Positive India:Sushobhit:
जाने कितनी लड़कियां थीं, जो घर से बाहर एक घर बनाकर रहतीं- अकेली। ये कठिन था। कठिनाइयों के अनेक रूप थे। जैसे घर से दूर रहना कठिन था। आज और कल के छोर पर फैले दो घरों के बीच पुल जैसा एक घरौंदा बसाना भी कम कठिन न था। शायद सबसे कठिन तो जीवित रहना ही था। ये सभी कठिनाइयां वर्षा में बह आई धाराओं की तरह चली आतीं, रोज़मर्रा की नदी में एक मोड़ पर मिल जातीं। आदत बन जातीं!
लड़कियां या तो पढ़ाई करतीं या कहीं नौकरी-चाकरी। होस्टल में रहतीं या फ़्लैट में। नसीब ने साथ दिया तो एक पूरी दुछत्ती, जिसकी गैलरी में वो इतराकर बैठतीं पैर पसारे। सुबह घर से निकलतीं, टिफ़िन लेकर। शाम को लौटतीं। अपना खाना ख़ुद पकातीं। फिर अकेले खाने बैठतीं। जूठे हाथ से फ़ोन खोलकर किसी एक को मैसेज लिखतीं। शायद इससे उन्हें महसूस होता कि वो अकेली नहीं हैं। “ओहो, पहले आराम से खा तो लो, फिर बात कर लेना”, इस हिदायत पर मुस्करातीं- “वी गर्ल्स आर गुड एट मल्टीटास्किंग!”
उनमें से किसी एक से किसी एक को प्यार होता तो वो चाहता कि उसे देखे। दफ़्तर में नहीं, जहां वो डेस्क पर पर्स रखकर पूरा दिन बिताती। किसी समारोह में नहीं, जिसके लिए वो स्मोकी आईलैश बनाती और नाख़ूनों को रंगती गहरा स्याह (ये ब्लैक नेलपेंट पसंद करने वाली लड़कियां कुछ अलग ही होतीं), मेट्रो या बस तक में नहीं, कानों में ठुंसे ईयरप्लग और आत्मचेतना से भरपूर, कि जब घर से बाहर होती है, तो कौन लड़की आंखों के जंगल को अपनी त्वचा पर उगते अनुभव नहीं करती?
पर वो चाहता कि उसे देखे उसके कमरे में अकेले, सबसे बढ़कर रसोईघर में पकाते खाना, बर्तनों की आवाज़ के साथ। बालों को जूड़े में बांधे। अभी फ्रिज से कुछ निकाला है, अभी ढांक दी है पतीली। सबने उसको देखा है, पर यों अपने घर में अकेले किसी ने नहीं देखा। उस एक का देखना भी उसे मैला ही करता, तब वो हो जाना चाहता अदृश्य-अदेखा। वो सोचता अभी अपने इस एकान्त में रची-बसी वह ठीक वैसी है, जिसे चुपचाप उसे प्यार करना है- बेखटके, बेआवाज़।
हर लड़की यों अपना एक घरौंदा बनाकर अकेले नहीं रहती, लेकिन जो रहती, वो फिर पूरा जीवन उस कमरे को अपने भीतर संजोकर रखती। एक घर छूटता, दूसरा बन जाता, पहले से बड़ा, और शोरगुल से भरा, लेकिन जो कमरा खो जाता, वो लौटकर नहीं आता! शॉर्ट्स पहनकर पाउट वाली सेल्फ़ी उतारना भी ऐसी कसक से याद आएगा, ये पहले मालूम होता तो आँख मींचकर एक एक घूँट वो पीती अपना अकेलापन!
बड़े घरों में अकेले बैठकर खाने का विषाद नहीं होता, मैसेंजर खोलकर किसी और से बात करने की नौबत तो क्या मोहलत ही नहीं होती। तब क्या सुख होता? शायद हां ही। या कौन जाने। सुख भी कोई एक कहां होता है? या दो सुख एक साथ कहां रह पाते हैं? और दूसरा सुख जब जगह बनाने के लिए पहले को धकेलता तो इतने भर से वो मर थोड़े ना जाता? हद से हद रोता अकेले, मोड़कर घुटने, पर नष्ट थोड़े ना हो जाता!
एक घर दूसरे को बेदख़ल कर देता, दूसरा कमरा तीसरे को। हर चीज़ पहले से बड़ी हो जाती। और बहुत सारे लोग मिलकर एक अनबांटे अकेलेपन को मुस्कराते हुए कुतर लेते। जो अदेखा रहना चाहता था रसोईघर की दीवारों को निहारते अपलक, वो यों भी कब किसी हुजूम में शुमार था? तो शायद कुछ नहीं ही बदलता, एक पते के सिवा, जहाँ संध्या को लौटती थी चिड़िया, और हो जाती थी बेपता!
Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)