गदर में बौद्धिकता न ढूंढिये। बस विशुद्ध मनोरंजन चाहिये तो देख आइये गदर, आनन्द आ जायेगा
- सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-
Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में जवान हुई पीढ़ी का सबसे प्रभावी सिनेमाई नॉस्टेल्जिया है गदर! हैंडपंप उखाड़ कर चिल्लाने वाला दृश्य तो पिछले पच्चीस-तीस वर्षों का सबसे अधिक प्रभावी एक्शन सीन है। सिनेमा हॉल में उतनी उत्तेजना, उतनी तालियां किसी और दृश्य पर नहीं बजीं। और शेर की तरह दहाड़ते तारा सिंह का डायलॉक- अशरफ अली.. कोई जोड़ नहीं भाई साहब! कोई जोड़ नहीं…
गदर 2001 में आयी थी। उसके तीन साल पहले ही कारगिल युद्ध हुआ था। कश्मीर में चूहे की तरह घुस कर अपना बिल बना चुके पाकिस्तानी आतंकियों की करतूतों पर देश में गुस्सा भरा हुआ था। अपने असँख्य बीर सैनिकों के बलिदान पर गर्व था, पर सबके हृदय में लावा दहक रहा था। ठीक उसी समय गदर आयी। सिंगल स्क्रीन सिनेमा का जमाना, छोटे शहरों के सिनेमा हॉल में छह रुपये में भी टिकट मिल जाती थी। फिर क्या था, देश उमड़ पड़ा हॉल में…
ग्रामीण भारत को दो अभिनेताओं की योग्यता पर बड़ा भरोसा रहा है। एक मिथुन चक्रवर्ती और दूसरे सन्नी देवल! “मतलब ये घुस गए तो अमेरिका के प्रेजिडेंट को टांग लाएंगे” ऐसा भरोसा था दर्शकों को… कारगिल युद्ध के बाद कई वर्षों तक स्कूल के फेकैत लड़कों ने यह गुप्त जानकारी बांटी थी कि सन्नी देवला और नाना पाटकर भी गए थे आतंकवादियों से लड़ने… तो भाई साहब! वही सन्नी देवला जब कहता है कि “एक कागज पर मुहर नहीं लगेगी तो क्या तारा सिंह पाकिस्तान नहीं जाएगा?” तो दर्शक आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं कि तारा सिंह तो जरूर जाएगा और फाड़ कर आएगा…
देश के मन में पाकिस्तान के लिए भरी आग को ठंढा किया था गदर ने। तारा सिंह जब अकेला पाकिस्तान में घुस कर परदे पर गरजता तो आम देहाती मन को सुकून मिलता था। आम जनता युद्ध को नहीं देख पाती, सो विजय के उल्लास को भी महसूस नहीं कर पाती है। 2001 में अशरफ अली और उसकी पाकिस्तानी सेना को चीरते फाड़ते तारा सिंह के साथ देश की आम जनता ने 1998 की विजय का जश्न मनाया था।
हम वे देहाती लड़के थे जो सारु खान को सदैव यह कह कर नकार देते थे कि “उ तो मउगा हीरो है, साला खाली पेयार करता है।” हम परदे पर शौर्य ढूंढते थे। तभी गाँव में मिथुन, सन्नी देवल, अजे देवगन, सलमान खान, संजे दत अधिक चलते थे। पर हर फिलिम में मार-धाड़ ढूंढने वाले लड़कों ने भी तारा सिंह के साथ तीन घण्टे प्रेम को जिया था। याद कीजिये मैडम जी को लाहौल छोड़ने जाने वाला दृश्य… वो दरिया रे, पानियाँ, वो मौजां फिर नी आनियाँ… सब याद है भाई।
तारा सिंह फिर आया है परदे पर। फिर घुसा है पाकिस्तान में… हम जानते हैं गदर के निर्देशक अनिल शर्मा को, हम जानते हैं डायलॉग लिखने वाले शक्तिमान को, हम जानते हैं तारा सिंह को… इसीलिये हम जानते थे कि तारा सिंह फाड़ कर रख देगा। उम्मीदों पर खरा उतरा है तारया… पिछली बार जब उसने हैंडपंप उखाड़ा तो पाकिस्तान हिल गया था, इस बार तो बस उनसे देखा भर है हैंडपंप की ओर, उसे हैंडपंप की ओर देखते देखकर ही भाग गए पाकिस्तानी। वो बूढ़ा नहीं होगा, तारा सिंह बूढ़े नहीं होते, सुनहरी यादें कभी बूढ़ी नहीं होतीं।
कुछ चीजें मिसिंग हैं, जैसे उत्तम सिंह का सङ्गीत। पुराने गीतों को छोड़ दें तो नए गीतों में दम नहीं। अरिजीत के प्रसंशकों को शायद पसन्द आये कराहता हुआ सङ्गीत… सकीना और जीते कमजोर कड़ी हैं, पर तारा सिंह ने सब मेंटेन कर दिया है।
गदर में बौद्धिकता न ढूंढिये। बस विशुद्ध मनोरंजन चाहिये तो देख आइये गदर, आनन्द आ जायेगा दोस्त।
साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।