पिता कहीं नहीं जाते! वे हमेशा अपने बच्चों के आसपास ही होते हैं।
-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-
Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
उसे किसी ने बताया था, “पिता कहीं नहीं जाते! वे हमेशा अपने बच्चों के आसपास ही होते हैं। बल्कि अपने बच्चों के भीतर ही रहते हैं, बस दिखते नहीं…” यह बात वह कभी समझ नहीं पाता था कि हमेशा के लिए चले गए पिता(Father) आसपास कैसे हो सकते हैं? उसे लगता था, दार्शनिक बनने के चक्कर में लोग खाली फेकैती करते रहते हैं।
फिर एक दिन उसका ब्याह हुआ। उसके बच्चे हुए। जाने कैसे अपने आप बाजार से लौटते समय चॉकलेट खरीदने की आदत लग गयी उसे। किसी मॉल में जाता तो अनायास बच्चों के कपड़ों वाली साइड में जा कर एक आध टी शर्ट उठा लेता। खुद कभी आइसक्रीम न खाने वाला वह ठेला देखते ही उसे मुस्कुरा कर रोक लेता और पुकारने लगता बेटे-बेटी को… उसे पता ही नहीं चला कि वह धीरे धीरे बदल रहा है।
बच्चे थोड़े बड़े हुए तो उनके रिपोर्ट कार्ड का नम्बर परेशान करने लगा उसे। वह दिन भर सोचता, “यह तो बड़ा कमजोर है… आज के जमाने में ऐसी पढ़ाई से क्या ही काम चलेगा? इसका बेड़ा कैसे पार लगेगा राम! इसका पढ़ने में मन क्यों नहीं लगता?” हजार चिंताएं एक साथ घेरने लगीं उसे…
उसके दोस्त समझाते, “काहे टेंशन ले रहे हो मरदे! बच्चा है, धीरे धीरे पढ़ने लगेगा… अरे एक्के बार कलक्टर बना दोगे क्या जी…” सन्तोष देने वाली हजार बातें! हालांकि उसे सन्तोष मिलता नहीं था। बस वह चुप हो जाता था।
एकाएक उसे अपने भविष्य से अधिक बच्चों के भविष्य की चिन्ता होने लगी थी। “क्या करेगा यह? साला मेडिकल के एंट्रेंस में तो अब 720 में 700 लाकर भी काम नहीं चलेगा, फिर इसके लिए कोई संभावना ही नहीं… बीटेक वालों की भी यही दशा है, हजार में दो चार भरपूर कमाते हैं और बाकी दाल-भात कमाने में ही रह जाते हैं…” हजार बातें, अनावश्यक बातें…
कभी कभी सोचता “शहर में घर बन जाता तो ठिक हो जाता! इस ससुर से तो नहीं ही बनेगा, किसी तरह हमें ही बनवाना पड़ेगा… मार्केट में कुछ दुकानें बन जाँय तो किराए से चल जाएगा इसका आधा काम…” फिर कभी बिस्तर पर आराम से पड़े पड़े सोचता, “कुछ ज्यादा ही टेंशन नहीं उठा लिया हूँ? अरे अभी दस साल का ही तो है बेटा…” फिर एकाएक अपनी मासूमियत पर खिलखिला उठता।
फिर एक दिन उसे सुझा, “अरे साला! पापा भी ऐसे ही झनझनाये रहते थे यार! उनको भी यही लगता था कि हमसे कुछ नहीं होगा… इसी तरह बेचैन रहते थे और इसी तरह बनाते थे तिनके से घर… मैं भी धीरे धीरे पापा के जैसा ही हो गया हूँ।”
फिर उसने सोचा, “पापा की तरह हो नहीं गया हूँ बे! पापा घुस गए हैं मेरे भीतर! वे मेरे ही अंदर जी रहे हैं। वह दार्शनिक ससुरा ठीक कहता था, पिता कहीं नहीं जाते…”
उस दिन उसे यह भी समझ आया कि पिता गणित का वो सवाल हैं, जो अधिकांश विद्यार्थियों को सिलेबस खत्म होने के बाद समझ आता है। पिता जबतक होते हैं तबतक समझ नहीं आते।
साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।