www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

एक रूपसी चली आ रही है। दुपट्टा हवा में उड़ रहा है।

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

Ad 1

Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
जेहि चितवें एक बारि….
एक परीक्षा देने पटना आया हूँ। परीक्षा कक्ष भर गया है। कुछ खाली है तो मेरे हृदय में थोड़ी सी जगह और मेरे बेंच पर बगल वाली सीट। वैसे तो महीना पूस का है, पर जाने किधर से वसन्ती हवा घुस गई है मन में! अचानक मन धीरे से कहता है, इस बगल वाली खाली सीट पर किसी रूपसी को ही आना चाहिये।
पिछले कुछ दिनों से मैंने गद्य छोड़ कर कविता की राह पकड़ी है। लेखक हैज कन्वर्टेड इनटू कवि! हमारी माटी के विश्वप्रसिद्ध हास्य कवि डॉ अनिल चौबे की भाषा में कहें तो मन कबिया गया है। जो कहीं नहीं है, उसे भी अपने आस-पास देख लेने वाला प्राथमिक दुर्गुण आ भी गया है।
मैं कल्पना में खोया हूँ। एक रूपसी चली आ रही है। दुपट्टा हवा में उड़ रहा है। उड़ने के मामले में उसकी जुल्फें भी हमारे मन की उड़ान को मात दे रही हैं। सिर्फ एक ही सीट खाली है, सो तय है कि वह वहीं बैठेगी। मेरे पास… वह बढ़ी आ रही है। मेरे मन मे मुनव्वर जैसे कूद कूद कर शेर पढ़ रहे हैं- कुछ बिखरी हुई यादों के किस्से भी बहुत थे, कुछ उसने भी जुल्फों को खुला छोड़ दिया था… मैं मन ही मन राजेन्द्र कृष्ण को गाते हुए गोहरा रहा हूँ, “न झटकों जुल्फ से पानी ये मोती टूट जाएंगे, तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मगर दिल टूट जाएंगे…” पर जुल्फों से मोती झर ही रहे हैं, और उनके धक्के से मैं हवा में उड़ ही रहा हूँ।
केदारनाथ सिंह की कविता कक्ष में गूँज उठी है जैसे! वह आ रही है, जैसे छिमियों में धीरे धीरे आता है रस… मेरी आंखें उन आंखों में अटक गई हैं। फिर रीतिकालीन कवि रसलीन याद आ रहे हैं- जियत मरत झुकि झुकि पड़त, जेहि चितवें एक बार… मैं भी लगातार जी-मर रहा हूँ। उसने भी जैसे अपनी एक आंख में अमृत और दूसरे में हलाहल भरा हुआ है। वह मेरी ओर बढ़ती ही आ रही है।
पूरा परीक्षा कक्ष उसकी ही ओर देख रहा है और मेरे सौभाग्य पर जल उठा है। उसके अधरों को छू कर बहती हवा पूरे कक्ष में इत्र की तरह पसर गयी है। हिन्दी का वह साधु कवि याद आता है जिसे दुनिया निराला कहती है। “कुमुदों के स्मिति मंद खुले वो अधर चूमकर, बही वायु स्वछंद सकल पथ घूम घूम कर…”
अब मेरी दृष्टि उसके पैरों पर है। कल ही किसी बुजुर्ग साहित्यकार ने लिखा था कि प्रेम में पहली नजर पैरों को लगती है। उसके पैरों में पायल तो नहीं दिखती, पर हर ओर संतूर बज उठे हैं। पण्डित भजन सपौरी कोई पहाड़ी धुन बजा रहे हैं शायद, जिसकी लय पर चलता मेरा सौभाग्य मेरी ओर बढ़ रहा है…
अचानक मेरे कानों में एक कर्कश ध्वनि गूंज उठी है। मैं अनसुना करने का प्रयास करता संतूर की लय पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ, कि आवाज दुबारा गूंजी है- सर्र! सर्र…
मैं अपनी आंखों को खोलना नहीं चाहता। स्वप्न टूटने का भय हावी है। यूँ ही कहता हूं, क्या है?
आवाज की कर्कशता बढ़ गयी है। उधर से शायद चिढ़ कर कहा जा रहा है- आपके बगल वाली सीट हमारी है। घुसुकिये! हम दिलनवाज बेरा!
मैं अंदर ही अंदर चीख पड़ा हूँ- हैं??? बेरा? सत्यानाश हो तेरा…
अब बस एक ही कविता याद आती है। श्रधेय अटल जी… टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी…

Gatiman Ad Inside News Ad

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

Naryana Health Ad
Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.