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सिध्दांतों से हटकर बेमेल गठबंधन का हश्र

राजनीति स्वार्थ के लिए किये जाने वाला काम है

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Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
राजनीति मे किसी के पास भी सब्र नाम की चीज नहीं है। पता नही ये लोग कैसे देश को चलाने की सोच रहे है । जब आपस मे ही विश्वास की कमी है तो अपने कार्यकर्ताओ में ये बात क्यो खोजने निकलते है । कैसे भी कोई आदमी, जिनसे ये लोग सिद्धांत के नाम से लड़ा करते थे,अचानक एक होना, कैसे संभव है? चुनाव-2019 का गठबंधन(gathbandhan) एक बेहतरीन उदाहरण है। अगर स्वार्थ सिद्ध हो जाता तो ये आत्मिक गठबंधन(gathbandhan) कहलाता । परन्तु जरा सोचिए दो विपरीत ध्रुव का मेल तुरंत कैसे संभव हो सकता है? इन दलो ने पार्टी को जहाँ एक तरफ अपनी जागीर समझा वहीं कार्यकर्ताओं को सिर्फ कारिंदे ही समझा। । यही कारण है कि चुनाव के समय जब किसी से भी गठबंधन होता है तो कभी भी कार्यकर्ता से पूछने की औपचारिकता भी नही की जाती । एक फरमान जारी कर दिया जाता है कि हमारा इनसे गठजोड़ हो गया है । अब आप लोगो को इनका भी काम करना है। जिन्होंने अपने सत्ता के समय परेशान किया था, अब वो सब बात भूलकर हम उन्ही लोगो को सत्ताशीन करने के लिए दिलोजान से जुट जाए । ऐसे कैसे संभव है ? वही जनता भी इनके हाकने से उसी तरफ चले ये कैसे संभव है ? एक चुनाव मे एक दल, दूसरे चुनाव मे दूसरे दल की मित्रता कैसे एक आम कार्यकर्ता व जनता क्यो स्वीकार कर ले ? फिर इनसे पूछने का भी हक नही; नही तो दल का तथाकथित अनुशासन की गाज गिर जायेगी । पर होता यह है की इस तरह के स्वार्थ वाले राजनीति का जवाब कार्यकर्ताओ को ही देना पड़ता है। न बैंगलोर न कलकत्ता, बाइस प्रधानमंत्री किसी एक के लिए कैसे सहमत होते ? सबको लग रहा था “मौका ऐ मौका” को कैसे छोड़ दिया जाये। कोई भी त्याग करने के लिए तैयार नही है पर दूसरे से उम्मीद करते है की त्याग कर दे। बुनियाद ही गलत है । अभी मोदी सरकार में एनडीए गठबंधन(gathbandhan) मे शामिल नीतीश की पार्टी ने शपथ नही ली । उनकी शिकायत कि उनके दल को अनुपात मे जगह नही मिली । यही कहते है दिल का न मिलना । कुल मिलाकर राजनीति स्वार्थ के लिए किये जाने वाला काम है । बाकी जनता भी समझती है, इसलिए किसे कब खारिज करना है, ये जनता को भी पता है ।
लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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