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कांग्रेस की आगे की राह भी मुश्किल

-दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से-

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Positive India: Diwakar Muktibodh:
शिवसेना के मुखपत्र ‘ सामना ‘ ने हरियाणा विधान सभा के चुनाव के संदर्भ में अपनी संपादकीय टिप्पणी में एक जो बात कही है, वह बहुत मार्के की है। उसने लिखा है कि कांग्रेस जीती हुई बाजी को हारना अच्छी तरह जानती है। इस कटाक्ष का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं हो सकता। दरअसल कांग्रेस के जीतने की प्रबल संभावना थी, तमाम राजनीतिक समीकरण भी इसी ओर संकेत कर रहे थे पर उसकी अपनी गलतियों से जीत की ओर बढ़ते कदम लडखडा गए। परिणाम कुछ और ही निकला जो अचंभित करने वाला था। हरियाणा चुनाव की घोषणा के काफी पूर्व से यह कहा जा रहा था कि कांग्रेस की हवा बह रही है अत: भाजपा लगातार तीसरी बार चुनाव नहीं जीत पाएगी। चरणबद्ध मतदान की प्रक्रिया सम्पन्न होने के बाद देश का मीडिया भी अपने पूर्वानुमानों मे भाजपा की पराजय व कांग्रेस की जीत का बढ़चढ़कर दावा कर रहा था। किंतु नतीजे उसी तरह अप्रत्याशित आए जैसे दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में आए थे। इन दोनों राज्यों में विधान सभा चुनाव परिणाम को लेकर कांग्रेस अति उत्साहित थी, संवाद एजेंसिया भी एक ही राग अलाप रही थी किंतु सारे अनुमान व दावे, परिणाम के आते ही ध्वस्त हो गए। कांग्रेस का ख्वाब बुरी तरह टूटा। दोनों राज्यों में भाजपा ने पिछले चुनाव की तुलना में अधिक सीटें जीतकर सरकार बना ली। हरियाणा में भी यही हुआ। चौंकाने वाले रिजल्ट आए। यहां बेहतर चुनाव प्रबंधन की जीत हुई। दरअसल भाजपा ने सार्वजनिक चर्चाओं की परवाह न करते हुए केवल अपने काम पर ध्यान दिया। अपने रणनीतिक कौशल से सत्ता विरोधी हवा को धराशायी कर उसने यह साबित कर दिया कि तथाकथित हारी हुई बाजी को जीत में बदलना उसे अच्छी तरह आता है। हरियाणा चुनाव ने इस कथन की पुष्टि कर दी। अब जैसा कि प्रत्येक चुनाव में होता रहा है कांग्रेस पराजय के कारणों पर विचार-मंथन करेगी लेकिन अगले चुनाव में वह उसी पुराने ढर्रे पर लौट आएगी जिसमें स्पष्टतः नज़र आता है कि कांग्रेस के भीतर कई कांग्रेस हैं जिनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं, दावंपेंच है, एक-दूसरे को हराने, टांग खींचने और निष्क्रिय रहते हुए कसकर बयानों की जुगाली करने का माद्दा है। ऐसी कांग्रेस के लिए दशकों से चर्चित यह लोकोक्ति अमूमन सही लगती है कि कांग्रेस ही कांग्रेस को हराती है। छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश व हरियाणा इसके ताजातरीन उदाहरण हैं जहां नेताओं के अहंकार व चुनावी कुप्रबंधन से उसकी लुटिया डूब गई, उसे संभावित जीत से वंचित कर दिया।

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हरियाणा हो या जम्मू-कश्मीर , छत्तीसगढ हो अथवा मध्यप्रदेश, सभी विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस की विफलता के लगभग एक जैसे कारण हैं। फिलहाल हरियाणा की बात करें तो पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा, जो एक तरह से चुनाव की कमान सम्हाल रहे थे और स्वयं को भावी मुख्यमंत्री के रूप में देख रहे थे, का दलित नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा से टकराव, उनकी उपेक्षा, टिकिटों की बंदरबांट, लचर संगठन , गुटीय प्रतिद्वंदिता, जमीनी हकीकत से बेखबर रहना, मतदाताओं के रूख को भांप न पाना, जीत को लेकर अतिआत्मविश्वास तथा आम आदमी पार्टी व सपा के साथ गठबंधन न हो पाने को हार के प्रमुख कारणों में गिना जा रहा है। संगठन के स्तर पर छत्तीसगढ व मध्यप्रदेश में भी कुछ ऐसा ही रहा है। चुनाव के पूरे दौर में कांग्रेस आत्ममुग्धता का शिकार रही। हार की संभावना के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था पर परिणामों ने जोरदार झटका दिया। इन दो राज्यों में भाजपा के चक्रव्यूह को समझने में कांग्रेस ने भारी गलती की। लेकिन इससे भी दुखद बात थी पराजय से सबक न लेना। हरियाणा में कांग्रेस को समझ जाना चाहिए था कि कोई कुछ भी कहे, समर्थन में हवा कितनी भी तेज क्यों न बहे, दुश्मन को कमजोर समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। उसने वह भूल पुन: की। जनता का नब्ज टटोलने में वह विफल रही जबकि भविष्य की दृष्टि से यह जीत उसके लिए बहुत जरूरी थी। इस हार से सारे समीकरण गडबडा गये हैं। उसे बड़ा नुकसान इंडिया ब्लाक के साथियों के बीच अपनी स्थिति को लेकर हुआ है। वह अपेक्षाकृत कमजोर पड़ गई है जबकि लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से उसका मान बढ़ा था और वह लगभग बड़े भाई की भूमिका में आ गई थी। बहरहाल उस हैसियत को पुन: हासिल करने के लिए उसके पास आगे एक और मौका है – तीन राज्यों के चुनाव। महाराष्ट्र, झारखंड व दिल्ली विधान सभा चुनाव अगले कुछ महीनों में होने वाले हैं।

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लेकिन क्या कांग्रेस अब अपनी चुनावी रणनीति पर नये सिरे से विचार करेगी ? हरियाणा में उसे सबक मिला है पर क्या वह अपनी कमजोरियों पर काबू पाने की स्थिति में है ? हरियाणा के विधान सभा चुनाव में केन्द्रीय नेतृत्व ने भूपिंदर सिंह हुड्डा को पूरी ताकत दे रखी थी जिसका नतीजा यह निकला कि हरियाणा में केवल एक ही झंडा दिख रहा था – हुड्डा का, बाकी झंडे या तो स्टिक से बाहर ही नहीं निकले और यदि कुछ निकले भी तो वे गर्दन झुकाए हुए थे। यानी पार्टी नेतृत्व का हरियाणा के मामले एक गुट को खुली छूट देने का फैसला घातक रहा। अत: इस परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र व झारखंड में जहां वह गठबंधन में है, क्या पार्टी अपने घरेलू मामले में नये सिरे से विचार करेगी ? लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाडी के उत्साहवर्धक प्रदर्शन से यह कहा जा रहा है राज्य के आगामी विधान सभा चुनाव में भी अघाडी की संभावना प्रबल है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा अप्रत्याशित रूप से ऐसा कुछ कर जाती है कि पांसा पलट जाता है। फिर महाराष्ट्र में भाजपा, शिंदे-शिवसेना व अजीत पवार-एनसीपी के साथ सरकार में है। ऐसे में सत्ता विरोधी लहर चली भी तो वह शिवसेना व एनसीपी को अधिक प्रभावित करेगी। तो क्या इन दोनों राज्यों में भी ऐसा कोई करिश्मा घटेगा जैसा हरियाणा में नजर आया ? जाहिर है, ऐसा भी हो सकता अगरचे कांग्रेस सहित महाविकास अघाडी के सदस्य दल केवल एक लक्ष्य को लेकर न चले। वह लक्ष्य है भाजपा को महाराष्ट्र की सत्ता से बाहर करना। इस लक्ष्य को लेकर यदि प्रतिबध्दता रही तो दिल्ली दूर नहीं रहेगी। किंतु सीटों के बंटवारे के मामले में कांग्रेस को लचीला रुख अपनाना होगा। वैसे भी हरियाणा में पराजय के बाद कांग्रेस इंडिया ब्लाक के नेताओं के निशाने पर हैं। उसे नसीहत पर नसीहत मिल रही है।

महाराष्ट्र विधान सभा का कार्यकाल अगले माह 26 तक है जबकि झारखंड में पांच जनवरी 2025 के पूर्व विधान सभा चुनाव कराने होंगे। झारखंड में विधान सभा की 81 सीटें हैं। कांग्रेस, हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार के साथ महागठबंधन में है। इस बार महागठबंधन की चुनौती सत्ता विरोधी भावनाओं को कमतर करने के साथ चुनाव जीतना है। यहां कांग्रेस के 17 विधायक हैं। इस आंकड़े को कायम रखना आसान नहीं होगा। सर्वे बता रहे हैं कि भाजपा के नेतृत्व में उसके गठबंधन को बहुमत मिल सकता है। वैसे झारखंड की राजनीतिक तासीर मिश्रित जनादेश के साथ हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन की रही है।

बहरहाल इन दो राज्यों की तुलना में कांग्रेस को अधिक कठिन चुनौती जनवरी-फरवरी 2025 में होने वाले विधान सभा चुनाव है। चूंकि हरियाणा सीटों के तालमेल पर बात नहीं बन पाई थी अत: आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ सीटों के तालमेल से फिलहाल इंकार कर दिया है। यहां दस वर्षों से कांग्रेस का कोई विधायक नहीं है। देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दूसरी नहीं हो सकती। अब देखना होगा दिल्ली में अपने सूखे को खत्म करने वह किस तरह की रणनीति अपनाएगी। यदि उसका एक विधायक भी चुन लिया जाता है तो यह पार्टी की उपलब्धि मानी जाएगी।

यह तथ्य बहुत स्पष्ट है कि आगामी चुनावों में यदि कांग्रेस को अपनी स्थिति मजबूत करनी है तो उसे कई उपाय करने होंगे। सबसे पहले केन्द्रीय नेतृत्व को दृढता दिखानी होगी। ढुलमुल नीति को त्यागना होगा। चाटुकारों की फौज को दरकिनार कर पार्टी को जीने वाले ईमानदार नेताओं व कार्यकर्ताओं को महत्व देना होगा तथा नेताओं की नाराजगी की परवाह किए बिना कठोर लेकिन सही फैसले लेने होंगे। इसे भले ही नादिरशाही माना जाए पर संगठन में अनुशासन कायम रखने और नीचे से उपर तक के नेताओं की तूफानी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने की दृष्टि से ऐसे कदम आवश्यक हैं। अभी जिला व प्रदेश स्तर पर पार्टी की स्थिति यह है कि यहां अधिकांश जमावड़ा हवाई नेताओं का है। न तो जमीनी नेताओं की पूछ-परख है और न कार्यकर्ताओं की। भाजपा के उत्थान का सबसे बड़ा सबब है कठोर अनुशासन और दमदार नेतृत्व। भाजपा में किसकी मजाल है जो मोदी-शाह के किसी राजनीतिक फैसले को चुनौती दे ? लेकिन कांग्रेस में हर वो नेता आंखें दिखाने लगता है जिसका काम नहीं बनता। इस तरह के रवैये से क्या किसी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है ? हालाँकि राहुल गांधी बहुत कोशिश कर रहे पर तस्वीर तभी बदलेगी जब नीचे से उपर तक की इकाइयां मजबूत बनेंगी, नेता-कार्यकर्ता पार्टी को महत्व देंगे तथा निजी स्वार्थ को परे रखेंगे। क्या यह संभव है?

साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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