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महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव 2024: दो गठबंधनों के बीच आरपार की लड़ाई

- दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से-

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Positive India:Diwakar Muktibodh:
महाराष्ट्र राज्य विधान सभा के चुनाव में जो राजनीतिक परिस्थितियां बनती-बिगडती दिख रही हैं, उससे अनुमान लगाना मुश्किल है कि जीत किस गठबंधन की होगी- महायुति की अथवा महाविकास अघाडी की, अलबत्ता यह अवश्य कहा जा सकता है कि अब तक हुए चुनावों में यह सबसे भिन्न चुनाव होगा. गठबंधन की छह पार्टियों के बीच ऐसा संघर्ष महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में अद्भुत ही कहा जाएगा। मतदान की तारीख 20 नवंबर जैसे जैसे नजदीक आते जा रही है, संघर्ष तीव्र से तीव्रतम होता जा रहा है। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान मतदाताओं को आकर्षित करने कुछ ऐसे शाब्दिक बम फेंके गए जो फटने के पहले ही फुस्स हो गए।मसलन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने एक नारा दिया था ‘ बटेंगे तो कटेंगे ‘। कहते हैं कि यह नारा हरियाणा के विधान सभा चुनाव में क्लिक हुआ तथा भाजपा तमाम सर्वेक्षणों को धता बताते हुए चुनाव जीत गई। अब महाराष्ट्र में भी भाजपा ने इस शस्त्र के जरिए माहौल बनाने की कोशिश की है किंतु मामला चल नहीं पाया। वह उलट मार कर रहा है। दरअसल इस नारे को लेकर महायुति में ही अंतर्विरोध है। गठबंधन में शामिल अजीत पवार की एनसीपी ने इसका खुलकर विरोध किया है और कहा है कि इस नारे की महाराष्ट्र में जरूरत नहीं है। शिंदे की शिवसेना में भी विरोध के स्वर सुनाई दिए। महायुति की पार्टियों में अंतर्विरोध की यह पहली घटना नहीं है। सीटों के शेयर के मामले में भी विरोधाभास स्पष्ट नज़र आया था। बागियों को यद्यपि मना लिया गया फिर भी कुछ सीटों पर यह नहीं संभव हुआ फलत: उनकी उपस्थिति की वजह से संघर्ष का दायरा बढ़ गया है। उधर महाविकास अघाडी भी काफी समय तक अंतर्द्वद्व की समस्या से जूझते रही. कांग्रेस की टिकिट न मिलने पर बड़ी संख्या में विद्रोही खड़े हो गए. अनुशासनात्मक कार्रवाई में करीब चार दर्जन नेताओं को कांग्रेस ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.फिर भी कुछ सीटों पर कांग्रेस के बागियों की वजह से वोटों का विभाजन तय है.

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इस चुनाव में सबकी नज़र राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार पर टिकी हुई है. महाविकास अघाडी की एनसीपी के इस वयोवृद्ध नेता ने इमोशनल कार्ड खेला है. उन्होंने भविष्य में चुनाव न लड़ने की घोषणा की है पर उन्होंने स्पष्ट किया है कि वे सक्रिय राजनीति में बने रहेंगे. मराठवाडा में विधान सभा की 80 सीटें पडती है. राज्य की कुल 288 सीटों में से करीब 116 सीटों को मराठा प्रभावित करते हैं. अविभाजित एनसीपी का मुख्य आधार मराठा मतदाता रहे हैं. इस राज्य ने शरद पवार सहित 16 मराठा मुख्यमंत्री देखे हैं. अत: उनका यह फैसला कितना भावात्मक असर डालेगा, कहना मुश्किल है किंतु यह अवश्य है कि यह योगी के नारे ‘ बटेंगे तो कटेंगे ‘ की तरह फ्यूज नहीं होगा.

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इस चुनाव में पिछले दिनों एक और अप्रत्याशित घटना घटी जिसने चुनावी राजनीति की तस्वीर बदल दी है. करीब डेढ वर्ष तक महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन के जरिए महायुति सरकार को हिला देने वाले मनोज जारंगे पाटिल ने चकित कर देने वाला फैसला लिया. समूचे महाराष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले आंदोलन के प्रमुख इस नेता ने करीब दो दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बनाया था. 4 नवंबर तक वे अपने फैसले पर अडिग थे और अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा करने ही वाले थे. उनका रूख देखकर महायुति खासकर भाजपा सकते में थी किंतु आश्चर्यजनक रूप से जारंगे ने 24 घंटे के अंदर न केवल निर्णय बदला वरन मराठों से अपील भी की कि वे आरक्षण आंदोलन के विरोधियों को केवल सबक सिखाने की गरज से वोट न करे. उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी पार्टी का समर्थन नहीं करते तथा मतदाता किसी को भी वोट करने के लिए स्वतंत्र हैं. उनके इस बयान से सहज ही यह अर्थ निकाला जा सकता है कि जारंगे का बदला हुआ रूख राजनीति प्रेरित था. उनके इस कदम से शिंदे सरकार में भाजपा के उप मुख्य मंत्री देवेन्द्र फडणवीस राहत की सांस ले रहे हैं. वे मनोज जारंगे के टार्गेट में थे. इससे महायुति को फायदा न सही, नुकसान होने की संभावना कमतर हो गई है. अब यह शोध का विषय है कि आखिरकार जारंगे ने ऐन वक्त पर यू टर्न क्यों लिया?

महाराष्ट्र का चुनाव दिलचस्प मोड पर है. गठबंधन के दो समूह आमने-सामने हैं. एनडीए की महायुति यानी भाजपा, शिंदे शिवसेना व अजीत एनसीपी एक तरफ तथा दूसरी ओर इंडिया ब्लाक की कांग्रेस, शरद पवार की एनसीपी तथा उद्धव ठाकरे की शिवसेना अर्थात महाविकास अघाडी. इन दो गठबंधनों की छह राजनीतिक पार्टियां जोर-आजमाइश कर रही हैं. यकीनन भाजपा हरियाणा विधान सभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत से अति उत्साहित है और महाराष्ट्र के मामले में भी वह ऐसे ही नतीजे की अपेक्षा कर रही है. चुनाव से बाहर रहने के जारंगे के कदम से उसकी उम्मीदें और बढ़ गई हैं. फिर भी वह पिछले विधान सभा चुनाव के परिणाम को दोहरा पाएगी, इसकी संभावना क्षीण है. 2019 में 104 सीटें जीतकर वह सबसे बड़ी पार्टी थी. लेकिन इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में उसकी जिस तरह उसकी दुर्गति हुई व कांग्रेस का उत्थान हुआ, वह उसके लिए चिंता का सबब है. 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 48 में से 17 सीटें मिलीं थीं जिसमें भाजपा का शेयर 9 सीटों का था जबकि 2019 के चुनाव में भाजपा की 23 सीटें थी. दूसरी ओर इंडिया ने 30 सीटें जीतीं. इस चुनाव में कांग्रेस की छलांग अद्भुत रही. उसने 13 सीटों पर कब्जा किया. 2019 के चुनाव में उसका केवल एक सांसद जीत पाया था.

महाराष्ट्र लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा को आत्म मंथन करने व नया चक्रव्यूह रचने पर विवश कर दिया. हरियाणा में तो उसे आशातीत सफलता मिल गई किन्तु महाराष्ट्र के चुनावी मंच में महायुति को महाविकास अघाडी से जो चुनौतियां मिल रही है, उसका सामना करना कठिन दिखाई पड़ता है. इसके कतिपय ठोस कारण है- प्रथमत: महायुति सरकार के खिलाफ माहौल जो आरक्षण आंदोलन से सघन हुआ और अभी भी असरकारक है , द्वितीय कृषि व कृषकों से संबंधित मुद्दे. अन्य है- महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्याएं तथा महिलाओं पर हो रहे अत्याचार. कांग्रेस ने आम जनता के इन मुद्दों पर जो तेज आक्रमकता दिखाई है, उसका असर वोटों के रूप में कितना तब्दील होगा, कहना मुश्किल है फिर भी लगता है वार खाली नहीं जाएगा. हालाँकि भाजपा के पास जो ट्रम्प कार्ड है वह महाविकास अघाडी व कांग्रेस की संभावनाओं पर पानी फेर सकता है. दरअसल अब भाजपा ने अपना ध्यान ओबीसी वर्ग पर केन्द्रित किया है. महाराष्ट्र में ओबीसी समुदाय की आबादी 38 प्रतिशत है जबकि मराठों की 33 प्रतिशत. आरक्षण आंदोलन के दौरान दोनों समुदाय आमने-सामने आ गए थे. लोकसभा चुनाव में भाजपा को कम सीटें मिलने की एक बड़ी वजह ओबीसी की नाराजगी मानी गई थी. चूंकि जारंगे के आंदोलन से भाजपा को विधान सभा चुनाव में भी नुकसान का अंदेशा था इसलिए काफी पहले से उसने ओबीसी वर्ग को साधने की रणनीति पर काम किया जो राज्य की 175 सीटों पर असर रखता हैं. विदर्भ की बात करें तो यहां की 62 सीटों में से 36 पर ओबीसी जातियों के मतदाताओं का खासा प्रभाव है. यह बहुत स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार द्वारा महाराष्ट्र चुनाव के ठीक पहले ओबीसी की केन्द्रीय सूची में सात नयी जाति समूहों को शामिल किया जाना भाजपा की इसी रणनीति का हिस्सा है. भाजपा को उम्मीद है कि केंद्र व राज्य के हितकारी निर्णयों के परिणामस्वरूप ओबीसी का बड़ा हिस्सा उसके पक्ष में वोट करेगा.

वैसे महाराष्ट्र चुनाव में मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा बीच है. महायुति के अंतर्गत भाजपा 148 सीटों पर, शिंदे शिवसेना 80 तथा अजीत पवार की एनसीपी 53 पर लड़ रही है जबकि महाविकास अघाडी में कांग्रेस ने 103, उद्धव शिवसेना ने 89 तथा शरद पवार की एनसीपी ने 87 उम्मीदवार खड़े किए हैं. भाजपा की कोशिश है कि पिछले चुनाव के परिणाम से बेहतर परिणाम इस बार मिलना चाहिए. उसने 2019 में 104 सीटें जीती थीं पर 2024 के लोकसभा चुनाव में दो दर्जन से अधिक विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में उसका प्रदर्शन खराब रहा था. यह उसके लिए चिंता का विषय है हालांकि शरद पवार के एक बयान से उसे राहत मिली है. शरद पवार ने महाराष्ट्र चुनाव के संदर्भ में कहा था कि महाविकास अघाडी में लोकसभा चुनाव के दौरान जो उर्जा देखी गई थी वह इस चुनाव में नज़र नहीं आ रही है. हालांकि कांग्रेस इस विचार से इत्तेफाक नहीं रखती. राहुल गांधी सहित पार्टी के तमाम नेता इस कोशिश में है कि सत्ता के ताले की चाबी उनके हाथ में आनी चाहिए. कांग्रेस का पिछले विधान सभा चुनाव में प्रदर्शन खराब रहा था. उसके केवल 44 प्रत्याशी चुनाव जीत पाए थे. किंतु इस बार उसे उम्मीद है कि यह आंकड़ा काफी आगे जाएगा.

चुनाव प्रचार अभियान अब अपने अंतिम चरण की ओर है. पार्टी स्तर पर तथा गठबंधन के स्तर पर भी चुनाव घोषणापत्र जारी हो गए हैं जिसमें एक दूसरे को चुनौती देते लोक लुभावन वायदें हैं. यह देखा गया है कि नगद राशि का प्रलोभन चुनाव में बड़ा असर दिखाता है. मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ 2023 में हुए विधान सभा चुनाव में महिलाओं को सहायता स्वरूप एक निश्चित मासिक राशि देने के वायदे ने भाजपा को अप्रत्याशित रूप से जीत दिला दी थी. अब महाराष्ट्र में भी उसे यही भरोसा है कि महिला मतदाताओं का पूरा समर्थन मिलेगा. बहरहाल उसके तथा महायुति के वायदों का कितना असर पड़ेगा, कहा नहीं जा सकता. कांग्रेस व महाविकास अघाडी के चुनावी वायदे भी आम मतदाताओं की दृष्टि में बेहतर कहे जा सकते हैं. लेकिन मतदाताओं के विश्वास को जीतने के इस राजनीतिक युद्ध में कौन बाजी मारेगा, कहा नहीं जा सकता. यद्यपि जीत-हार का फैसला 23 नवम्बर को मतों की गणना के साथ ही सामने आ जाएगा पर इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि किसी भी गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला तो गठजोड़ की राजनीति का नया दौर शुरू हो जाएगा.

साभार:-दिवाकर मुक्तिबोध(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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