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गीता के तीसरे अध्याय (कर्मयोग) में ऐसा सूत्र आया है कि उस पर आजीवन मनन किया जा सकता है।

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
गुणा गुणेषु वर्तन्त
गीता के तीसरे अध्याय (कर्मयोग) में ऐसा सूत्र आया है कि उस पर आजीवन मनन किया जा सकता है।
यह 28वाँ श्लोक है : ‘गुणा गुणेषु वर्तन्त।’ गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। जैसे त्रिगुणात्मिका प्रकृति की कोई स्वचालित प्रक्रिया है। आपसे पृथक है। आपके बिना भी हो रही थी, आपके बिना भी होती रहेगी- अभी मध्य में आप उसके प्रभाव में आ गए हैं। उससे कर्मों की उत्पत्ति हो रही है- किन्तु गुण और कर्म, पदार्थ और ​क्रिया- दोनों पृथक हैं। किससे पृथक हैं, उसे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं, पूरी गीता में ही क्या, समस्त वेदान्तिक साहित्य में उसे नानारूपों में कहा गया है।

इससे पूर्व के 27वें श्लोक में इसकी पीठिका बाँध दी गई थी : ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।’ सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं। यहाँ फिर वही स्वचालित प्रक्रिया आ गई। इसका बोध कर्त्ताभाव के भ्रम से मुक्त करता है। आगे और स्पष्ट किया है : ‘अहङ्कारविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।’ परन्तु अहंकार से विमूढ़ व्यक्ति ‘मैं कर्त्ता हूँ’ ऐसा मानता है। यह जो ‘अहङ्कारविमूढ़ात्मा’ पद है, यह गीता-मर्मज्ञ स्वामी रामसुखदास का बीज-मंत्र बन गया था, उनके विवेचन में असंख्य बार यह आया है।

जिस 28वें श्लोक की हम बात कर रहे थे, उसकी विशिष्टता ‘गुणकर्मविभाग’ का कथन भी है। यहाँ विभाग शब्द विभेद को व्यक्त करता है। गुण और कर्म दोनों का विभेद है। किससे? कहने की आवश्यकता नहीं।

पूरा श्लोक इस प्रकार है :

‘तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।’ 3.28।।

परन्तु (तत्त्ववित्त (ब्रह्मवेत्ता) में ‘तु’ जुड़ने से यहाँ परन्तु का भाव आया है, क्योंकि ‘अहङ्कारविमूढ़ात्मा’ से तत्त्ववित्त का भेद बतलाना है) हे महाबाहो (यह अर्जुन को बल देने के लिए उससे कहा गया है), गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से पृथक जानने वाला ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’ ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता। ‘इति मत्वा न सज्जते’।

सांख्य दर्शन में जो प्रकृति-पुरुष है- जो कि प्रकारान्तर से जड़-चेतन का द्वैत है- उसमें यही है कि समस्त क्रियाएँ जड़ प्रकृति में हैं, चैतन्य में अक्रिया है। वेदान्त चैतन्यवादी दर्शन है और गीता में वेदान्त के ज्ञानकाण्ड का सार है। इस तीसरे अध्याय कर्मयोग से ठीक पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्य का उपदेश दिया था, उससे उसे बोध न हुआ तो कर्म का उपदेश देते हैं, किन्तु उसी बात को दूसरे रूप से कहते हैं, जिसे दूसरे अध्याय में कह दिया है।

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’- यह दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में आ गया है। तीसरे अध्याय में ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः’ कहकर विषय-प्रवर्तन किया है।

‘गुणकर्मविभागयोः’- गुणविभाग और कर्मविभाग। गुणों से कर्मों की उत्पत्ति होती है और गुण गुणों में ही बरतते हैं, किन्तु ‘इति मत्वा न सज्जते’- तत्त्ववित्त उनमें आसक्त नहीं होते, आत्मा को उनसे निर्लेप जानते हैं।

गीता का यह श्लोक मंत्र की तरह बारम्बार दोहराने और जीवनपर्यन्त मनन करने योग्य प्रज्ञा है- इसमें संदेह नहीं।

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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