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ग़ालिब की हवेली

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India: Sushobhit:
एक ज़माने में ग़ालिब की शोहरत का ये आलम था कि लोगबाग “ग़ालिब, दिल्ली” के पते पर ख़त लिख भेजते और चिटि्ठयां ठीक ठिकाने पर पहुंच जातीं। और ये केवल इसीलिए नहीं था कि ग़ालिब “शाह का मुसाहिब बनकर इतराता फिरता था”, जैसा कि ख़ुद ग़ालिब ने एक दफ़ा दिल्लगी में कहा था। सचमुच ही शहरे-शाहजहानी में ग़ालिब की बड़ी आबरू थी!

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एक वो दिन था, और एक आज का दिन है, जो मजाल है देश की रजधानी में आप मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली देखना चाहें और ढूंढकर दिखला दें!

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चांदनी चौक– जो यों ही इतनी घनी बसाहट है के उम्र उसमें गुम होके मुद्दत बन जाती है, वक़्त उसमें गुम होके मआज़ी– पर ऊंघते खड़े रिक्शावालों से आप कहें कि मिर्ज़ाजी की हवेली चलोगे तो वो चौंककर आपको देखते हैं। अव्वल तो वो समझते हैं कि हों ना हों, ये मिर्ज़ाजी चुंगी महक़मे के कोई आला ओहदेदार होंगे, लेकिन उनका पता भला हमें क्यों मालूम होने लगा। बाज़ रिक्शेवाले समझते हैं ये नब्ज़ देखकर नुस्ख़ा लिखने वाले कोई हकीम लुकमान हैं। “अजी, हमें ग़ालिब की हवेली जाना है”, झुंझलाकर ये कहने पर भी बिना हरूफ़ का एक चेहरा हमारी तरफ़ लौटता है। अब क्या करें?

तब हारकर आप पूछते हैं, बल्लीमारां तो देखा होगा? हां जी, क्यों नहीं देखा, लेकिन बल्लीमारां बहोत तवील इलाक़ा है, उसमें आपको कहां जाना है? अब आप फिर फंस गए। फिर आप कुछ आसपास का अंदाज़ा लगाकर बतलाते हैं– पंजाबी फाटक? शम्सी दवाख़ाना?‌ हकीम शरीफ़ ख़ां की मस्जिद? अजी, गली क़ासिमजान तो देखी ही होगी?

तब जाके रिक्शा वाले को कुछ अता-पता सूझता है। वो आपको लादके चल देता है, उन्हीं गलियों के भीतर, जिनको शाइर ने “दलीलों-सी पेचीदा” बतलाया है। और तब आपको एक मोड़ पे दिखाई देती है- गली क़ासिमजान। औ, इसके साथ ही वक़्त के साथ ठहर गए वो तमाम ब्योरे- टाल का नुक्कड़, टाट के पर्दे, इत्र की महक, सांस की गिरफ़्त। इसमें जोड़ लीजिए माहे-रमज़ान का साज़ो-सामान- खजूरें, मेवे, खरबूज़े, पापड़, मुर्ग़े और बटेरें। और अब आप आख़िरकार ग़ालिब के पते पर जा पहुंचे हैं। लखोरी ईंटों और गारे की बनी एक पसमांदा इमारत।

“इसी बे-नूर अंधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ां की शुरू होती है!”

ये वो हवेली है, जहां हिंदोस्तां का सबसे बड़ा शाइर अपनी उम्र के दिन ख़र्च करता था। ये वो गली है, जो उसके क़दमों की आहटों से गूंजती थी। यों तो ग़ालिब का मूल मुकाम आगरे में था, लेकिन दिल्ली में बिताए पचास-पचपन सालों का बड़ा हिस्सा इसी गली क़ासिम में उन्होंने गुज़ारा। इसी गली में ग़ालिब उमराव बेगम को ब्याहने दूल्हा बनकर आए थे, यहीं से फिर उनका जनाज़ा भी उट्‌ठा।

हमीद अहमद ख़ां ने लिखा है- “गली क़ासिमजान के परले सिरे से इस सिरे तक चले आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाव से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंज़िलें तय कर लीं!”

लेकिन ये सारा इल्म तो हमें किताबों से मिला। ग़ालिब की हवेली तो अपने ही वजूद पर गूंगी है। अभी महज़ बीसेक साल पहले तक वहां ग़ालिब का वो बुत, उनके कपड़े, बर्तन, शाइरी की किताबें तक नहीं थीं। यहां तो कारख़ाने चलते थे। साल चौंसठ में हुकूमत ने इसको 22 हज़ार 4 सौ रुपयों में नीलाम कर दिया था। बाद इसके, इसका इस्तेमाल कोयले के भंडार से लेकर बारातघर तक की तरह किया गया। जबकि 1869 में ग़ालिब की मौत के बाद उनके चाहने वाले एक हकीम ने, जो कि इस हवेली का मालिक था और सेहन पर उसने उसे ग़ालिब को दे दिया था, यहां किसी और के घुसने की मनाही कर दी थी। वो यहां बैठा-बैठा “दीवाने-ग़ालिब” के वरक़ उलटता रहता।

वो “दीवान” ग़ालिब ने इसी हवेली में लिखा था, अदबो-सुख़न के दीवाने जिसको आंखों से लगाकर सोते हैं, नीमबेहोशी में जागकर चूमते हैं, के जो उनके सिरहाने का सामान है। दिल्ली में जंग और ग़दर के हैरान दिनों में ग़ालिब ने यहीं जैसे-तैसे दिन गुज़ारे। यहीं से वो ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में टेढ़ी अंगुलियों से ख़त लिखते और अपने हाल का रोना रोते। जनाज़े का डोला उठने से चंद रोज़ पहले एक ख़त में लिक्खा-

“मेरे मुहिब, मेरे महबूब! तुमको मेरी ख़बर भी है? आगे नातवां था, अब नीमजान हूं। आगे बहरा था, अब अंधा हुआ चाहता हूं। जहां चार सतरें लिखीं, उंगलियां टेढ़ी हो गईं। हरूफ़ सूझने से रह गए। इकहत्तर बरस जिया, बहुत जिया। अब ज़िंदगी महीनों और दिनों की है!”

फिर, ये भी तो ग़ालिब का ही कलाम था ना-

“कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया।”

उस रोज़ उस वीरान हवेली में पैदल टहलते ये तमाम बातें ख़याल आईं तो जैसे रौंगटे खड़े हो आए। रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। गर्दन पर ग़ालिब की सांसें महसूस होने लगीं। शाइर भला कब मरता है? मरते तो केवल माह-बरस हैं। मरते तो चांद-तारे हैं। शाइर की मर्गे-नागहानी कैसे?

“क्यूं भाई, कनॉट प्लेस चलोगे?” झट्‌ट से जवाब आया- “जी हुज़ूर।” “तालकटोरा जाना है।” “हां, हां, अभी चलो।” “करोलबाग़?” “जी जनाब।” “चावड़ी बाज़ार?” “अभी लीजिए।”

एक ग़ालिब की हवेली ही दिल्ली में किसी को नहीं जाना। एक ग़ालिब की हवेली ही रिक्शा वालों के लिए अनजानी जगह है। वो ग़ालिब को कोई बूढ़ा और बेपता मुलाज़िम समझते हैं, जो अब मरा, तब मरा। ज़िंदा भी है या नहीं, क्या पता! ग़ालिब की हवेली का पता किसी को क्यूं कर मालूम हो? ये ग़ालिब भला कौन है?

तिस पर इतना ही कहूं के–

“पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?”

Sushobhit

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