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रामेश्वरम तीर्थ की महिमा अपरंपार क्यो है ?

- सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
ईश्वर के आशीष की आवश्यकता ईश्वर को भी होती है। और यही कारण है कि पुराणों को पढ़ते समय आप कभी भगवान शिव को भगवान विष्णु की स्तुति करते पाते हैं, तो कहीं भगवान विष्णु को भगवान शिव की प्रार्थना करते देखते हैं। ऐसा सम्भवतः इस कारण भी हो, कि मनुष्य सर्वोच्च होने का असम्भव लोभ छोड़ दे। प्राचीन आध्यात्म हो या आधुनिक विज्ञान, “सबसे बड़ा कौन?” के प्रश्न पर दोनों ही अनुत्तरित हो जाते हैं।
किसी भी महत्वपूर्ण कार्य का प्रारम्भ ईश्वर के समक्ष शीश नवा कर करने की परम्परा नई नहीं है, इतनी प्राचीन है कि अपने समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य का नाश करने के लिए लंका में प्रवेश करते समय भगवान श्रीराम ने भी सबसे पहले ईश्वर को पुकारा। उस महासमुद्र के तट पर शिवलिंग की स्थापना कर के कहा, “नमामि शमीशान निर्वाणरूपं… हे ब्रह्मांड नरेश! हे मुक्तिस्वरूप, कण कण में ब्याप्त परमब्रम्ह! मैं दाशरथि राम आपको नमन करता हूँ।”
भगवान शिव की कृपा से प्रभु श्रीराम तो विजयी हुए ही, भोलेनाथ अपने समस्त भक्तों को विजयश्री का आशीष देने के लिए वहीं विराजमान हो गए। राम के ईश्वर, रामेश्वर…
मनुष्य बड़ा लोभी होता है, देवकथाओं में भी अपने हिसाब से अर्थ ढूंढ लेता है। इस कथा का एक कलीयुगी अर्थ देखिये। रावण भगवान भोलेनाथ का भक्त था। उसकी समस्त शक्ति के केंद्र में भोलेनाथ का आशीष ही था। तो क्या बिना भोलेनाथ की कृपा पाए कोई उसे पराजित कर सकता था? नहीं। तो यदि किसी बड़ी शक्ति से उलझना हो न, पहले उस शक्ति के पीछे की मूल शक्ति को प्रसन्न कीजिये, युद्ध आसान हो जाएगा।
रामेश्वरम में वर्तमान मन्दिर है,उसका निर्माण पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य अलग अलग समय पर सेतुपति साम्राज्य के शासकों और किसी धनी वैश्य ने कराया। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि मन्दिर में लगे अधिकांश पत्थर नाव द्वारा लंका से लाये गए थे। भगवान भोलेनाथ को लंका ले जाने का रावण का स्वप्न कुछ इस तरह पूरा हुआ कि लंका के पत्थरों से निर्मित भवन में भोलेनाथ विराजते हैं। ईश्वर अपने हर भक्त की सात्विक इच्छाएं पूरी करते हैं।
कहते हैं, इतना भव्य और लम्बा गलियारा अन्य किसी मन्दिर का नहीं। अनेक धर्मनिष्ठ शासकों द्वारा किये गए निर्माण ने इस तीर्थ को अद्भुत वैभव प्रदान किया है। भारत के दक्षिणी छोर का सौंदर्य जैसा होना चाहिये, वैसा रामेश्वरम मन्दिर में दिखता है।
रामेश्वरम तीर्थ इस भरोसे का भी प्रतीक है कि यदि धर्म की शक्ति हो तो समुद्र पर भी पुल बांधा जा सकता है। और यह भी, कि अपनी विशालता के मद में चूर कोई सागर (शक्तिशाली मनुष्य) प्रार्थना के स्वर न सुने, तो उस पर धनुष उठा लेना भी धर्म है।
अधर्मियों के बढ़ते प्रभाव के बाद भी दक्षिण में धर्म और परंपराएं उत्तर से अधिक सशक्त हैं। यही कारण है कि उधर के तीर्थ अधिक जीवंत हैं। तो जब संयोग बने, निकल जाइये महादेव की शरण में। उनकी कृपा समस्त बाधाओं को दूर कर देती है।

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साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।

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