श्रद्धा जैसी लड़की फँसती नहीं, फँसाई जाती है और फिर उसके टुकड़े किये जाते है
-सर्वेश तिवारी श्रीमुख की कलम से-
Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
दरअसल आप सच को स्वीकार ही करना नहीं चाहते।
कभी बोरे में, कभी सूटकेस तो कभी फ्रिज में मिलती लड़कियों की लाशों पर लोग यह मान लेते हैं कि लड़की उदण्ड थी, परिवार की बात नहीं सुनी सो अपनी करनी का फल पा गयी। वस्तुतः यह 99% मामलों में गलत आकलन होता है।
सच यह है कि लड़की फँसती नहीं, फँसाई जाती है। उसके चारों ओर इतना मजबूत जाल बनाया जाता है कि अंततः उसे फंसना ही होता है। लड़के का सहयोग करने वाले हजार होते हैं, पर लड़की को किसी ने बताया तक नहीं होता है कि इन लुटेरों से दूर रहना है।
गाँव में मैट्रिक इंटर में पढ़ने वाली अधिकांश लड़कियां ना तो सोशल मीडिया से जुड़ी हैं, ना ही अखबार पढ़ती या समाचार देखती हैं। जो सोशल मीडिया में हैं भी, वे अपनी सहेलियों, दोस्तों से जुड़ी गीत, गजल शायरी में डूबी हैं। परिवार के लोगों ने कभी ढंग से समझाया तक नहीं होता कि ऐसे लड़कों से दूर रहना है। भरोसा नहीं होता तो अपने पड़ोस की किसी इंटरमीडिएट की स्टूडेंट से पूछिये कि क्या वह इस तरह की सूटकेस वाली घटनाओं को जानती है। आपको उत्तर ‘नहीं’ में ही मिलेगा।
लड़की का क्या दोष? वह टीवी देखती है, वहाँ प्यार पसरा हुआ है। इंस्टा, फेसबुक पर भी लभ वाली शायरी पसरी हुई है। गार्जियन उससे मिलते भी हैं तो रिजल्ट पर बात करते हैं। धर्म तो कभी बातचीत का हिस्सा ही नहीं होता। वैसी लड़की किसी शिकारी के जाल से कहाँ बच पाएगी?
टीवी पर, स्कूल-कॉलेज में, खेलकूद में, अखबार पत्रिका में, कोर्स की किताबों तक में सेक्युलरिज्म की महिमा गायी जा रही है। ऐसे समय में यदि परिवार भी बच्चों से धर्म को लेकर बात नहीं करे तो फिर बच्ची कैसे समझेगी? ऐसी लड़की को कोई आफताब मिलता है जिसने अपनी फेसबुक आईडी तक में धर्म के कॉलम में “मानवता” लिखा है, और प्रेम की मूर्ति बना उसकी दुनिया बदल देने के दावे करता है, तो उसके लिए बचना आसान है क्या? उसे तो सब सामान्य ही लगेगा न?
और जब लड़की फँस जाती है तो लोग उसे ही गाली देने लगते हैं। लोग भूल जाते हैं कि वह “शिकार” है। जो विरोध शिकारी का होना चाहिये, वह शिकार का होने लगता है। सच यह है कि एक बार फँस जाने के बाद बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता लड़की के पास। एक ओर से इमोशनल ब्लैकमेलिंग तो दूसरी ओर से फोटो वीडियो वायरल करने का भय। कुछ भी कीजिये, वह नहीं निकल पाती।
सूटकेस या फ्रीज में लाश बन कर पड़ी लड़कियों पर हँस कर आप मुद्दे का मजाक भले बना लें, इस भयावह बीमारी को दूर नहीं कर सकेंगे। इसे दूर करने के लिए आपको पीड़ित का नहीं, शिकारी का विरोध करना होगा।
इस भयावह बीमारी पर बात कीजिये, अपने अड़ोस-पड़ोस में चर्चा कीजिये, बच्चियों को बताइये कि वे टारगेट पर हैं। तब बीमारी खत्म हो पाएगी। हँस कर आप शिकारी का मनोबल ही बढ़ा रहे हैं।
साभार: सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)