राजेंद्र यादव के लिए औरतें देह और दाम दोनों के साथ प्रस्तुत थीं
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
‘प्यार शब्द घिसते-घिसते अब चपटा हो गया है/ अब हमें सहवास चाहिए।’ जैसी कविताएं लिखने वाली ममता कालिया ने एक समय मन्नू भंडारी के मार्फ़त राजेंद्र यादव की घाघरा पलटन का ज़िक्र किया था । उन दिनों लोग राजेंद्र यादव की घाघरा पलटन से डरते बहुत थे। खास कर महिलाएं। दरअसल राजेंद्र यादव ने उन दिनों हंस को प्रमोट करने के लिए दो तरह के गैंग बनाए थे। एक औरतों का। वह स्वच्छंद औरतें जो अमीर भी थीं। दूसरे , दलित और पिछड़ों का। इस तरह स्त्री और दलित विमर्श को उन्हों ने एक निर्णायक मोड़ दिया। इन में भी ख़ास कर कुछ भ्रष्ट दलित और पिछड़े अफसरों को प्रमोट करने में राजेंद्र यादव ने गज़ब फूर्ति और चेतना दिखाई। औरतों , दलितों , पिछड़ों का गैंग बना कर हंस को चर्चा में डाल दिया। इतना कि लोग उन्हें डॉन कहने लगे। यह दोनों गैंग हंस और राजेंद्र यादव दोनों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक मदद भी करते थे , उन का महिमा मंडन भी करते थे। कुछ लोग उन के लिए मंहगी शराब आदि की भी नियमित व्यवस्था करते थे। कुछ लोग यात्रा आदि की भी। जब कि औरतें देह और दाम दोनों के साथ प्रस्तुत थीं। बदले में राजेंद्र यादव उन की रचना पिपासा शांत करते। कहानी कमज़ोर भी होती तो भी उसे ठीक-ठाक कर , दुबारा लिख-लिखवा कर छपने लायक बनवा देते। किसी घाघ राजनीतिज्ञ की तरह इस स्त्री और दलित के कोलाज में उन्हों ने मुस्लिम छवि की भी छौंक भी लगाई। हनुमान को दुनिया का पहला आतंकवादी लिख कर हलचल मचाई। इन सब चीज़ों से उन की छवि कहीं धूमिल न पड़ जाए तो कुछ ब्राह्मण , क्षत्रिय टाइप के भक्त लोगों को भी साथ जोड़े रखा।
इन सारी चीज़ों के ऊपर राजेंद्र यादव की दो बड़ी ताकत यह थी कि एक तो उन का अध्ययन ज़बरदस्त था दूसरे , वह लोकतांत्रिक बहुत थे। सब से बराबरी से बात करते थे। उन के जैसा अध्ययन हिंदी में तब के दिनों बहुत कम लोगों के पास था। याद करता हूं तो पाता हूं कि रामविलास शर्मा के बाद मुद्राराक्षस , मनोहरश्याम जोशी , श्रीलाल शुक्ल और राजेंद्र यादव। अध्ययन के अलावा संपर्क भी राजेंद्र यादव का ज़बरदस्त था। उन के दरवाजे सभी के लिए खुले रहते थे। नए-पुराने हर किसी को वह नाम और उस की रचना से जानते-पहचानते थे। उन की पारदर्शिता भी उन को हर किसी से अलग करती थी। इसी के दम पर राजेंद्र यादव ने हिंदी पट्टी में नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी की तानाशाही को तार-तार किया था। लेकिन अतिशय औरतबाजी के दंभ में वह खुद भी तार-तार हो गए। प्रेम विवाह के बावजूद मन्नू भंडारी बिना तलाक के उन से अलग हुईं उन की औरतबाजी की बीमारी के काऱण। उन की औरतबाजी के तमाम किस्से मन्नू भंडारी ने लिखे हैं। खुद राजेंद्र यादव ने अपनी औरतबाजी के तमाम किस्से लिखने से गुरेज नहीं किया है। एक बड़ी लेखिका प्रभा खेतान के लिए तो उन्हों ने श्रद्धांजलि लेख में भी लिखा कि वह जब भी मिलती बाहों में मिलती।
प्रभा खेतान ने एक समय हंस को बंद होने से बचाया था। एकमुश्त पांच साल की छपाई आदि के खर्च की व्यवस्था कर के। आखिर के समय में मैत्रेयी पुष्पा ने उन के इलाज आदि के खर्च से निश्चिंत किया था। हंस बंद न हो इस के लिए मैत्रेयी पुष्पा ने भी कई सारे जतन किए। लेकिन एक समय राजेंद्र यादव को लुभाने के लिए भी मैत्रेयी ने कई सारे जतन किए। अकसर साड़ी बदल-बदल कर वह उन के पास जाती थीं। ऐसा बहुत कुछ मैत्रैयी ने खुद ही लिखा है। मैत्रेयी ने लिखा है कि राजेंद्र और उन का संबंध कृष्ण और द्रौपदी का था। महाभारत को ठीक से पढ़ने वाले जानते हैं कि द्रौपदी कृष्ण की प्रिया थीं। बहुत सी कथाएं हैं राजेंद्र यादव और मैत्रेयी पुष्पा की। मैत्रेयी पुष्पा , मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव की।
मन्नू भंडारी की ज्ञात-अज्ञात तमाम सौतें हैं पर मैत्रेयी जैसी कोई नहीं। मन्नू जी का लिखा बताता है कि मैत्रेयी ने उन्हें बहुत घाव दिए हैं। और फिर प्रतिवाद में मैत्रेयी का लिखा बताता है कि राजेंद्र यादव और उन के बीच कोई बाधा अगर थी तो मन्नू भंडारी थीं। मैत्रेयी की कुल कमाई ही राजेंद्र यादव हैं। राजेंद्र यादव न होते तो मैत्रेयी पुष्पा का नाम भी हिंदी पट्टी में नहीं जानता कोई। मैत्रेयी ही क्यों तमाम ऐसी लेखिकाएं हैं जो बिना राजेंद्र यादव के साथ संबंध के कुछ नहीं हैं। राजेंद्र यादव के साथ संबंध के लिए लोग उन्हें ज़्यादा जानते हैं , उन की रचना के नाते नहीं। इन महिलाओं की रचना का नाम लोग भूल जाते हैं। अब अलग बात है कि रचना यादव राजेंद्र यादव की बेटी का भी नाम है।
आख़िरी समय में यह रचना ही थीं जिन्हों ने अपनी सूझ-बूझ से राजेंद्र यादव को ज्योति कुमारी की भंवर से जैसे-तैसे निकाला। न निकाला होता तो राजेंद्र यादव या तो जेल में मरे होते या फिर कोई और अपमानित मौत पाते। और फिर हंस पर आज की तारीख में ज्योति कुमारी और उन के लोग काबिज होते। हंस के ट्रस्ट में ज्योति कुमारी ट्रस्टी बनना चाहती थीं। राजेंद्र यादव पर तो वह तब काबिज थीं ही , हंस पर भी काबिज होना चाहती थीं। हंस का स्वामित्व और लाखो रुपए की मांग थी। राजेंद्र यादव को एफ आई आर से बरी करने के लिए। यह कथा आगे कभी।
खैर , मुड़-मुड़ कर देखता हूं में राजेंद्र यादव ने अपनी पहली प्रेमिका मीता से लगायत सारा आकाश फिल्म की हीरोइन तक से अपनी देहगाथा लिख कर बताई है। जो शेष रह गईं उन्हें स्वस्थ आदमी की बीमार बातें में बता दिया। लेकिन स्वस्थ आदमी की बीमार बातें में वर्णित स्त्रियों के अलावा और भी स्त्रियां अभी शेष हैं जिन्हें राजेंद्र यादव ने अपनी बढ़ती उम्र , अस्वस्थता , और पैर की लाचारी के बाद भी भोगा। यह हंस के ग्लैमर का जादू था। कि औरतें राजेंद्र यादव के पास खुद ही खींची जाती थीं। अलग बात है लखनऊ में एक बार राजेंद्र यादव की उपस्थिति में अशोक वाजपेयी ने बताया था कि तमाम पत्रिकाओं में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली हंस है और हंस की सर्वाधिक प्रसार संख्या बारह हज़ार ही रही है । बारह हज़ार से बहुत ज़्यादा तो हिंदी में लेखक ही हैं। तो क्या सिर्फ़ लेखकों की ही पत्रिका है हंस। तो पाठक कहां हैं ?
राजेंद्र यादव की घाघरा पलटन की कथाएं सिर्फ कानाफूसी तक ही सीमित नहीं हैं। हंस के तमाम पन्नों पर भी बिखरी पड़ी हैं। स्त्री विमर्श के नाम पर औरतबाजी की ही तरह राजेंद्र यादव के हंस का दलित विमर्श भी एक बड़ा धोखा था , धंधा था , यह बात भी कितने लोग आज स्वीकार करने की स्थिति में हैं ? इस की निर्मम पड़ताल भी ज़रूरी है।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार है)