्यन्त भाग्यशाली थे, जो टोक्यो में मात्र 87.58 मीटर दूरी का भाला फेंकने के बावजूद स्वर्ण पदक हासिल करने में समर्थ रहे थे। उस दृष्टिकोण से उन्होंने इस बार के ओलिम्पिक में 89.45 मीटर की दूरी लॉंघकर अपनी क्षमता को और सुधारा ही है। लेकिन उनकी ओवर-ऑल परफ़ॉर्मेंस बहुत अच्छी नहीं थी। वे छह में से पाँच मौक़े चूके और भाग्यशाली रहे कि एकमात्र सफल प्रयास ने उन्हें रजत पदक दिला दिया। वे दबाव में नज़र आ रहे थे और बार-बार के विफल प्रयासों से खीझ उठे थे। भारत की जनता अपने खेल-सितारों को अपेक्षाओं के जैसे बोझ तले दाब देती है, उसका असर उन पर दिख रहा था। अन्यथा वे अपना स्वाभाविक खेल खेलते हैं।
इस तथ्य को अगर ठीक से प्रचारित किया जाता कि नीरज कभी भी 90 मीटर से अधिक दूरी का भाला फेंक नहीं पाए हैं, जबकि चैम्पियन जैवलिन-थ्रोअर इस बेंचमार्क को नियमित रूप से पार करते रहे हैं, तब उनसे स्वर्ण पदक की उम्मीद लगाना बेमानी होता। किन्तु जहाँ पर तथ्यों को सही से प्रचारित किया जाए और चीज़ों को उचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, वो भारत-देश ही क्या।
विनेश फोगाट भी 53 के बजाय 50 किलो भार-वर्ग में खेल रही थीं, जो कि उनकी क्षमताओं के हिसाब से न केवल अप्राकृतिक बल्कि अनुचित भी था, और भार-नियंत्रण के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को दाँव पर लगा दिया, इस तथ्य को कम प्रचारित किया गया, और पहले उनके गौरव और फिर उनकी त्रासदी के कथानक को जनता के सम्मुख अधिक परोसा गया।
इसमें संदेह नहीं है कि भारत के सभी एथलीट अथक परिश्रम करके उस मुक़ाम पर पहुँचे हैं और इसके लिए वे अभिनंदन के पात्र हैं। किन्तु तथ्य यह है कि हमारे यहाँ खेल-प्रतिभाओं को पुरस्कृत करने वाली संस्कृति नहीं है और ऐसे में 140 करोड़ की आबादी के बावजूद ओलिम्पिक में एक अदद स्वर्ण हमारे लिए दिवास्वप्न है। ऐसा हम सोचेंगे तो अपने खिलाड़ियों की छोटी उपलिब्धयों से भी संतुष्ट रहेंगे और अधिक अपेक्षाएँ करके हताश न होंगे। अतीत में हॉकी और अब क्रिकेट में ही भारत के पास विश्वस्तरीय खिलाड़ी रहे हैं, शेष खेलों के साथ ऐतिहासिक रूप से ऐसा नहीं रहा है। पदकों की आकांक्षा रखना बुरा नहीं, किन्तु सच्चाई को स्वीकारना उससे अधिक ज़रूरी है। वैसे भी हालात आज पहले से बेहतर हैं। अतीत में तो भारत के खिलाड़ी ओलिम्पिक में एक-एक पदक के लिए तरसे हैं, इस बार पाँच पहले ही हासिल कर चुके हैं।
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)