डॉ मनमोहन सिंह की बेसाख़्ता याद हमें उनके बारे में कम, अपने बारे में ज़्यादह बताती है!
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit:
1982 में इंदिरा गांधी की सरकार में जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे, तब डॉ. मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर बनाए गए थे। वे प्रणब दा को रिपोर्ट करते थे और उन्हें ‘सर’ कहकर पुकारते थे। कालान्तर में जब मनमोहन प्रधानमंत्री बने तो प्रणब दा उनके मंत्रिमण्डल में मंत्री बने। अब प्रणब दा मनमोहन को रिपोर्ट करने लगे। लेकिन मनमोहन अब भी उन्हें ‘सर’ कहकर ही बुलाते थे। तब एक बार प्रणब दा ने खीझकर कह दिया था कि तुम मुझे ‘सर’ क्यों कहते हो, अब तो मैं तुम्हारा मातहत हूँ!
मनमोहन सिंह की यह जो विनम्रता, लो-प्रोफ़ाइल, मितभाषीपन था- उसके विरुद्ध देश की जनता ने पहले 2011 के अण्णा आन्दोलन और फिर 2014 के चुनावों में विद्रोह किया था। वे ‘मौनमोहन’ कहलाने लगे थे। उन्हें दब्बू समझा जाता था, हालाँकि उन्होंने आर्थिक-सुधारों का पथ प्रशस्त करके और अमरीका से एटमी डील करके (यह उन्होंने प्रणब मुखर्जी के साथ टीम बनाकर किया था) ख़ूब साहस का परिचय भी दिया था।
लेकिन 21वीं सदी की पहली दहाई की अंगड़ाई पर भारत बदल रहा था। बदलते भारत को एक बदले हुए नेतृत्व की ज़रूरत थी- तेज़-तर्रार, मुखर, हाई-प्रोफ़ाइल, अपनी छाती पर अपने हाथों में तमगे टॉंककर नि:संकोच उनका मुज़ाहिरा करने वाला, बड़बोला, अल्पशिक्षित, थोड़ा अशिष्ट भी (विपरीत विचारधारा वाले होने के बावजूद मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी में ये तमाम दुर्गुण नहीं थे), धर्मसापेक्ष और कॉस्मोपोलिटन के बजाय धुर राष्ट्रवादी-दृष्टिकोण रखने वाला।
भारत ने 2014 में मनमोहन सिंह को समारोहपूर्वक निरस्त किया था। भारत ने उन्हें चुना भी नहीं था। 10 साल तक ‘बर्दाश्त’ भले किया हो। उन्हें परिदृश्य से बेदख़ल करने के बाद भारत ने लौटकर उनकी तरफ़ नहीं देखा। भारत को जो चाहिए था, वो उसे मिल गया।
फिर भी आज उसे मनमोहन रह-रहकर याद आ रहे हैं और आते रहेंगे। मनमोहन ने कहा था इतिहास उनके प्रति उदारता दिखाएगा, और यह हो रहा है। उनके अवसान पर चतुर्दिक् आदरांजलियाँ हैं। और वे आदरांजलियाँ थोपी हुई नहीं, स्वत:स्फूर्त है। उसमें एक किस्म का नॉस्टेल्जिया है।
हम जिसे निरस्त करते हैं, उसे कभी भी पूरी तरह से बुहार नहीं देते। और लौटकर उसे एक बार याद ज़रूर करते हैं- स्नेह और आदर के साथ- मनमोहन इसकी मिसाल हैं।
देश को एक शिक्षित, विनम्र, संयत और पूरी दुनिया से फ़र्ज़ी नहीं वास्तविक सम्मान पाने वाला नेता आज अगर याद आ रहा है तो यह आज के भारत के बारे में कुछ ज़रूरी इत्तेलाएँ देता है।
और अपनी तमाम कमियों, निराशाओं, विफलताओं के बावजूद 2004 से 2014 का भारत अपनी सामाजिक-आर्थिक बुनावट में 2014 से 2024 के भारत से बेहतर था- तो ये उन मनमोहन सिंह के लिए एक प्रशस्ति-पत्र है, जिन्होंने अपने जीवन में एक भी चुनाव नहीं जीता और जो रैलियों में अपना काम छोड़कर धुरंधर चुनाव-प्रचार नहीं किया करते थे। वे फ़ुल-टाइम पोलिटिशियन नहीं, फ़ुल-टाइम पॉलिसी-मेकर और स्टेट्समैन थे।
उनकी बेसाख़्ता याद हमें उनके बारे में कम, अपने बारे में ज़्यादह बताती है!
Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)