Positive India: Sushobhit:
1957 की फिल्म है ‘प्यासा’, 1957 की ही फिल्म है ‘नया दौर’। दोनों के गीत साहिर ने लिखे। लेकिन ‘नया दौर’ में साहिर ने लिखा- “इस देश का यारो क्या कहना, ये देश है दुनिया का गहना।” और ‘प्यासा’ में साहिर ने लिखा- “कहाँ हैं, कहाँ हैं, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?”
आप कहेंगे, एक ही गीतकार, एक ही साल में दोनों बातें कैसे लिख सकता है? क्या वो हिप्पोक्रेट था? मैं कहूँगा, नहीं वो केवल पेशेवर था। अपना काम कर रहा था। आखिर ये भी तो साहिर ही थे, जिन्होंने कभी कहा था- “आज चाँदी के तराज़ू में तुलेगी हर चीज़, मेरे अफ़्कार, मिरी शाइरी, मेरा एहसास।”
एक पेशेवर गीतकार के रूप में उन्होंने ‘नया दौर’ का वो गाना लिखा था, और जब लिखने ही बैठे तो मन मारकर नहीं लिखा, पूरी तबीयत से लिखा- “पेड़ों में बहारें झूलों की, राहों में क़तारें फूलों की, यहाँ हँसता है सावन बालों में, खिलती हैं कलियाँ गालों में।” लेकिन ‘प्यासा’ में उन्होंने जो लिखा, वो उनके दिल की आवाज़ थी। क्योंकि यह नज़्म वे 1940 के दशक में ही लिख चुके थे, जो उनके मजमु’ए ‘तल्ख़ियाँ’ में शाया हुई थी। उसके बोलों को उन्होंने फिल्म में बदल भर दिया था। मूल नज़्म में बोल थे- “कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के, सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं?” पहले जो बात मशरिक़ (पूर्व दिशा) के लिए थी, उसको उन्होंने बाद में बदलकर हिन्द के लिए कर दिया।
क़लम में हुनर हो तो हर मसअले पर चल सकती है, लेकिन हर मसअले पर कही बात को क़लमकार के दिल की आवाज़ नहीं समझ लेना चाहिए- ख़ासतौर पर पेशेवर रूप से लिखे गए गीतों में। या फिर नॉवल, अफ़साने आदि में। मिलान कुन्देरा कहता था, “एक नॉवल के भीतर लेखक के ख़ुद के विचार होते ही कहाँ हैं? सब किरदारों के ख़यालात होते हैं।” जभी तो पक्के क्रिश्चियन फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की ने ‘द ब्रदर्स करमाज़ोव’ में अपने एक पात्र इवान करमाज़ोव के मुँह से ईसाई धर्म में निहित संगठित-धर्मसत्ता की पोल खोल डाली थी। ये कहलवा दिया था कि अगर आज जीज़ज़ फिर से उठकर चले आएँ तो ये पादरी उनको फिर से सलीब पर चढ़ा देंगे। ये तब था, जब उपन्यास का नायक अल्योशा युवा पादरी था और पवित्रता के उपदेश देता था।
इवान तुर्गेनेव के साथ भी ऐसा हुआ था। ‘पिता और पुत्र’ में वे पिताओं का पक्ष लेने बैठे थे, लेकिन अंत में पुत्रों (बज़ारोव) को नायक बना बैठे!
जावेद अख़्तर से एक बार किसी ने कहा, “आप झूठ कहते हैं कि नास्तिक हैं, होते तो ‘ओ पालनहारे, निर्गुनवा न्यारे’ कैसे लिखते?” जावेद ने कहा, “ग़नीमत है आपने ये नहीं कहा कि “आप झूठ कहते हैं कि शरीफ़ आदमी हैं, वरना डकैत गब्बर सिंह के संवाद कैसे लिखते।” आगे उन्होंने जोड़ा, “हम चाहे जितने रैशनल हों, उस परम्परा के ही हिस्से हैं, जिसमें सदियों से ईश्वर की प्रार्थना की जा रही है। जब हम अपने विपरीत जाकर कोई चीज़ लिखते हैं, तब वह परम्परा हम में से बोलने लगती है।”
शुक्र है कि साहिर ने फिल्मों में गाने लिखे और इस बहाने उनकी अद्वितीय लिरिकल प्रतिभा- क्योंकि ऐसा बेजोड़ गीतकार कोई दूसरा नहीं हुआ है- के अनेक रंग खुलकर, खिलकर सामने आए। अगर वे ज़ाती तौर पर नज़्में ही लिखते तो वो हज़ारों ख़ूबसूरत बातें कभी नहीं कहते, जो अपने फिल्मी गीतों में कह गए हैं।
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)