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बाबूजी, तुम नहीं जा सकते-कनक तिवारी

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Positive India:Kanak Tiwari:
मक्खी टेलीफोन के चोंगे से निकलकर कान के रास्ते दिमाग में भनभनाने लगी। ’भैया, बाबूजी नहीं रहे।’ छोटे भाई का गला मक्खियों से भर गया था-‘अंत्येष्टि कल होगी।

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आज सुबह से गहमागहमी है। लाश उठेगी। कांधों पर चढ़ेगी। आज उनके सिरहाने बैठा मैं गोदान के एवज़ में पंडित को पाँच सौ एक रूपए दे रहा हूँ। पिता को मैं ढाढस बँधा रहा हूँ।

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मातृविहीन रहा मैं अब पितृविहीन होने का शुल्क भर रहा हूँ। जीवन में मेरा दाखिला उनकी ही वजह से हुआ था। उनका स्थानांतरण-प्रमाणपत्र काल मेरे हाथों धर रहा है। अरथी पर चढ़ी उनकी देह के ऊपर से फेंके गए लाई, मखाने, सिक्के मुफ़लिस छोकरे बटोर रहे हैं।

यह जो मेरे कांधे चढ़ा है, इसकी क्षुधापूर्ति का क्या होगा? रियासत के अकाल-कवलित ठेकेदार का इकलौता बेटा ताऊ के जु़ल्मों का शिकार होकर अपने शिशुत्व का लालन पालन कहाँ कर पाया! एक विधवा माँ और तीन बहनों की आँखों का तारा पशुओं के चारागृह में रहने पहुँचा दिया गया, क्योंकि उसने कच्ची उम्र में पक्का बँटवारा माँगा था।

छियासी बरस की बूढ़ी भरी देह में जीवन की कितनी ताब बाकी है? लोग चारों तरफ से फुसफुसा रहे हैं-

’प्रदेश के मुख्यमंत्री तक की हिम्मत नहीं थी इससे बहस करने की।’

’अरे वह मंत्री तो इतना सिटपिटा गया था कि रुआँसा हो गया था।’

’कुछ भी कहो, आदमी मर्द था!’

बचपन में ऊपर के कमरे में भरे अंगड़-खंगड़ से ऐसी कोई चीज़ ढूँढ़कर लाने को कहता जिसके लिए खुद भूत के ख़ौफ़ की कहानी सुना देता। इससे लगने वाला भय वह उत्पे्ररण रहा है जहाँ भूत की भी सत्ता ने इसके सामने ही घुटने टेके थे।

चार लोगों के कांधे चढ़कर आज इसे आना पड़ा। चार आदमी तो क्या, दस-बारह भी रहे हों, इसने अपने कांधे लाद-लादकर उन्हें पछाड़ा है। झुके हुए कंधों पर हम लाचार, मूक लकड़ियाँ रख रहे हैं! तब वे झुके नहीं थे जब नाना के घर से बीसियों लोगों के आतंक के बावजूद वह मुझे अपने बलिष्ठ कंधों पर उठा लाया था। लकड़ियाँ इस पर ऐसे रख दी गई हैं मानो उठकर भाग जाएगा। जब-जब जहाँ इसका मन चाहा है, गया है। आज उसे सोते-सोते सबने छल से चित किया है। मेरे हाथ लकड़ियाँ बनकर सुलग रहे हैं। मैं इसे जला दूं? तब ही उसकी मुक्ति होगी? पिता की देह को जला देने से उसकी यादों का क्या होगा? वे तो मुझे जीवन भर जलाती रहेंगी।

इस आदमी ने दूध के पनारे बहा दिए थे। गत के कपड़े तक नहीं पहनाए। मिल के लट्ठे के कपड़े के जांघिए हमारी भद्रता के परचम बने अलगनी पर मेरे मातृविहीन शिशुत्व की तरह सूखते रहे। जूते-चप्पलों की क्या बिसात जो ड्यौढ़ी चढ़ पाएँ! घुड़की के डर से यार-दोस्त तो क्या, भूत-प्रेत भी भागते रहे। बाज़ार की सबसे सस्ती शाक-भाजी दैनिक आधार पर काम करने वाले श्रमिकों की तरह आती रही। वह कमबख्त कभी-कभी एवज़ी में आती रही, जब पिता सब्ज़ीवालियों के लिए आवेदन लिख दिया करते या उन्हें ढाढ़स बंधा दिया करते थे।

जब तक वह जीवित रहा, सब उसकी आँच से बचते रहे। स्कूल में पढ़ता था तो स्कूल का घंटा ही बागीचे के कुएँ में उठाकर फेंक दिया कि न स्कूल लगेगा और न ही ’गाॅड सेव दी किंग’ गाना पड़ेगा। किराए के गुन्डे मारने आए तो पूरी सड़क सोडावाॅटर की बोतलें फेंक-फेंककर पाट दी। उसके ज़माने में ’पापा कहते थे बड़ा नाम करेगा’ वाला रिकाॅर्ड बना ही नहीं था, अन्यथा उसके पिता ने उसे यतीम क्यों बनाया होता? उस आँच से जीवनभर वह झुलसता-झुलसता आज समूचा अग्निपुंज ही हो गया है। पिता वह जिन्न होता है जो मुट्ठी में कैद पुत्र के यश को हथेली पर सरसों की तरह उगाता है। मुट्ठियाँ खुलती जाती हैं। यश झरता जाता है। मुट्ठियाँ खुली की खुली रह जाती हैं।

हम गरुड़ पुराण सुन रहे हैं-यम-यात्रा का लोकोत्तर आख्यान। सश्रद्ध और सश्राद्ध व्यक्ति प्रेत नहीं हो पाता। बाई कहती हैं, ‘आखिरी वक्त मेरा नाम उनके उपचेतन में कंठ की परतों को चीरकर समा गया था।‘ मैं भी उनकी याद को काँटों की तरह अपने में गड़ाए रखना चाहता हूँ। शास्त्र काँटा निकलने के बाद के उखड़ते दर्द की पराजय पर मरहम लगाना मुझे सिखा रहे हैं। मेरी टीस मेरी निजी सम्पत्ति है। शास्त्र उस पर अपना पेटेंट कराने की ज़िद कर रहे हैं। पिता की निजता पर मेरा सर्वाधिकार है। वे मेरी यादों के अहसास के समुच्चय हैं। वे मुझमें क्यों नहीं जी सकते? उनसे उन्मुक्ति पा लेना उनकी मुक्ति करने के बराबर है? निजी रिश्तों में टाँग अड़ाने की दादागिरी को ही क्या शास्त्र कहते हैं? पिता की मृत्यु पुत्र के लिए त्रासदी है। पिता का मरणाोत्तर उनकी यादों की त्रासदी है। शास्त्र अपने आडंबर और बड़बोलेपन के बावजूद त्रासदी का गायन तक नहीं कर पाते। उनमें रुदन तक नहीं है। उनसे तो मैं ही अच्छा हूँ। मैंने रुदन को छाती का पत्थर बनाकर पिता की याद को आँख का आँसू बना दिया है। पिता की मृत्यु करुणा की कविता के अलावा क्या है ओ अशेष कथावाचक सूतजी?

पिता एक अदद सरोकार बनकर रह गए हैं। पेड़ की तरह अपनी टहनियों से विलग होकर जड़ से ही उखड़ गए

साभार:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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