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फ़ेसबुक पर ढपोरसंखी लेखकों की कम होती रीच का तराना और उन की फटी ढोल

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India: Dayanand Pandey:
गाते थे कभी रबींद्रनाथ ठाकुर एकला चलो रे ! और लोग उन के साथ आते ही रहते थे , एकला चलो रे ! गाते हुए। पर इन दिनों बहुत से ढपोरसंखी लेखकों को लगातार लग रहा है कि फ़ेसबुक पर उन की रीच कम कर दी गई है। इस बात का ऐलान यह ढपोरसंखी लेखक लगातार फ़ेसबुक पर करते रहते हैं। यह वही ढपोरसंखी लेखक हैं जो अपने से असहमत लोगों को अनफ्रेंड कर देते हैं। ब्लाक कर देते हैं। फिर भी फ़ेसबुक पर , फ़ेसबुक के ही ख़िलाफ़ मुनादी करते फिरते हैं कि उन की रीच कम कर दी गई है।। यह फ़ेसबुक की लोकतांत्रिकता कहिए या व्यावसायिकता कि अपने ख़िलाफ़ बातों को भी अपने मंच पर होने देता है।

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सच यह है कि तमाम ढपोरसंखी लेखक किसी अन्य की पोस्ट पर कम से कम जाते हैं। जाते हैं तो अपने गैंग के लोगों की ही पोस्ट पर कभी-कभार। तो फ़ेसबुक का एक अघोषित नियम है कि अगर आप की पोस्ट पर जो नियमित आता-जाता है या आप जिस की पोस्ट पर नियमित आते-जाते हैं , उन्हीं की पोस्ट आप को और आप की पोस्ट उन को दिखती है। सामान्य लोग शुरू में आप की पोस्ट पर आते हैं , आते ही रहते हैं तो आप उन्हें कीड़ा-मकोड़ा समझने लगते हैं। हेय दृष्टि से देखने लगते हैं सो वह आप से , आप की पोस्ट से कतराने लगते हैं। आप को ठेंगा दिखाने लगते हैं। आप को अनदेखा करने लगते हैं। आप की पोस्ट की लाइक कम होती जाती है। कमेंट कम हो जाते हैं।

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फिर आप को यानी ढपोरसंखी लेखक को लगता है , सत्ता उन के ख़िलाफ़ साज़िश रच रही है और फ़ेसबुक से कह कर उन की लाइक , कमेंट कम करवा रही है। यह अजब बीमारी है। अब यही एक काम रह गया है , सरकारों के पास ? अरे , ढपोरसंखी लेखक की समाज में क्या उपादेयता है ? क्या प्रभाव है समाज पर ? कोई बताए भी। बताए यह भी कि क्या इन ढपोरसंखी लेखकों को पढ़ कर कोई किस को वोट करेगा , यह राय बनाता है क्या ? लगातार एकपक्षीय बात करने , सावन के अंधे की तरह बात करने से कोई समाज बदल सकता है क्या ? कुएं का मेढक कभी कोई जनमानस बदल सकता है क्या ?

सच तो यह है कि ढपोरसंखी लेखक की रचना न प्रिंट में कोई पढ़ता है , न सोशल मीडिया पर। लेकिन ढपोरसंखी लेखक को निरंतर लगता है कि फ़ेसबुक पर उस की रीच कम की जा रही है। अरे मूर्खों , फ़ेसबुक पर ही नहीं , शेष समाज में भी तुम्हारी रीच ख़त्म हो चुकी है। कौन जानता है तुम्हें और कौन पढ़ता है तुम्हें , पहले यह तो सोचो। बंद कुएं , और बंद समाज के बाशिंदों तुम्हारा ज़माना अब लद चुका है। समाज के अंतिम हाशिए पर भी अब नहीं हो। एकालाप करने और महत्वोन्माद की बीमारी से ग्रसित ढपोरसंखी लेखकों तुम्हारे गिरोह के लोग ही तुम्हें जानते हैं , बहुसंख्य समाज नहीं। जिस को जो चीज़ चाहिए , खोज कर पढ़ता है।

तुम्हारी उल्टियां , तुम्हारी उबकाईयां , तुम्हारी खांसी , तुम्हारा बुखार , तुम्हारी हवा ख़ारिज , तुम्हारी पेचिश पढ़ने में किसी की दिलचस्पी अब नहीं है। फ़ेसबुक की भी नहीं और फ़ेसबुक पर उपस्थित लोगों की भी नहीं। ढपोरसंखी लेखकों तुम्हें लोग ख़ारिज कर चुके हैं , इस तथ्य को जितनी जल्दी स्वीकार कर सको , बेहतर है। फ़ेसबुक ने रीच कम कर दी है का तराना गाना अब बंद भी करो ढपोरसंखी लेखकों। यह ढोल बजाना बंद भी करो कि ढपोरसंखी लेखकों कि तुम्हारी रीच कम कर दी गई है। यह ढोल अब फट चुकी है।

तुम्हारी रीच कम , ज़्यादा करने में तुम्हारी अपनी कमज़ोरियां और बीमारियां हैं। तुम्हारे अपने छुआछूत हैं। एकला चलो रे ! की सादगी और ताक़त तुम्हारे पास नहीं है ढपोरसंखी लेखकों। न कभी थी , न होगी। फिर बेटा ढपोरशंखी लेखक , तुम लिखते भी तो सिर्फ़ अपने लिए ही हो। अपने लिए भी क्या लिखते हो ? अपनी ज़िद , अपनी सनक। तो तुम्हें कोई पढ़े भी क्यों ? ख़ुद लिखो , ख़ुद पढ़ो। एक दूसरे की पीठ खुजाते रहो। हर्ज क्या है ? रीच जाए भाड़ में !

साभार: दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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